कविताएँ ::
राजेश कमल
उदासी
यह सच है कि हर तरफ़ नहीं है स्याह
फिर भी चाँदनी तो वहीं है जहाँ है सूरज
हृदयहीन रौशनी में सब झूठ है
असुंदर है
जिन्हें लाना था वसंत
काग़ज़ के फूल ले आए हैं
सदियों से उदास चेहरों के लिए
तिरंगे का टैटू आया है
प्रतिमाओं को ऊँचा
और ऊँचा किया जा रहा
महिमाओं को सुंदर
और सुंदर किया जा रहा
भंगिमाओं को अद्भुत
और अदभुत किया जा रहा
फिर भी
उदासी है कि जाती ही नहीं
अंगारों पर चलते रहे
कीचड़ में धँसते रहे
सड़कों पर भागते रहे
नहीं मिली कहीं कोई कली
नहीं मिला कहीं कोई हरा पत्ता
नहीं मिला किसी सोते में वह पानी
जो मेरे चेहरे की उदासी को धो डाले
तन्हाई
किसी दिन
जब किताबों के पन्ने नहीं पलटे जाते
नहीं बजती फ़ोन की घंटियाँ
चुपचाप रहते घर के लोग
और कोई भी चेहरा आस-पास नहीं होता
परिचित या अपरिचित
भागने लगता हूँ
इस जल-थल-नभ से बाहर
कितना अथाह होता है एक पल
जब नहीं होता
कोई स्पर्श
कोई आलिंगन
कोई संवाद
अच्छा या बुरा
सच्चा या झूठा
नया या पुराना
इससे पहले कि जीवन लगने लगे व्यर्थ
किसी से देर तक मिलाना चाहता हूँ हाथ
राष्ट्राध्यक्षों की तरह
किसी को चूमना चाहता हूँ
प्रेमियों की तरह
किसी से बेवजह लिपट जाना चाहता हूँ
और बतियाना चाहता हूँ
अपनी मर्दाना कमज़ोरी
प्रेम
ग़ालिब क़लीम के लिए
जो भी रही हो
नदियों के ज़मीन पर आने की कथा
नाव तो मनुष्य ने ही बनाई
हिमालय
कितना भी विराट
कितना भी दिव्य
कितना भी कमाल
तेन्जिंग शेरपा तो इसी मिट्टी का लाल
प्रकृति का रक़बा
माना विशाल
माना अनंत
मनुष्य के प्रेम का
कहाँ है अंत?
अनकही
फ़र्ज़ करो तुम बेहतर सुनने वाले होते
तो भी नहीं शायद
फ़र्ज़ करो मैं बेहतर कहने वाला होता
तो भी नहीं शायद
फ़र्ज़ करो मेरे पास होती साहिर की क़लम
तो भी नहीं शायद
फ़र्ज़ करो तुम्हारे पास होता अमृता का दिल
तो भी नहीं शायद
शायद शब्दों की कमी रही हो
लेकिन नहीं
शायद भाषा चूक गई हो
लेकिन नहीं
शायद हम गूँगे हैं
लेकिन नहीं
शायद तुम बहरे हो
लेकिन नहीं
न जाने कितनी चिट्ठियों में लिखा है मौन
न जाने कितने दृश्यों में लिखा है स्याह
न जाने कितनी थकी हुई है कथा मेरी
अधूरा ही रह जाता है बयान मेरा
कहानियाँ मुकम्मल नहीं होतीं
शब्दों की पहुँच से दूर हैं बेचैनियाँ
पीठ के पीछे जो खुजलाहट है
