कविताएँ ::
प्रज्वल चतुर्वेदी
फिर कोई बावरी मोहब्बत की…
कौन देखता है उसे अमलतास की छाँव से अलग होते
सेमल से छूटी रूई-सी कोमलता को
अपने आँसुओं पर टिकाते हुए कौन देखता है उसका रोना
जब सीटी मारती हुई ट्रेन उसके सामने से चलती है
कौन देखता है कि वह गुलमोहर की डाल से
छूटकर गिरती है चक्कर खाती
एक भभकती लौ-सी काँपती हुई
उसकी आँखों की सफ़ेदी पर कौन देखता है
दुःख का ज़र्द रंग
जब उसकी भौंहें अपनी भंगिमाओं में लास्य करती हैं
और उसकी ज़ुल्फ़ों में छिपी हुई रात
उसकी इकहरी लंबी परछाई में सोती है
उसको डर है अपने मिट्टीनुमा रंग को खो देने का
लेकिन फिर भी वह दिखती है किसी आवाँ में तपते हुए
एक लंबे अंतराल के बाद कभी-कभार उसकी नींद में
बड़ी मुश्किल से कोई सपना पनपता है
गड़ही में मछली मारने का
जिसके किनारों पर बुद्ध जैसी कोई आकृति
अपने दाहिने घुटने पर सिर टिकाए सोती है
कौन जानता है कि स्वप्न उस पर किसी मारण-मंत्र-सा गिरता है
और वह मछली मारने के लिए हिल तक नहीं पाती
इसके बावजूद पराजित रात के एक-एक तारे को
कितनी सहजता से खोंसती है अपने जूड़े में
जैसे कह रही हो कि अगर इस रात को न सहेजूँ तो
फिर कोई बावरी मोहब्बत की अपनी ज़ुल्फ़ें नहीं सँवारेगी…
वह ऊबड़-खाबड़ ज़मीन का एक टुकड़ा ही सही
जहाँ एक खुरपी और कटे हुए
गुलाब के एक डंठल के सहारे जिया जा सकता था
उसकी साँसें बेशक किसी साज़ पर सधी संगीत नहीं थीं
लेकिन दिल की धुकधुकी बढ़ाने के लिए पर्याप्त थीं
और उसकी हँसी अनिश्चय को बढ़ावा देती हुई
उसी हवा में उड़ जाती थी
जिसमें मैं भी साँस लेता था
एक दिन वह वैसे ही उड़ जाएगी
जैसे जेठ की दुपहरी में उड़ती है सेमल की रूई
और उसकी स्वच्छंदता हवाओं पर
विषुवत रेखा के इर्द-गिर्द मौसमों को प्रभावित करती चलेगी
उसकी उष्ण कटिबंधीय कोमलता की आर्द्रता को
कौन देखेगा चुनचुनाती उमस में बदलते हुए
अभी भी
अभी भी मैं उसको आवाँ से निकाल नहीं पता
अभी भी मैं उसकी सेमल-सी कोमलता को
अपना तकिया नहीं बनाता
अभी भी मैं नहीं सँजोता हूँ
उसका गुलमोहर-पन किसी किताब में
और मैं सोचता हुआ पछताता हूँ कि
इस कविता में मैं कहाँ से आता हूँ
कहने का अभिप्राय से कितना लेना-देना है?
और इसी दर पे अगर तुम कुछ खोया हुआ खोजते चले आओगे
तो उसको आवाज़ क्या लगाओगे?
वहाँ की मौजूदगियों को कैसे बताओगे कि क्या खो गया?
क्या कहोगे नमी से ओस के बारे में?
छू भर लेने को
उँगलियों के सिरे से ज़ुबाँ की नोंक तक कैसे लाओगे?
