कविताएँ ::
शाम्भवी तिवारी
माँ का साहित्य
माँ काग़ज़ और एक पुरानी पेन लेकर बैठती है
काग़ज़ मेरी डायरी के पीछे से फाड़ा एक टुकड़ा होता है
बिल्कुल उतना बड़ा जितने पे बनाते होंगे
गुज़रे ज़माने के समुद्री लुटेरे
खोए ख़ज़ानों के रहस्यमय नक़्शे!
माँ की क़लम दो साल से चल रही है
और उसमें अब भी स्याही भरी है
घर में जब बाक़ी सबकी क़लमें, किताबें, पेंसिलें खो जाती हैं
तब सब माँ की क़लम उठा लेते हैं
पर स्याही ख़त्म ही नहीं होती कि मानो
उसी क़लम से लिखे गए हैं—
वेद, पुराण, मनुस्मृति और महाभारत में
औरतों के सारे क़िस्से
और रचे गए हैं
इतिहास में औरतों के सभी चरित्र।
माँ काग़ज़ और पेन लेकर बैठती है
और किराने की लिस्ट बनाती है—
आटा, दाल, चीनी के बाद अटक जाती है
किसी राइटर्स ब्लॉक पर
और पूजा के सामान की ओर भटक जाती है।
फिर किसी रोज़ वो लिस्ट
पकवानों, तोहफ़ों, त्योहारों के इंतज़ामों पर ख़त्म होती है
जो सहसा ही माँ की कल्पना से फूटते हैं—
कई कविताओं, परीकथाओं और कहानियों की तरह।
माँ जब भी काग़ज़ और पेन लेकर बैठती है
मैं अपने काग़ज़ परे हटाकर देखती हूँ—
साहित्य का जन्म और काव्य का प्रस्फुटन
जो उपमा में कालिदास की हार है
और निडर बेबाकी में प्रेमचंद की जीत।
माँ लिखती है
बहुत लिखती है
मैं बस माँ के आस-पास पहुँचने की कोशिश में हूँ।
कवि और कविता
यह एक नर कविता है
इसमें उपस्थित हैं प्रचुर मात्रा में—
वीर, रौद्र, भयानक एवं वीभत्स रस
वस्तुनिष्ठ और व्यक्तिगत तौर पर
वैकल्पिक रूप से वितरित किए गए हैं—
शांत, हास्य एवं भक्ति
तथा रस की सहजता से निचोड़ ली गई हैं—
वात्सल्य और करुणा की कपोल-कल्पित विसंगतियाँ
नर कविता की सप्रसंग व्याख्याएँ
नहीं हैं व्यक्तिपरक साहित्य अथवा
अव्यवस्थित अभिव्यक्तियों के बस की बातें
अपितु नर कविताएँ कहलाती हैं—
भव्य ऐतिहासिक दुर्गों की भीषण अट्टालिकाएँ,
पुरातन और प्राचीन के समयबद्ध अटल, अचल बारजे
जिनकी छाँव में बैठकर किया जा सकता है
मात्र उनका विस्मययुक्त अवलोकन!
नर कविताओं को केंद्र में रखकर होते हैं—
तार्किक एवं घनघोर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
जिनमें से निकलते हैं—
ऐतिहासिक दुर्गों के पुरातन बारजों पर कुंडली मारे बैठे निवासी,
अतिशयोक्ति के चरम पर अधिक ही सौतेला व्यवहार कर सकने वाले सौतेले पिता,
विवशता में मूर्तिमान हो चुकीं सौंदर्यीकृत माँएँ,
और ज्ञान की अतुल्य सरस्वती-सी प्रेमिकाएँ!
