कविताएँ ::
सोनी पांडेय

अंतहीन यात्रा के सहयात्री
एक
आसमान से उतरकर धरती तक फैली भ्रम की चादर
कितनी उलझनें हैं इस छोर से उस छोर तक
पैरों में लिपटा कामनाओं का सर्प
जब-तब काटने को आगे बढ़ता
और गले में आकर कुछ फँस जाता
मेरी एक पड़ोसी थी अर्सी
अर्सी से जब कहो कि गले में कुछ फँसा है
वह रोटी खाकर पानी पीने को कहती
कहती ऐसा करने से
मछली का काँटा तक निकल जाता है
मैं नहीं जानती कि कैसी होती है
मछली के काँटे की चुभन
गले में फँसी फाँस की पीड़ा को
व्यक्त करने की भाषा नहीं है मेरे पास
मेरे पास एक अंतहीन यात्रा की कहानी है
मैं नहीं जानती
कैसे निकलना है इस यात्रा पर
मेरा सूटकेस कोई तैयार नहीं करेगा
रसोई में कोई पकवान नहीं बनेगा मेरे लिए
मेरी हर निकासी पर सब चैन की साँस ले सो जाएँगे
इस दुनिया में मेरा होना ऐसा है
जैसे मेरे हिस्से सही-सही कोई कोना नहीं है
इन दिनों ख़ूब करती हूँ यात्राएँ
किंतु इन यात्राओं में तनिक भी
साँस लेने की जगह नहीं रहती
दो हिस्सों में बँटी हुई-सी कोई बखरी
जिसके बीच में पड़ गया है डंडवार
इस डंडवार के दोनों तरफ़ फँसी है मेरी आत्मा
जिसे मन की मछली मारने वाले मछुआरे ने फेंका था
इच्छाओं की अथाह नदी में
मैं उनकी अन्नपूर्णा, लक्ष्मी, सहधर्मिणी…
और न जाने क्या-क्या थी
नहीं थी तो बस मनुष्य
मेरे पुरखों के पास भूख, अपमान और ग़ुलामी की
असंख्य अनुभूतियों के बीच
ख़ुद के ज़मींदार बाभन होने का गौरवबोध
सिर से पाँव तक लदा-फँदा रहा
मेरे नाते-पनाते अपने सिर की पगड़ी सँभालते
इस ताक में रहते कि कोई बड़ा आसामी
उनके नकारे बैलों से अपनी गाय ब्याह कर
पुण्य कमाए जिनके पास बेटे नहीं थे
धियनिया रखने वाले पिताओं में
मेरे पिता लंबे समय तक टिके रहे
तब तक जब तक चार बेटियों के पीछे
एक बेटा नहीं आया
माँ एक उदासीन नागरिक है
इस दुनिया की
उसे देश-परदेस-गाँव-गिराँव
अब किसी से कोई मतलब नहीं रहता
उसके सिरहाने एक किताब रहती है हमेशा
जिसे मेरी भाषा के उस बड़े कवि ने लिखा
जिसे पत्नी ने धिक्कार कर
जीवन जीने की कला सिखाई थी
मेरी भाषा का एक कवि
जिससे मैंने पहली बार प्रेम किया
वह बीच बाज़ार में लुआठी लिए खड़ा था
फिर ऐसे कई कवि आए मेरे पास
जिनसे मैंने प्रेम किया
मैं इस तरह अपनी भाषा की कविताओं के
प्रेम में पड़ती गई
मेरी भाषा में प्रेम भी अजीब शब्द है
आप प्रेम को प्रेम की तरह नहीं बरत सकते
प्रेम यहाँ हिंसा का पर्याय रहा
मेरे साथ की कई लड़कियाँ
मारी गईं प्रेम करके
प्रेम में पड़ना हत्या-आत्महत्या
जैसी पीड़ा बन सकता था
इसलिए मैं ठीक-ठीक प्रेम की
परिभाषा नहीं जान पाई आज तक
फिर मैंने मीरा को पढ़ा
और जाना कि एक स्त्री
ईश्वर से प्रेम करके भी
घृणा की पात्र बन सकती है
और उस दिन से मैं
ईश्वर से भी प्रेम करने से डरने लगी
मैं हिंसा और घृणा के बीच की रहवासी रही
यहाँ किसी को किसी से प्रेम नहीं था
सब एक-दूसरे की ज़रूरत थे
