कविताएँ ::
राजेश कमल

फ़रवरी
हम बारामासा प्रेमियों के लिए
फ़रवरी
प्रेम का बारहवाँ हिस्सा है
बस्स!
इसे मतले का दूसरा मिस्रा कह सकते हैं
आगे आने हैं शे’र कई
और इस ग़ज़ल में मक़्ते का शे’र
नहीं आना है
हम लानत देते हैं उन नामुरादों को
जिन्होंने इस माह को दिया राजमुकुट
हम बारामासा प्रेमियों के लिए
फ़रवरी
प्रेम का बारहवाँ हिस्सा है
बस्स!
इज़हार
जो न कह सको
तो दे दो हाथ ही हाथों में
कमबख़्त हाथ भी ज़ुबान ही है
ग़ज़ब ये कि
ज़ुबान की तरह काँपने का रोग भी है इसे
पर अच्छी बात ये कि
बेवजह झूठ नहीं बोलता
और सबसे अच्छी बात ये
कि ज़ुबान की तरह हकलाता नहीं
कह देता है—
प्यार है
इमोजी
यह जो इमोजियों में बात करते हो न
नहीं भाते मुझे
अगर चित्रों में ही बतियाना है
तो कूचियाँ पकड़ो
अगर नहीं संभव यह
तो साधो कोई राग
अगर यह भी संभव नहीं है
तो चिल्ला के ही कह दो
मैं समझ जाऊँगा
कि आज तुम्हारे हृदय का रंग बैंगनी है
और
फिर
अगर
किसी रोज़ भर जाए दिल इन प्रतीकों से
तो ले आना लफ़्ज़ों को
और ख़ूब बातें करना
चाँय-चाँय,चपड़-चपड़, बकर-बकर
जैसे नदियाँ करती हैं किनारों से
और पत्तियाँ हवाओं से
यादें
कुछ चीज़ें छूट जाती हैं
कुछ खो जाती हैं
कुछ लुट जाती हैं
यादें भी
फिर कभी, कहीं, किसी दिन
छुटी, खोई, लुटी चीज़ों की
कोई प्रतिकृति मिल जाती है
और फिर
यादें भी
जैसे अभी-अभी
एक कुकुरदाँत वाली लड़की मिली
और उन्नीस सौ छियानबे याद आ गया
पता है
हर बार की तरह इस बार भी
तुम्हारी निद्रानिल आँखों से
निर्जल होंठों से
इज़हार तो निर्ध्वनि ही था
फिर भी मैंने सुन लिया
न… मैं कोई जादूगर नहीं
न ही हृदय के कंपन को सुनने की कोई
युक्ति ही मेरे पास
फिर भी तुमने ‘हाँ’ कहा है
पता है हृदय को
मलयानिल
अपनी असुंदर लेखनी से
इतना सुंदर नाम
नहीं लिख पाऊँगा
जब भी लिखूँगा तुम्हारी कहानी
तुम्हारे नाम की जगह
लिख दूँगा—
‘चंदन की सुगंध वाली हवा’
तुम नाम नहीं
एहसास हो—
जो आँखों से नहीं
हृदय से पढ़ा जाएगा
रहती दुनिया तक
सात जन्मों का संबंध
या जनम-जनम का संबंध
मन को ख़ुश रखने के लिए है
यह जो प्रेम की लीला है
इसका संबंध न भूत से है
न भविष्य से
यह वर्तमान में पैदा लेता है
वर्तमान में जीता है
और वर्तमान में ही अमर हो जाता है
हम वर्तमान में ही सात जन्मों का संबंध बनाते हैं
और वर्तमान में ही हीर-राँझा कहलाते हैं
बाक़ी क़िस्से-कहानियाँ तो हौसला अफ़जाई के लिए हैं
हाँ! हम हौसला अफ़जाई करते रहेंगे
रहती दुनिया तक
ओ.सी.डी.
धूल भरे सूखे होंठ और
सिगरेट की महक वाली साँसों को चूमना
हो जाए अगर मनोग्रसित-बाध्यता
तो विकार नहीं कहा जाएगा इसे
ख़ामोशी गाएगी मधुवंती
खोए हुए पलों का पुनर्जन्म होगा
घुप्प अँधेरों के पार तबस्सुम है
अमावस की रात भी चाँद होगा
दुर्लभ रागों में ओस के टपकने की ध्वनि होगी
और सुर में होंगी सब दिशाएँ
अब गोलियाँ जाएँगी दराज़-दराज़
और दराज़ में मिलेंगे मुड़े-तुड़े पुराने ख़त
गड़ी हुई पुरानी दौलत की तरह
धूल भरे सूखे होंठ और
सिगरेट की महक वाली साँसों को चूमना
हो जाए अगर मनोग्रसित-बाध्यता!