यह एक मादा कवि है
जिसका अपने आपमें स्वतः ही
साहित्यिक प्रजनन कर सकना प्राकृतिक असंभावना है
अतः इसकी रचनाएँ मात्र मानी जा सकेंगी
किसी अतुल्य नर कविता की अतुल्य सरस्वती-सी
इकलौती प्रेमिका का तुच्छ-सा वरदान
जिसे पाने हेतु मादाएँ करेंगी एक अद्भुत समागम नृत्य,
दोहराएँगी निरीह कोयलों के मूक प्रेम आवेदन,
बनाएँगी घोंसले और सेती बैठेंगी
शब्दों के नारी-योग्य हो जाने की समयहीन प्रतीक्षा में।
ऐतिहासिक तौर पर मादा कवि मोम की आधारशिलाएँ हैं
जिन्हें जलाने पर अवश्य ही निकलेगा करुणा व वात्सल्यपूरित लहू
और जिनसे रोशन होंगे पुरातन के प्राचीन बारजे
सप्रसंग व्याख्याओं में कुछ भी नहीं मिलेगा मादा कवियों को
क्योंकि रौद्र, भयानक और वीभत्स मादाएँ बाँझ या विधवा हो जाती हैं,
अधिक हँसने वाली स्त्रियाँ कहलाती हैं डायनें एवं चुड़ैलें
और बची हुई अबलाओं एवं बेचारियों पर मात्र लिखी जा सकती हैं आपबीतियाँ!
मादा कवियों का मनोविज्ञान होना भी एक प्राकृतिक असंभावना है
क्योंकि साक्षी हैं इतिहास की अट्टालिकाएँ
कि अधिक सोचने वाली स्त्रियों को ही आते हैं मिर्गी के दौरे।
अंततः यह नर कविता लिखने की वासना से प्रेरित होकर
मादा कवियों के शरीरों के रोम-रोम पर
अलंकारों की तीखी नोकों से टाँकेगी
सौंदर्य, शृंगार और विवशता के सलमे-सितारे
जिनमें लपेटकर अपना संपूर्ण अस्तित्व
हम सभी मादाएँ व्यक्तिपरक साहित्य तथा अव्यवस्थित अभिव्यक्तियों में
रस की भाँति गुम हो जाएँगी।
शुतुरमुर्ग़
सृजन की अंतिम संध्या में
संसार की पहली स्त्री ने आकाश की ओर उठाए हाथ
और रचने लगी बालू से बादलों का एक विशाल घरौंदा
जो ढह गया हवा के एक थपेड़े से उसके गीले सिर पर
छोड़कर उसके अप्रतिम मुख के स्थान पर
गीली रेत में गढ़ी एक हल्की रूपरेखा।
समंदर से पहली बार भू पर निकले केंचुओं ने
बींध डाली स्त्री की योनि
और छेद दिए उसके अंडकोष
जिससे उपजे साँपों ने झोंक दीं अपनी जीभें
अपनी जननी के मुख की मरीचिका में।
उनके फुंफकारते विष की गर्मी से
काँच हो गया स्त्री का अस्तित्व
और पेड़ों से उल्टे लटके चमगादड़ों ने
उस विभीषिका को शुतुरमुर्ग़ की संज्ञा दी।
शुतुरमुर्ग-सी स्त्रियों के काँच से अस्तित्व पर
आकर टिका दीं अन्य प्राणियों ने अपनी आँखें।
उसके भीतर देखने के अबूझ प्रयास में
चौंधिया गईं उनकी अनंत जिज्ञासु आँखें
और उसके अस्तित्व से एकात्म होने को
बार-बार टकराए उससे उनके कोटि आकुल शरीर।
लहूलुहान उँगलियों से काँच को कुरेदती
उनकी भीगी हथेलियों में
लिपटी रह गई केवल रेत
और संसार की पहली स्त्री के अस्तित्व की खोज
अब तक खींच रही है
केंचुओं, सांपों और चमगादड़ों को—
बादलों और समुद्र तटों की ओर।
शहर की हवा
सोचो—कैसा रहा होगा वह पहला आदमी
जिसे शहर की हवा लग गई होगी
जिसे अंधा कर दिया होगा शहर की चकाचौंध ने
इतना कि शहर और संसार में फ़र्क़ कर पाना
