कविताएँ ::
रिया रागिनी

गृह-प्रवेश
बेवक़्त बारिश के सहारे
जब-जब डायरी की,
हाथों की,
मांसपेशियों की स्याही उतरने लगती—
मैं ढूँढ़ने लगती नया घर।
एक नवीनता
जिसमें किसी और की छोड़ी हुई
अनजान धूल का लेप हो,
चूल्हा हो,
जिसे ख़राब करने का ज़िम्मा प्रेमी का नहीं,
अगले-पिछले किरायेदार का हो।
प्लेटों को ग़ुस्से से रगड़ने पर की खरोंचें
इस दफ़ा मुझसे होते हुए न आएँ।
बिस्तर से लगी दीवार पर
थकान-शिल्प : काली-भूरी लकीरें…
कोई घरेलू विरोध न हो।
चीख़ केवल इसलिए ही निकले
क्योंकि इतना गाढ़ा काला बिच्छू
पहले मैंने कभी नहीं पाया।
मेरी माँ के घर न आ पाने का कारण
केवल सफ़ाई न रख पाना ही हो, बस!
जितने दोस्त आएँ,
दीवार पर एक-एक वैकल्पिक की-रिंग छोड़ जाएँ—
भारी होती चली जाती चाबी के लिए।
उलझूँ तो बस स्वयं या चंद्रमा के साथ—
दिन के हर दु:स्वप्न के बाद न करनी पड़े सफ़ेदी,
गृह दूसरे भी शामिल हों इस बार।
रबर-बैंड
जब-जब मैं सोचती—घर
तब-तब मन में बना लेती
गोल आकार एक घेरा—
मिट्टी या रेत से भरपूर एक ख़ाली इलाक़ा।
कोई सीमेंट नहीं,
न ही कोई ईंट,
न थाल,
एक कोमल (छोटी मिर्च जैसी) डंठल से
बनाया-बसाया
बस एक गोलाकार घेरा।
जैसे दिन में कम से कम पाँच-छह बार
बाँधती हूँ अपने धूल-सने बाल,
मन खींचता रहता—
दूर किसी ज़मीन में
परिकल्पित परिरेखाएँ,
एक लगातार ढीले होते रबर-बैंड के सहारे।
फिर जमा कर बाल्टी-बाल्टी भर
सँजोयी सभी दुविधाएँ,
सभी आशंकाएँ
उड़ेलती रहती अनवरत
इस घेरे के बस थोड़ा बाहर
थोड़ी-सी ही दूर।
जैसे बाहर पानी अलग,
मिट्टी अलग…
संकल्प तो बहुत ही अलग।
और फिर से
बाँध लेती बाल
परिवर्तित होने देती धूल को तेल में,
तेल को गाँठों में,
गाँठों को व्यावहारिक अनुमानों में।
और फिर भी
तुम पूछते रहते हो मुझसे बार-बार
कि मैं बाहर बाल क्यों नहीं खुले छोड़ती और?
सर्द-गर्म
हाँ, ज़रूर!
और भले ज़रूरत से ही सही जन्मा
मेरा यह घर
(या न होना घर का)
बदल गया।
मगर मेरी यह कंधों की-सी ढलान
आगे की ओर लिपटी,
खींचती-खिंचाती
कब बदलेगी?
कब होगा ग़ायब
मेरी गर्दन का एक-तरफ़ा रुझाव,
जैसे ग़ायब हो बैठी
वाष्प-धुनी कल्पनाएँ।
कब टोहेंगी मेरी आँखें
कोई नया अनजान डर?
कब आँखों देखे डर
(या उनका अभाव)
समझा-बुझा देंगे
मेरे पाँव की सिकुड़ी सबसे छोटी उँगली को?
कब दे पाऊँगी
मैं उस सबसे छोटी, सिकुड़ी, लगभग ग़ायब छाप को
भूली-बिसरी, मुझसे ही मिथ्या उँगली को
उसका अपना कोई नाम?
‘उसे वैसे भी तो कोई नहीं ही जानता न,
क्या ही बदल जाएगा?’