नए सफ़र में
किसी बिसुरे कवि की लिखी
एक उदास कविता हूँ
तट पर खड़ा अब लहरों से लड़ नहीं पाता
बीच धार में जाने का हौसला
कहाँ से लाऊँ
कभी पढ़ लेते थे वे
हमारी आँखें
अब न पढ़ी जाने वाली कहानी हूँ
हमारे पन्नों पर धूल की गर्द जमी है
नए सफ़र में
अब ख़ुद से ही बातें होतीं है
अंतहीन दुख का प्रताप है हमारे साथ
स्वप्न-भंग की क्या ही पीड़ा
सुख है!
सुख है!
सुख है!
सफ़र
हमने वादा किया था
हमें लौटना था उन्नीस की उम्र में
हमें लौटना था वहाँ
जहाँ एक साँवली लड़की
चश्मे को बार-बार दुपट्टे से साफ़ करती थी
लेकिन हम
जहाँ गए वहीं के हो गए
जहाँ खाया वहीं सो गए
जीवन ऐसा ही रहा
नहीं रहा कुछ अपने बस का
चाय और कॉफ़ी की चुस्कियों का साथ रहा
साथ रहा सिगरेट के कश का
सफ़र के ख़ात्मे तक
सनम कर लिया था एक आह!
एक आह सफ़र के ख़ात्मे तक के लिए!
एक दिन मुस्कुराऊँगा
चेहरे पर जो धूल-सी जमी है
पोंछ दूँगा हथेलियों से एक दिन
जैसे सूखे पत्तों को हवा बुहार ले जाती है
और धरती हो जाती है नई
मैं भी हो जाऊँगा नया
ख़ुशबुओं को भींच लूँगा मुट्ठियों में
जुगनुओं को लगा लूँगा गले
और लिख दूँगा हृदय के जल पर
संभव है
सारे दुख नहीं जाते दुआओं से
सारी गाँठें नहीं खोल पाती उँगलियाँ
सारे गर्द नहीं धुलते मेघपुष्प से
फिर भी
जिन पत्थरों से खाई है चोट
उन्हीं से बनाऊँगा पुल
और मुस्कुराऊँगा
आत्मस्वीकृति
जिसकी आँखों में अधूरी नींद के बादल हैं
जिसके मन में असंख्य धमाके हैं
जिसके जीवन में नहीं आता है इतवार
और जिसके दुख की लिपि
नहीं पढ़ी जा सकी अब तलक
उसी की ऊष्मा के घेरे में बैठकर
दे रहा हूँ अपरिमित ज्ञान
लिख रहा हूँ कविताएँ
कर रहा हूँ विमर्श
यह भी है—प्रेम-कविता
जब तमाम तरह की गपड़चौथ कर ली जीवन में
तब तुम मिले
मिलते ही तुम्हारे जीवन का शग़ल
रोटियाँ बेलना हो गया
जिसे मैं खाता
मेरे बच्चे खाते
मेरे रिश्तेदार खाते
और कभी-कभी मेरे दोस्त भी
तुम्हारा काम इतना ही नहीं था
तुम्हें मुस्कुराना भी था
मुस्कुराहट तुम्हारी—
जिस पर मैं सदियों-सदियों से वारा-न्यारा हूँ
इक अविनाशी पंक्ति
नहीं-नहीं
हाथ में हाथ डाल लंबी राहों पर चलना
अँधेरी सुरंगों में उम्मीद लिए घुस जाना
या सपनों की तान पकड़ना
—संभव नहीं
अब जीवन-राग में ऐसे स्वर वर्जित हैं
वह जो नीले आसमान का भ्रम था
अब नहीं है
अब ख़ंजरों का शिल्प कुछ अलग है
आँखों की कोरों में अटके हैं—
सूखे रक्त-कण
ऐसा नहीं कि टीस उठती नहीं
वह धीमे-धीमे सिहरती-सी आती है
और उदास कर जाती है
अब गा रहा हूँ
इक अविनाशी पंक्ति—
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा…
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