उसके लिए मुश्किल हो गया होगा
कोफ़्त होने लगी होगी उसे
परिंदों की चहचहाहट से,
बादलों की गड़गड़ाहट से,
सूखते पत्तों में हवा की सरसराहट से,
अपने अलावा किसी भी और आहट से
नाक चढ़ाकर भौंहें सिकोड़ लेता होगा वह
किसी गँवई बुज़ुर्ग की सिकोड़ी धोती के मानिंद
किसी गँवई बुज़ुर्ग की सिकुड़ी धोती देखकर
और मुँह फेर लेता होगा
नई दुल्हनों के सीनों से सिए सिमटते घूँघटों में से
गमकते गजरे की खिलखिलाहट पर
हथेलियों में छुपा लेता होगा अपनी नाक
गोबर के उपलों में मुँह छुपाती
दीवारों से आँखें मिलाकर
शहर की हवा लगा आदमी
ऊपर उठ गया होगा जड़ और ज़मीन से
सो धूल उड़ा देता होगा वह
गाँवों की ओर लौटती पगडंडियों के बूढ़े चेहरों पर
और गाँवों से बिछड़ती सड़कों पर कोलतार बिछाते
उन्हीं से जोड़ लेता होगा—
आकाश, सावन, बादल के सभी सपने
जिनमें पिघलकर मिल जाता होगा
उसकी आँखों का सारा श्यामल
उम्मीदों की आग में झोंक देने के बाद
जिसके धुएँ का एक क़तरा ही
वास्तव में आकाश, सावन, बादल तक पहुँच पाता होगा
त्रिशंकु के मानिंद नीचे फेंके जाने से पहले
शहर की हवा लगा आदमी
गाँव के मच्छरों, मक्खियों, कुत्तों, बिल्लियों से भी
ऊपर उठ चुका होगा
इसीलिए अब उसे केवल जकड़ सकती हैं
दूसरे शहरों से आने वाली महामारियाँ
और सरकारी विकास की क़वायदें
जो शायद उसके रिक्शे के पिछले परदे पर
लटकी किसी अभिनेत्री के पोस्टर के मानिंद
शहर का तोहफ़ा और
शहरी अस्तित्व की सजावट मात्र हैं
शहर की हवा लगा आदमी
हवा तक को तुच्छ समझता होगा
क्योंकि वह चाहता है कि उसके बच्चे
ऑक्सीजन के नाम से जानें उसे
वरना वह फड़फड़ाती तितलियों के मानिंद
हवा में से उसे छाँटकर
साँस लेना नहीं सीख पाएँगे
और इसी हवा से ख़ुद को भी बचाने को वह
ईंटें, सीमेंट, लोहा, लक्कड़
सबके लबादे ओढ़ लेता है
उसी विश्वास के मानिंद
जो तालाब की भोली मछलियों का
बगुला भगत के भगवे पर था।
शहर की हवा लगा आदमी
आदमी होने से भी ऊपर उठ गया होगा
और शहर की ऊँचाई तक भी
न पहुँच पाया होगा
बिल्कुल यादों के मानिंद जिनमें
गाँव अपना हो सकता है
घर, परिवार, पहचान अपने हो सकते हैं,
पर वर्तमान के मानिंद
शहर कभी किसी का नहीं होता
इसीलिए मत सोचो कि कैसा रहा होगा
शहर की हवा लगा पहला आदमी
जो जैसे-तैसे शहर बन ही गया होगा
और शहर की ही मानिंद
जो किसी का
कैसे भी
नहीं होता।
मत सोचो उस आदमी के बारे में
जिसे अंधा कर दिया होगा
शहर की चकाचौंध ने
क्योंकि फिर तुम भी उसी के मानिंद
शहर से परे
कुछ भी देख, सुन या सोच नहीं पाओगे।
दुःख की स्मृति
दुःख आँखों पर कोहनियाँ टिकाए बैठा है
उसके बाल होंठों के बीच यूँ पैवस्त हैं
कि उन्हें खुलने नहीं देते
दाँतों के बीच फँस चुकी सिसकियाँ छटपटाने लगी हैं
ज़ुकाम की पहली ख़राश के तौर पर
एक चीख़ जीभ तक आ-आकर लौट जा रही है।
दुःख को एक मृत शरीर के स्पर्श की स्मृति है
और आजन्म स्मृति बन जाना ही दुःख का परम ध्येय