इसी घृणा और हिंसा और ज़रूरत भरे दिनों में
हम बहनों ने
एक कुत्ते के पिल्ले से प्रेम किया
और उसे कई दिनों तक
गत्ते के डिब्बे में छिपाए घूमते रहे
कुल जमा तीन दिन ही
हम प्रेम भरे झूले में झूल सके
एक रात पिल्ला कुँकियाया
और पिता को पता लगा
हमारे प्रेम की पहली फाँस का
वह हद अँधेरी रात थी
ठंड से ठिठुरती
हम दोनों बहनें
आधी रात को
बर्फ़ से भी ठंडे पानी से नहलाई गईं
पिल्ला तत्काल देहरी से बाहर हुआ
अगला पूरा दिन घर की शुद्धि के कर्मकांडों से पूरित
हमारे लिए एक भयानक शोक लिए आया
इस तरह हमने जाना कि प्रेम केवल
हिंसा, घृणा, ज़रूरत भर नहीं है
वह शोक, आँसू, पीड़ा का भी पर्याय है।
दो
किसी नई जगह पर जाने के बाद पता चलता है
कि कितना समाया था मेरे भीतर पुराना ठौर
पहली बार ब्याह के बाद जाना था इस सच को
और फिर धीरे-धीरे नौकरी बदलते
अस्पताल के चक्कर काटते
सब्ज़ी खरीदते
बदलते मौसमों के साथ बदलते लोगों की
मुस्कान, घृणा और बेतुकी बातों की बेचैनियों के बीच
जाना कि कितनी जगहें हैं
इस महादेश में मेरे लिए
मैं ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर जा सकती थी
पर पुस्तकालय वर्जित क्षेत्रों में था
उसकी ईंट की दीवारों से ऊँची थी
अवरोध की दीवार…
मुझे ठीक-ठीक समझ तब आईं किताबी बातें
जब किताबों से प्रेम हुआ
अम्मा के पास मानस की पोथी है
और वह रोज़ उसे बाँचती हुई रोती हैं
कितना दुख था सीता के जीवन में
यह माँ के आँसुओं ने हमें समझाया
वह राम से वर की कामना कभी नहीं करती थीं
बेटियों के लिए
जबकि राम उसके आराध्य रहे
वह अपनी गौरियों के लिए
अड़भंगी भोले-सा वर माँगती
और कहती बेटियों से कि
पति साथ हो तो
गुफा भी महल बन जाता है
मैं ब्याह में लिखते हुए
कोहबर अक्सर याद करती रही
उस आदिम रात की कथा को
जब ग्राम-कन्याओं ने लिखा था
शिव-विवाह पर कोहबर पर्वत प्रांत में
शिव के मधुरात की गंध में नहाया होगा
उस रात हिम-क्षेत्र
शायद इसलिए वहाँ आज भी बची है
मनुष्य के मनुष्य बने रहने की उम्मीद
प्रेम का बचे रहना
पानी के बचे रहने का गवाक्ष
हिम है तो पानी है
पानी है तो हिम
हिम ही नदी की जलधारा
हिम ही सागर का विस्तार
एक यात्रा के ये सब हैं सहयात्री
साथ-साथ चलते मैंने जाना।
तीन
बहुत उदास कर जाती हैं स्मृतियाँ
उदासी का वितान कभी-कभी इतना घना होता है
कि बह निकलती है भावों की नदी आँखों से
पिघलने लगता है हृदय पर जमा हिम
स्मृतियों के घने कुहासे में
इधर खो रहा है वह सब कुछ
जिसे जतन से सहेजा था
तुम मधुमेह को नियंत्रित करते-करते
इतना कम करने लगो हो जीवन से मधु
कि मेरा रक्तचाप दौड़ने लगा है सरपट
यह कैसी विडम्बना है
कि हम निकलते हैं
ख़ुद की तलाश में
और खुद को ही भूल जाते हैं
इस यात्रा में
बहुत कुछ छूट रहा है इन दिनों
लोग गिर रहे हैं नीचे
बहुत नीचे
इतना कि नापना मुश्किल है
फैलने का आयतन कितना था
यह सवाल ही रहा और लोग इतना फैले
कि मेरे पैरों से चादर ही ले भागे