यह कह-कह
हाँ,
मैं ख़ुद को सुला तो लेती हूँ।
पर तुम ही बताओ,
कब मेरी यह असंलग्न नींद
देखेगी वह स्वप्न जिससे जन्मेगी ऐसी आँधी
जहाँ सबसे खरी, सबसे छोटी दूब की भी
पिघल सकती हैं
सबसे प्रिय पूर्ववृत्तियाँ,
बिना उखड़े,
बिना उलझे?
जमा-पूँजी
माँ अपनी देह का ख़ासकर ख़याल रखतीं। नदी से पाँव बचातीं, ग़ुस्से के चरम पर भी बालों में तेल नहीं जमने देतीं, कभी बासा न खातीं, न बासी मोगरा अपने बालों को छूने ही देतीं। इतना रगड़तीं वह अपनी देह को कि रोज़ नई त्वचा के होने के अपरिचित स्वर से बचता उनका दिल एक ही त्वचा के भीतर गलता, सँभलता, बुदबुदाता, रोज़ाना उनसे लड़ता।
मुझे अक्सर लगता कि उनका दिल न जाने कितने सालों से अपनी खाल बदलना चाह रहा है और खाल बदलने के लिए एक ऐसी परछाईं तलाश रहा है जहाँ खाल निकालते हुए उसे सूरज की ओर पीठ न करनी पड़े (वैसे न बदलनी पड़े उसे अपनी खाल जैसे माँ, कमरा बंद कर, दरवाज़े को पीठ दिखाकर जल्दबाज़ी में बदलती थीं कपड़े) जैसे उनका दिल उन्हीं से ही ग़ुस्सा रहा हो अपनी खाल उतारने के अधिकार के लिए।
फिर भी माँ के पाँव, फटे के फटे ही रहते हमेशा। नाख़ून हल्दी पीले। बाथरूम से किचन तक की पाँच क़दम दूरी में ही एड़ी की स्मृति-लकीरें फिर ज़िंदा हो उठतीं। मैं जब-जब उनकी एड़ी दबाती—उनकी साँस, धड़कन, सब धीमी हो जातीं। उनकी बाहरी त्वचा तेज़ी से उभरने लगती, वह फिर मन ही मन कुछ बुदबुदातीं और लगता जैसे उनके पाँव की रेखाएँ और भीतर जड़ें पकड़ती चली जातीं।
माँ अपने पर्स में न जाने सालों-साल क्या-क्या जमा कर लेतीं। उनका पर्स और उनके पाँव की लकीरें—उनकी जमा-पूँजी के द्योतक जैसे बन बैठे। जब-जब माँ बुदबुदातीं, उनकी एड़ी छिलती और उनका पर्स और भारी होता चला जाता।
जैसे माँ के लिए पर्स,
मेरे लिए बिछौना।
दस मिनट ध्यान, बस
ध्यान में घड़ियों का
खुजली का, लिखने का
हाथों के पसीने का
झरने-बनने के सूक्ष्म निवेदन का
पन्ने पलटने का
बाहर बैठी मैना के पंखों के बीपीएम गिनने का
उससे अपनी साँस, तेज़ और तेज़ मिलाने का
निषेध है अक्सर
निषेध है मुझसे घंटों लिपटी घड़ी के सहारे,
मेरा कान लगाए रखना अपनी नाड़ी पर भी,
कम रूठना दुनिया से,
कम महसूस करना प्रेम-अभाव भी
धूप पढ़ती मेरी छाती पर
दीवारों की स्पष्टता से होते,
उठने का समय क़रीब आता शायद
मेरी गर्दन के सबसे पुराने और सबसे परिचित तिल,
मेरी वह सबसे पुरानी दोस्ती
जिसमें मेरे जीवन के सभी विरोधाभास पाते सहमति
वहाँ खुजली—दुपहर की आधी नींद का समय शायद
मेरी रीढ़ की सँभाली पीठ से होता वही एक बिंदु,
उठता दर्द, उसी एक जगह जहाँ,
मेरा हाथ और मन दोनों असक्षम—
दो बजकर दस मिनट
फिर जब बिल्ली जैसे सावधान
अपरिचित पाँव खोलते खिड़की
सुनने के लिए वह सब
जिसे छूने का समय निरंतर बीता जा रहा
निश्चितता : सूर्यास्त तो हो ही गया होगा,
निश्चितता: ईश्वर के लिए न सही,
संध्या के लिए तो प्रार्थना की ही थी मैंने
मेरे पेट-तल तक पहुँच सकने वाला
पाँचवाँ कथित घूँट