तो उसने अकड़ ली हैं अपनी बाँहों की नसें
और निर्वस्त्र होकर ठंडा पड़ चुका है
मृत्यु के स्पर्श के परे उसे कुछ स्मरण नहीं।
आँखों पर कोहनियाँ टिकाए बैठा दुःख यथावत मरणासन्न हो चुका है
उसकी देह कुतरने चढ़ आईं चींटियों की क़तारें
आँखों के तिमिर में ग़ोते लगाती जा रही हैं।
भीतर कहीं छिड़ चुका है—
सिसकियों, चीख़ों और चींटियों के बीच महान संघर्ष
और मृत दुःख की स्मृतियों का स्पर्श समेटे
मैं तुम्हारे कंधों पर कोहनियाँ टिकाने का स्थान खोज रहा हूँ।
पत्थर और मोम
मेरी माँ पत्थर मारने पर फट पड़ेगी
बिखर जाएगी शिकायत और शोकमिश्रित क्रोध के कई टुकड़ों में
और दिखने लगेंगी उस पर नैराश्य की कई
धागानुमा गहरी दरारें जिनके सहारे भीतर जाएगी
नई सोच की चुभती हुई नई रोशनी
मेरी माँ आग लगाने पर पिघल जाएगी
कई युगों की जल-प्रलय में अभिसिंचित होकर
जिसमें से उठेंगे अतीत की कई शिकायतों के अस्थिपंजर
पर इस सारे विनाश में न दोष होगा पत्थर का
न आरोप लगेगा आग पर
क्योंकि मेरा मानना है कि मेरी माँ मोम की बनी है।
मैं अगर पत्थर बनकर उतरूँगा
तो सोखकर बना लिया जाऊँगा तलछट का अस्तित्वहीन एकत्व
जिसमें नहीं रहेगी फ़र्क़ करने या फ़र्क़ समझने की हिम्मत या क्षमता
तुम अगर आग या मशाल बनकर आओगे
तो कर दिए जाओगे तुरंत ही निष्प्राण और कर्त्तव्यच्युत
पर हम दोनों के इस निश्चित पतन में न तुम्हारा दोष होगा,
न मेरी इच्छा,
क्योंकि आम मत है कि शिक्षा-व्यवस्था में कीचड़ भरा है।
तुम्हारे और मेरे खुलकर बिखर जाने से
एक छोटे धमाके के साथ जल उठेगी रोशनी
जो जलती रहेगी हम दोनों के अस्तित्व तक
और बैठ जाएगी हमें देखने वालों की आँखों में
रोशनी की ज़रूरत बनकर
और इस स्वाभाविक रासायनिक प्रक्रिया में हाथ होगा
एक अप्रतिम संयोग का
कि मैं स्याही से भरी क़लम थी
और तुम एक नई मशाल
और हम दोनों मान लेते हैं कि हम में प्रेम हो गया।
मैं, तुम, माँ और व्यवस्थाएँ
अपनी-अपनी धातुओं की पहचान भूलकर
लड़ते रहेंगे आग, पत्थर, जीवन, संस्कार और समाज से
जिसमें माँ नहीं बन पाएगी तपकर खरा होने वाला सोना
हम नहीं धो पाएँगे अपने ऊपर का कीचड़
और मैं और तुम नहीं रोक पाएँगे अपने बीच होते धमाके।
स्पष्टीकरण : जिन कविताओं को हम अपने दृष्टिकोण से लिखते हैं, उनमें हम पुरुष सर्वनाम तथा पुल्लिंग सूचक क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। निजी तौर पर, हम द्वि-लिंगभेद में विश्वास नहीं करते।
शाम्भवी तिवारी की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से राजनीतिक अध्ययन में पीएचडी कर रही हैं तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में व्याख्याता के तौर पर कार्यरत हैं। वह मूलतः बनारस से हैं और उनका जीवन उनकी आस्थापूर्ण माता के सान्निध्य से ओतप्रोत रहा है। उनसे tiwarishambhavi61@gmail.com पर बात की जा सकती है।