कहीं सूर्यास्त का मंडलाकार क्षितिज दीख पड़ा
तो क्या कह पाओगे कि वह कोई इंद्रधनुष था
जिसके नीले और लाल के बीच में पड़ने वाले रंग
उस पार किसी के ख्व़ाब में ज़ब्त हैं
कहीं अगर मैं मिला तुमको तो
तुम्हारा सवाल वहाँ मेरी उपस्थिति के आश्चर्य से भरा हुआ होगा
शायद तुम न कहो कि हम सदियों से नहीं मिले
बिछोह की स्वीकृति में तुम मिलने को आतुर लगोगे
कैसे कहोगे तुम चर्म के मर्म से अनभिज्ञ हो
अगर एक ही चोला ओढ़े हुए तुम लिखते जाओगे
जैसे तुम दिखते हो ठीक वैसी ही कविताएँ
और कविता के टोन को पकड़ पाने की अक्षमता
तुमको हर उच्छ्वास के साथ बोझिल लगने लगेगी
जब तुम अँधेरे को हमेशा निराशा के रूपक में सोचोगे
तो तुम्हारे लिए यह कहना कितना कठिन होगा कि
अँधेरे में देखने की जद्दोजहद बहुत सुंदर होती है
यूँ तो देख पाने की जद्दोजहद किसी तरह से कठिन होती है उजाले में भी कहाँ दिखाई पड़ता है घास में छिपा हुआ साँप जब किसी किताब का कोई प्रिय वाक्य खोजते हुए तुम्हारे बगल से निकल जाता है और तुम चोन्हराई आँखों से हौसलाअफ़जाई करने वाली किसी मद्धिम रौशनी की ओर देख रहे होते हो
समय के अनजाने गह्वर की ओर…
चलते हुए जूते की दूसरी जोड़ी लेकर नहीं चलता
अवलम्बों के बिस्तरबंद की तो सोचो ही मत
(मैत्रेयी! अँधेरे का सीना
सिर्फ़ मशालों और फ़्लैशलाइटों से चीरने के लिए नहीं होता
कभी-कभी उसमें अपने आकांक्षाओं की एक थाती दबा देनी चाहिए
तुम देखोगी वह एक दिन महान द्रुम का रूप धरेगा
और उसके पत्ते-पत्ते पर होगा तुम्हारा ही कोई अपना-सा सपना
झिलमिल करता हुआ)
अँधेरे से गुज़रने के लिए
कभी-कभी जुगनुओं के सपनों से गुज़रना होता है
टटोलते हुए भी पहुँचा जा सकता है अँधेरे की छोर तक
अचकचाकर जागा हुआ डर ही तुमको
भीड़ की ओर ठेलता है
तुमको क्या लगता है?
सुषेण अगर मेरे लिए इलाज बताता तो
तो आलिंगन या एकांत के अलावा मेरे पास दूसरा कोई चारा न होता
क्योंकि वह मुझे फूट-फूटकर रोने के लिए कह देता
उत्सव का शोर मुझे बताता है
यूँ उदासी है आलम में चारों तरफ़
हर तरफ़ लोग हैं हर तरफ़ लोग हैं
यही शोर मुझे अकेला घोषित करता है
अंततः एक वाक्य कह पाने की लालसा हमेशा बनी रहती है जैसे किसी ढलती शाम मैं अपने भूले-बिछड़े परिचित से मिलने पर अलविदा कहने के बाद भी कहता हूँ कि मुझे उससे मिलकर ख़ुशी हुई उतने से भी असंतुष्ट मैं फिर आगे जोड़ देता हूँ एक साँस की रुकावट के बाद कि जल्दी मिलते हैं पीठ के सामने पीठ होती ही है कि हम दोनों ही समझ जाते हैं कि हम एक दूसरे को गाली दिए बिना आगे नहीं बढ़ सकते और स्वगत ही बुदबुदाते हैं… भक्क्क… भोसड़ीवाला…
इसी एक लालसा में कविताएँ लंबी होती जाती हैं
और भ्रम होता है कि मैंने लंबी कविता का शिल्प साध लिया है
लेकिन हम दोनों जानते हैं कि
पढ़ने के बाद तुम गाली ज़रूर दोगे
मैंने लिखने के पहले ही गरिया दिया है तुम्हें
और दुनिया में इस तरह कोई वाक्य आख़िरी नहीं होने दिया जाएगा
असीमित संभावनाओं के नारे लगाने वालो!
पहले असीमित मौक़े तो उपलब्ध कराओ
क्या जाने कौन-सा पल
मुझे प्रबुद्ध कर जाए
या कौन-से पल में दबाए रखे आलस्य
मुक्ति में मेरा भी हिस्सा होना चाहिए अगर दुःख में है तो
रह-रहकर यह सवाल भी मुझे सालता है
कि मेरे न रहने पर मेरे हिस्से का दुःख किसके हिस्से पड़ेगा
मैं जो उन्हें रोज़ उठाता हूँ
उनके साथ चलता हूँ
लेटता हूँ
हस्तमैथुन करता हूँ
मेरे बाद उनका क्या होगा
किसी कुपात्र के हिस्से न पड़ें मेरे दुःख
अकेलेपन से दुःख नहीं करेंगे आत्महत्याएँ
(अशोभनीयता का अपना सौंदर्यबोध होता है और मुझे नहीं लगता कि इस कथन को सिद्ध करने के लिए मुझे कोई रूपक देना चाहिए क्योंकि मेरे पास देने के लिए ऐसा कुछ है ही नहीं…)
नालियों में गिरे हुए आदमी के तारे गिनने पर कोई रोक नहीं होती
तारे बेशक किसी महबूब दोशीज़ा की तरह हसीन नहीं हैं
और इन्हीं तारों की धूल उसके बालों में बैठी हुई है
लेकिन उसकी याद में कोई तारा ही टिमटिमाएगा तुम्हारी आँखों में
तुम्हारे धूमिल होते आश्चर्य में काँपता हुआ
फलाँ बात फलाँ तर्क वग़ैरा-वग़ैरा तो अपनी जगह सब ठीक है
तुम बताओ मुझे मेरी स्मृतियों से कैसे मुक्त कर रही हो?