मोटर चलाने का समय शायद
फिर जब मेरी जाँघें मुझसे करने लगती हैं
दुनिया भर के सबसे निरर्थक सवाल,
सबसे बेतुकी माँगें
अब आठ बजने को होंगे शायद
फिर जब कमरे में जमा पर्दे
परिवर्तित होने लगते आवरण रूप
संरक्षण का भार
उतार लेते अंगड़ाई
बदलने लगते रंग
आसन बन जाते अपनी ही परछाईं जितने लंबे—
मोटे-गाढ़े-अनुशासनहीन,
ताकते तारों को,
आराम के पुनराग्रह से होती नींद
सोने का समय
कविता से ज़्यादा ज़रूरी समय,
ध्यान से भी ज़्यादा,
डूबने से शायद थोड़ा कम,
दस ही मिनट केवल।
अनुवाद-अनुरोध
तुमने मुझसे कभी ज़्यादा कुछ नहीं माँगा। माँगा भी तो कहा तो नहीं मुझसे यकायक। माँग सकते थे तुम—वह रिद्म का अधिकार जिस पर मेरी उँगलियों का इंतिज़ार करने का साहस टिकता है। यह भी माँग सकते थे कि मैं जाने दूँ, साँस की सबसे पसंदीदा ढलान या घुटने चटकाने की अपनी सबसे क़रीबी-परिचित आदत। बार-बार लगातार तुमने यही माँगा कि बस मैं अपनी देह की सब सीमाएँ जाने दूँ। मैं सोचती हूँ अब : काश, मैंने कहा होता, जैसे मैंने महसूस किया कि तुम्हारी-मेरी देह की ये सीमाएँ, रेखाएँ, क्षितिज थीं शायद?
सीमाओं को, रेखाओं को, क्षितिज को
इनके बीच पसरी
इनकी सुकुमार निरंतरताओं को
धुँधला देती हैं पुनरावृत्तियाँ
अक्सर, नहीं?
क्या ठोस होने का विस्तार धुँधलाना नहीं है?
(तुमने कहा हमेशा, पुनरावृत्ति नहीं पुनराग्रह है, स्टाइन ने भी तो यही कहा)
बार-बार इसी एक रेतनुमा माँग के संग मैं जागी, सोई, इसी के रहते मैंने समय मापा, इसी के संग बाज़ार से बच-बचकर निकली, कृतज्ञ हूँ। मगर मेरी जीभ के खुरदरेपन में नहीं होती अगर रेत की दख़्लंदाज़ी तो बन पाती शायद तुम्हारी पुनरावृत्तियों की माला—कोई पुनराग्रह… जैसे धागों के बीच की माइक्रोस्कोपिक जगहें, जहाँ सभी क्षितिज पाते विराम। परस्परता में हामी भरती पारदर्शिता, सीमाओं का अभाव तो नहीं न? क्या पुनरावृत्तियों के बने टीले भी जन्म दे सकते हैं—काँच के ढाँचों को? थोड़ा मैला ही सही—यह काँच, जैसे चीनी के बने खिलौने…
अनुवाद में की गई सबसे सूक्ष्मतर भूल, क्या भाषा की भूल है! क्या यह वही भूल है जो ज़्यादा रोटी या ज़्यादा ब्रेड या ज़्यादा चावल भर खाने से हो बैठती है?
एक-एक देह, एक-एक भाषा?
रिया रागिनी की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह बतौर लेखक-अनुवादक-कलाकार सक्रिय हैं। वह 2021 के वसंत में ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक के संपादन से संबद्ध रहीं। वह फ़िलहाल हिमाल प्रकृति और वॉयसेज़ ऑफ़ रूरल इंडिया के साथ एक कहानीकार और मीडिया फ़ेलो के रूप में काम कर रही हैं, जहाँ वह धौलाधार पर्वतमाला के ग्रामीण क्षेत्रों से कहानियाँ-क़िस्से जमा कर रही हैं। उनकी रुचि स्त्रीवादी-क्वियर और बौद्ध-दर्शन, ध्वनि, दृश्य-संस्कृति तथा सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध के कलात्मक आयामों में है। उनसे riyaraagini@gmail.com पर संवाद संभव है।