लेकिन कहाँ? (सही-सही पता नहीं)
शायद किसी गूँगे की अभिव्यक्ति को
आत्मसात् कर बताऊँ ठीक-ठीक वह जगह
कि खुजलाहट यहाँ है
कम से कम
सब कम से कम इतना पाप कर रहे हैं
कि ‘इतना’ को पाप कहते ज़बान हकला रही है
पाप की नई परिभाषा मिली दुनिया को
झूठ का नया व्याकरण मिला
और कम से कम का दायरा बढ़ा
कई झूठ जो पहले झूठ थे
अब कम झूठ हैं
कई झूठ जो पहले कम झूठ थे
अब झूठ नहीं हैं
कई पाप जो पहले पाप थे
अब क़रीब हैं पुण्य के
और कई पुण्य जो पहले ही पुण्य थे
अब महापुण्य हैं
हत्याओं को वध कहने की शुरुआत
तो बहुत पहले हो गई
बदलाव इतना तेज़ है
कि सज गईं हत्यारों की मूर्तियाँ
जबसे पाप और पुण्य की
श्रेणी में परिवर्तन हुआ
कम से कम की बात
कम से कम वाले
कम से कम करते हैं
ताक़तवर
ताक़तवर बनने के क्रम में
स्थापित ताक़तवरों की सोहबत की
उनके मुस्कुराने पर मुस्कुराया
उनके रोने पर रोया
उनके सोने पर सोया
उनके जागने पर जागा
उनके पाद को मोगरा बताया
उनकी बिल्ली को शेर बताया
और उनके पिल्ले को सवा शेर
फिर एक दिन
मैं भी ताक़तवर हो गया
फिर मेरी सोहबत में भी कुछ कमज़ोर आए
और मैंने भी पाल लिए कुत्ते
सोहबत में आए बच्चे
जिसे अपना भाई मानते हैं
मन भावुक रहता है इन दिनों
देश के भविष्य को ताक़तवर होता देख
कुशल कुमार
जिन्हें मूल से नहीं मिली पहचान
उन्होंने अन्य को काम पर लगाया
कुछ चौंकाने लगे
कुछ करने लगे चमत्कृत
कुछ साँचों और खाँचों की मदद से बन गए संगतराश
और कुछ ललित ललाम के मायाजाल में फँस गए
नए-नए करतब दिखाए
नई-नई कलाबाज़ियाँ कीं
नई-नई फ़ंतासियों को गढ़ा
यूँ तो
ये काम औसतियों का था
पर कई बार
कुशल कुमार भी इस गली में भटकते मिले
हमने टोका तो शरमाए
हमने रोका तो लगे रोने
साहेब
मेरा सवाल
आप ही रख दो
और जवाब भी
फिर मूल्यांकन?
वह तो सदियों से आप ही करते आए हैं
और सज़ा?
वह तो आप ही को सुनानी है
यह तो कब से तय है
रीढ़ की हड्डी
मुझे गुमान था जिस रीढ़ की हड्डी पर
कि वह झुकती नहीं
डॉक्टर ने कहा बीमारी है
रीढ़ की हड्डियाँ खिसक गई हैं
अपनी जगह से
यही कारण है कि
तुम झुक नहीं पाते
फिर
कुछ दिन ट्रैक्शन पर रहा
गोलियाँ खाईं
फ़िजियोथेरेपी कराई
अब आ गई हैं
हड्डियाँ अपनी जगह पर
अब झुकता हूँ ख़ूब मज़े से
ज़िंदगी आसान हो गई है
असहमत
पसलियाँ चाक़ू से कैसे सहमत हो सकती हैं?