असीमित संभावनाओं के नारे लगाने वालो!
असीमित मौक़े
उपलब्ध
कराओ!
यह मेरे प्रबोधन का क्षण है
इस समय आलस्य मुझ पर हावी नहीं है
जब मैं चैतन्य हूँ
तभी मुझे महसूस करवाओ
कि खिलने के दूसरे क्षण भी होते हैं
जो किरण उसके गालों पर नहीं गिर रही
जाया नहीं हो रही है
अपने दर्द को डूबने से बचाना
जीने की कला ही है
एक अंतिम वाक्य ज़ब्त कर ले जाना
कुछ नया सुनने की उम्मीद में पनप रहा है
मैंने अंकुरित होने के लिए चने रख दिए हैं
और इसलिए यह हताशा का क्षण नहीं है
अंतिम वाक्य को कितनी तरजीह दी जाएगी
यह पहला वाक्य निर्धारित क्यों करेगा?
बेहतर यही होगा कि अंतिम वाक्य को सबसे ऊपर लिखा जाए
और पूरे पन्ने की लंबाई
उस अंत को खोजती हुई पहुँचे
जैसा कि अक्सर होता है
प्रेम-पत्रों में
कहने का अभिप्राय से कितना लेना-देना है यह उस क्षण स्पष्ट होता है जब साफ़-साफ़ समझ आ जाए कि कहने का जो आशय था वो वाक्य में कहीं था ही नहीं और जिस आशय के लिए हाय-हाय करते हुए छाती पीटी जिसके लिए भाषा की अर्गलाएँ चटचटाती रहीं उन आशयों के लिए वाक्यों को नामौजूद पाया गया
एक पीला पत्र जिसको लिखते हुए मैं मारा गया
इस कविता को मैं उसके लिए
एक खुले पत्र की माफ़िक़
छोड़ दूँगा
जिसने अपना ठिकाना बदल दिया
और मुझे उससे अनभिज्ञ रखा
अगर तुम क़रारों-वायदों के बारे में पूछो
तो मैं तुमको बताऊँ कि उम्मीद कैसे पियराती है
प्रत्याह्वान के पीले चकत्ते उभरते हैं कैसे
किसी अधूरे महाग्रंथ पर
कैसे पके बाँस का पीलापन अर्थी बनता है
किसी मर रहे उन्माद के लिए
ज़र्द वाक्य कैसे स्याह चेहरे में बदलते हैं
कैसे चेहरों की स्याही शाम को ढकते-ढाकते रात कर देती है
रात में टूटते तारे टूटते क़रार हैं कि
दिल कैसे टूटता है
ऐसा ज़र्द है तसव्वुर मेरा कि
दिल मेरा उसे सुड़कते हुए धड़कता नहीं
टपकता है
और मेरी रगों में चिलकता है कोई पीला दर्द
मैं तुमको कैसे बताऊँ कि पीला सिर्फ़ मौत कर रंग नहीं
पीला वह रंग है जिसे इंसानी आँखें सबसे जल्दी महसूसती हैं
किसी की आँखों में नहीं चुभती पीली तितली
पीला किसी चिड़िया का गीत है
जो सूरज में रंग भरता है
पीला तो सूरज है और सूरजमुखी
पीली तो सरसों है
और पीला ही है वसंत
पीला तो पन्ना है किताब का
जिसपर दर्ज है कविता कोई
पीली तो आँखें हैं बिक्कन बेलदार की
और पीली ही हैं उसकी औरत की आँखें
जिन पर क़ुर्बान होने के लिए दिन भर वह खटता है
पीली है टेबल लैंप की रौशनी
जिसके नीचे अपने सपने सुखाते हैं
प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थी
पीला स्नोसेम पुता है तुम्हारे घर पर
और पीले हैं अँग्रेज़ी विभाग के पत्थर
और चमचमाते पीले में पुता है पूरा हिंदी विभाग
जहां मैंने तुमको कविता की रिफ़ाइनरी दिखाई थी
पीली धूप पड़ती है चौक में लगे जाम पर
जो बाएँ से चल रहे लोगों को दाहिने ढकेल देती है
पीली है पीतल की मुहर
जिसमें दिल उकेरते हुए मुहरसाज़ कहता है
दिल का दाम दस रुपया है
पीला वही रंग है जिसको मैं याद करूँ तो
लालटेन की भभकती हुई लौ याद आ जाती है
प्रतीक्षा का रंग पीला है
चाहे जिस बेला की हो
पीली है सहगल की आवाज़…
‘सुख के दिन थे एक स्वप्न था…’
कानपुर टाटमिल चौराहे पर लगा हुआ
पीला है इश्तहार
जैसे पीला है ट्रेन में खड़े-खड़े
