कविताएँ ::
पूर्वांशी

पूर्वांशी

धूल

आँखें मुँदी हुई थीं
और देह का पूरा भार गिर चुका था
और छूटा पड़ा था
एक अनजान कपड़े जैसा
जिसमें बस पहनने वाले की गंध बची हो
और आज की धूल
पहनने वाले से दूर कहीं।

काँच की दूसरी ओर
वह आदमी जिसकी आँखें, शरीर और कपड़ों की
आवाज़ बँध कर रह गई थी उस ओर
न जाने क्या बचा था उसका इस ओर।

शायद कुछ कल की धूल
जो सब कुछ छोड़ते वक़्त
चिपकी रह गई होगी इस ओर।

छवि

एक फूल के खिलने से
टूटने तक के बीच
न जाने कितनी साँसें
मेरी साँसों से बहुत दूर तक का
सफ़र तय कर चुकी होंगी
सँजो कर सिर्फ़ पैरों के निशान रखे हैं मैंने
जो मिट रहे हैं
उनमें भी बचेंगे बस कुछ कण
जिनसे सिर्फ़ एक ही पैर का निशान
वापस बन पाएगा

उसमे ढूँढ़नी होगी एक छवि

अपनी छवि।

इस तरफ़

आत्मा की दरारों से
गुज़र कर आती हैं तुम्हारी साँसें
एक पूरे संसार को पार कर
सोच की सिलवटों से हो कर
और बच्चों के सुबकने से।

धीमी ध्वनि के नज़दीक
ध्वनि जो पहली ईंट के बन कर
टूटने के बाद से
गूँजती आ रही है लगातार।

सिर रख लो इस आवाज़ की खटिया में

बिछा लो अपनी नींद यहाँ।

~~~

बंद हैं कुछ दरवाज़े
जिनके भीतर घूमती है एक तेज़ आवाज़
और सूखे पत्तों की एक-एक कर
टूटने की आवाज़
नहीं सुनाई पड़ती है

तेज़ सिसकियों के बाद
मिट्टी हो चुकी
हज़ार खटियों की कहानी भी
दब गई है उसी मिट्टी के नीचे

दरवाज़े में ताला नहीं है
वह भी मिट्टी हो रहा है
आख़िर में कुंडी बच जाएगी सिर्फ़
जो लग नहीं पाई

और तुम्हारे कदमों के निशान।

संसार की जगह

बादलों के पीछे
धीरे-धीरे विलुप्त
हो जाएगा पूरा संसार

बस रह जाएँगी
दुःख की कुछ जगहें
जिनमें सिमटी रहेगी मेरी देह

और मैं रँग दूँगी बादलों को दुबारा
और रख दूँगी
संसार की जगह तुम्हें।

हाथ

पलंग से हाथ लटकाने पर
जैसे थाम लेगा
कोई अनजान हाथ
मेरे हाथों को
और उसमें बसी रेखाओं को
जिनमें बह रहा है भविष्य।

यह निकला हुआ हाथ
तुम्हारा हो यह ज़रूरी है
जैसे ज़रूरी हैं रेखाएँ हाथों की

क्या सच में है यह ज़रूरी?
क्या तुम्हारा होना है ज़रूरी?

शायद है ज़रूरी
क्योंकि हर रात
यह हाथ पलंग से लटकेगा
तुम्हारे ही अनजान हाथ की तलाश में
शायद यह तलाश ही ज़रूरी है।


पूर्वांशी की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : मुझे तुम्हारा भूलना याद है

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