मेरी घोर असहमति है
बिना छत की रात
और बिना दाल के भात से
मैं सहमत हूँ मिट्टी और गारे से
मेरी असहमति है छेनी और हथौड़े से
मैं असहमत हूँ
गांधी की हत्या से
भगवा दोशाला से
फरसा और भाला से
लेकिन इसी दुनिया में
लोग हैं
हाँ हैं
जो सहमत हैं गांधी की हत्या से भी
और इसी तरह असंख्य हत्याओं से
पसलियाँ चाक़ू से ऐसे सहमत हो सकती हैं
फ़ैसला
कुछ सौ साल पहले आए पौधों से
कुछ हज़ार साल पहले आए पौधों की
होती रहती थी बहस
गंध की महत को लेकर
बात कचहरी तक पहुँची
पंचायत लगी
पंचों का सर्वसम्मति से फ़ैसला आया
कि फूल को गंध से अलग कर दिया जाए
अब :
क्या सौ वाले
क्या हज़ार वाले
काग़ज़ के फूल-सी औक़ात लिए
टौवा रहे हैं
प्रार्थना
कहती कौन देखेगा मेरे बाद इन्हें
बेटे-बेटियों के अपने संघर्ष हैं
संगी-साथी रहे नहीं
अड़ोसी-पड़ोसी की नई पीढ़ियाँ आ गईं
पचपन वर्षों से लंबी आयु की प्रार्थना
निर्जला व्रत साल दर साल
नहीं बना है पिड़ुकिया
अमेजन से आया है ठेकुआ
इस बनती-मिटती ज़िंदगी के कछार में
प्रार्थना के स्वर मध्यम हैं इस बार
पाप
कुछ जाने कुछ अनजाने
मैंने भी किए पाप
व्यभिचारियों के साथ कविता पढ़ी
व्यभिचारियों के साथ देश-जहान की चिंता की
व्यभिचारियों के साथ मदिरापान किया
व्यभिचारियों के साथ संगीत का रियाज़ किया
व्यभिचारियों के साथ जीवन के अनन्य प्रसंग रहे
उन्हें एक क्षण भी जीवन से अलग नहीं किया
लेकिन व्यभिचारियों ने
सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यभिचार किया
देश और दुनिया के नियम बदले गए
जिन लफ़्ज़ों को सदियों से
गालियों में शुमार किया जाता रहा
उन कमबख़्त लफ़्ज़ों ने
शरीफ़ों के शब्दकोश में जगह बना ली
वे कभी वर्दी में मिल जाते
कभी खादी में
कभी पुराने भवन में
कभी नए भवन में
हम बस टुकुर टुकुर ताक रहे थे
हम बस टुकुर टुकुर ताक रहे थे
हम बस टुकुर टुकुर ताक रहे थे
उनके पाप कम थे हमारे पापों से
उनके पाप तो अनजाने किए पापों से भी कम थे
जैसे फेंक दी पान की पीक अनजाने में
और किसी के सफ़ेद वस्त्र को कर दिया लाल
शायद
शायद सुखी हो जाऊँ
जो माँ फिर से चलने लगे बिछौने से उठकर
शायद सुखी हो जाऊँ
जो पिता शतरंज की गोटियाँ सजा के बोलें
आओ एक-एक हाथ हो जाए
शायद सुखी हो जाऊँ
जो सनम की गली से गुज़रूँ और वह खड़ी मिले
और साल उन्नीस सौ छियानवे हो
शायद सुखी हो जाऊँ
जो मुहल्ले की वह लड़की बता दे अगर
कि प्री-बोर्ड के वक़्त जो पकड़ी गई थी चिट्ठी
क्या लिखा था उसमें
शायद
शायद ही पूरी हो ये ईप्सा
सुना है सुख
आशीर्वाद में
दुआ में
और डॉक्टर की सलाह में ही बचा है
राजेश कमल सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘अस्वीकार से बनी काया’ (2022) शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। इन नई कविताओं में प्रेम-परिवार-लोक में रहते और उसकी स्मृतियों-अनुभवों-तनावों को व्यक्त करते हुए कवि ने अपनी राजनीतिक समझ, भंगिमा और ज़िम्मेदारी को जिस दर्जा बचाए रखा है, उसे ऊपर रखा है, सँभाला है; वह बहुतों के लिए ध्यान देने योग्य है। कवि से rajeshkamal09@gmail.com पर बात की जा सकती है।
कवि बचा ही होना चाहिए शायद में भी, संभावना बची रहेगी।
पहली बार विस्तृत रूप से राजेश कमल जी को पढ़कर लगता है— आस-पास, गली-गली में दुनिया बसती है, बसती है एक-एक घर में पूरा देश।
हत्यारों को माला पहनाने वाले समय में, गांधी को गाली देने वाले समय में
हत्या को हत्या ही कहना होगा
हत्यारे को घोर पापी।
समस्त कविताओं के लिए आभार सदानीरा।
धन्यवाद
बहुत अच्छी कविताएँ! सुकून देनेवाली !
❤️❤️❤️