कानपुर पहुँचने वाले का मुँह
कानपुर से लखनऊ जाने वाली
पीली है पैसेंजर गाड़ी
पीला है नारद का चोग़ा और
उसके नाम की व्याख्या भी पीली है
“…जिसकी बात रद्द न हो
वो नारद्द…”
ब्रह्मा के हाथ के वेद पीले हैं
और पीला है हिरण्यगर्भ
पीला है अँधेरे का डर और टॉर्च की रौशनी
इतना सब कुछ पीला है
तो इसलिए
ज़र्द हैं स्मृतियाँ
इसलिए पीला है सूखा हुआ सफ़ेद गुलाब
इसलिए डायरी के पन्ने पीले हैं
तुम्हारे लिए यह मेरा अंतिम उन्माद है
ठीक वैसे ही जैसे था तीन दिन पहले
शायद तीसरे दिन यही उन्माद
मारे गए उन्मादों में से फिर जी उठे
अंतिम बार संशोधित करता हूँ इस कविता को
और इसे पत्रनुमा बनाता हूँ
अंतिम बार इस पर पीले रंग की एक तह चढ़ाता हूँ
अंतिम बार सोचता हूँ
हम पीले-ज़र्द उत्तर भारतीयों को प्रेम करना कौन सिखाएगा?
पुनश्च :
कोई भी सड़क उसकी गली तक पहुँचा आती
हर क़दम उसी की तरफ़ उठता
और मैं पत्र में उसे एक बेकार कविता भेज देता
लेकिन इन सबमें एक नींद की कमी थी
एक सपना ग़ायब था
एक पीली हँसी दम तोड़ती हुई
मुझे सन्नाटे में लपेट गई
क्योंकि मैं पीले रंग में इतना उलझा रहा
कि और कोई रंग मुझे दिखाई नहीं दिया
मैं अपनी तरफ़ से
नए रंग का आविष्कार करने को
चिल्लाता हुआ मारा गया
मैं किसी नए रंग का आविष्कार नहीं कर सकता था
(मुझे तो पता है भगवा में पीला छिपा हुआ है)
मैं किसी संशय की तरह फिरता रहा
और किसी ने मुझे नहीं सहेजा
मुझे लौटने की अनुमति माँगते हुए मार दिया गया
जबकि मैं जानता था कि
कहीं भी जाने की शुरुआत मेरे पैरों के तले है
जब भी उनको तुम्हें सौंप कर गया
तुमने उन्हें अधूरा छोड़ दिया
नींद!
जाओ!
मैं तुम्हें सपनों को देता हूँ
तुम देखो कि पूरा होना क्या होता है
इस अँधेरे में
इससे पहले कि उन शब्दों को खोजते हुए
रौंद न डालूँ
तुमसे एक बात कहता हूँ
भले सड़क के बाईं ओर धूप पड़ती हो
अपने बाएँ से ही चलना
अगर बहुत भीड़ हो बाईं ओर
तो धीरे बढ़ना
बाएँ से सड़क पार करके बाएँ ही मुड़ना
वरना चौक में जाम लग जाएगा
प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह तीसरा अवसर है। उनकी चमक समकालीन हिंदी कविता में धीरे-धीरे ही सही अलग से पहचानी जा रही है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : दूसरे का बोझ ढोने वाला नहीं मरता अचानक | मैं उसकी राख से स्याही बना रहा हूँ
हिंदी कविता की युवतम पीढ़ी को यदि प्रयोग, सबवर्जन, दुस्साहस और अध्ययन के निकष पर जाँचना हो तो बिना किसी संशय के प्रज्जवल बहुत आगे हैं। अप्रतिहत और बला की इमैजिनेशन । उनकी काव्यात्मक महत्त्वाकांक्षा जितनी अप्रतिरोध्य है , उतनी ही नैसर्गिक और आवयविक । ठोस और वायव्य को वह जिस औदार्य , रूपकात्मकता और फिर भी निर्वैयक्तिक सघनता से पकड़ते हैं उसे देखकर सुखकर विकंपन पैदा होता है। वह तड़प और अधीरता के अनुपम कवि हैं। वह एक संघटनामय समुद्र लेकर घूमते हैं। उनका दैनंदिन असंतोष किसी भी विद्रोह से कम नहीं । असहमति की सततता उन्हें प्रदीर्घ बनाती रहती है।कविता के समकालीन बाजार से वह ऊबे हुए लगते हैं और उन्हें इसकी फ़िक्र नहीं कि थिएटर खाली है।
सर, आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए संबल है। इसके लिए आपका हार्दिक आभार। सदैव बेहतरी के लिए प्रयासरत रहूंगा।