ठंड से ठिठुरती किसी भयावह अँधेरी रात में
खड़ी हूँ बहुमंज़िली इमारत की बालकनी में
यहाँ रात इतनी भी रात नहीं होती
कि सोना अनिवार्य हो
हाँ दिन ज़रूर भागता है तेज़ रफ़्तार गाड़ी की तरह
बहेलिये की आँखों की भाषा
केवल समझ सकती है चिड़िया
पर चिड़िया उड़े भी तो कहाँ
उड़ान का नभ आच्छादित है
बहेलिये के जाल से
वह धरती से लेकर आकाश तक दौड़ती हुई
अंततः पंख पसार खो जाती है भीड़ में।
चार
मैं साथ चलते हुए कभी किसी के पीछे
ऐसे नहीं चली कि लँगड़ी मारकर गिरा सकूँ
हटती गई उन तमाम जगहों से
जहाँ उठा-पटक के गणित में लगे थे लोग
सब साध रहे थे सधे हुए लोगों को
मैं उन्हीं से असहमत हो निकलती रही
उन तमाम जगहों से
जहाँ तय होते थे मानदंड सफलता के
हर बार ख़ुद को ठीक दिखाना
और यह कहना कि सब ठीक है
एक चुनौती रही
जिनसे उम्मीद थी
वह इस क़दर छल रहे थे
कि आँसूओं को आँख के कोर में छिपाए
मैं हँस पड़ी
जो देना चाहते थे
उनके पास कुछ नहीं था
जो भरे थे लबालब
वह कलप रहे थे अपनी तंगी
जहाँ हरियाली थी
वहाँ की हवा में ज़हर भरा था
जहाँ सूखा था
वहाँ बेवजह कुछ न कुछ
मिट्टी का माथा फोड़ उगने को आतुर था
सारी बातें कविता में कहाँ कही जा सकती थीं
गीतों में भी कहाँ समा पा रहे थे पूरे भाव
कहीं कोई उदास धुन पर बजा रहा था सारंगी पर जोगी
बता रहा था कि एक दिन सब यहीं रह जाएगा
माया की गठरी सिर पर लिए चली जा रही थी
एक बूढ़ी औरत गंगा घाट
नहाकर गंगा में एक अँजुरी जल चढ़ा
अँचरा पसार माँगेगी मन्नत
भरा रहे घर दूध-पूत से
और एक दिन इसी गंगा किनारे
राख हो मिल जाएगी रेत में
कहाँ था देश
कहाँ की बातें थीं
पूर्वासखी करने को बहुत कुछ था
अबकी लड़ना था बहुत
जिस बात पर उससे
वे बातें उसे देखते भूल गई
न उसे इसकी ख़बर है
न मुझे उसकी…
अब अख़बारों में भी कहाँ ख़बरें छपती हैं
विज्ञापनों के दौर में रिश्ते
कुछ रंगीन काग़ज़ों के पैकेट में बंद मिलते
हम जितना उतर रहे थे नीचे
और चाहते थे गज़ भर ज़मीन
उतना ही आसमानी दौर है यह
लोग उड़ जाना चाहते हैं
बहुत ऊपर
और मैं वहीं अपनी पतंग लिए
आज भी अटकी हूँ
जहाँ से आसमान का कोई पता नहीं मिलता
मेरा पता किसी के पास हो तो देना जरूर
कुछ चिट्ठियों का इंतिज़ार करते हुए बैठी हूँ।
पाँच
इन दिनों भूल जाती हूँ बहुत ज़रूरी बातें
रात भर पलकों के बिस्तर पर आकर
लेटी चिंताओं ने डाल लिया है स्थायी डेरा
जिस पर भरोसा करती हूँ
वही छलता है अगले क्षण
लोगों को छोटे-छोटे लाभ इतने प्रिय हैं
कि बातों के प्रसारण के बाद आपको
ताल ठोंककर अपराधी क़रार दे देंगे
यह लाभ के गुणा-गणित का समय
मनुष्यता के मरने का अंतिम काल-खंड
आदमी को आदमी से बाँटने का
यह ऐसा दौर है कि
आप किसी जानवर पर
भरोसा कर सकते हैं
आदमी पर नहीं
अब लगने लगा है
कि भूलने की बीमारी अच्छी है
कम से कम एक गहरी साँस लेकर
हम आगे तो बढ़ सकते हैं
लहूलुहान पीठ से ज़्यादा दुखता है हृदय
इतना दुख है संसार में
ज़रा-सा भरोसा आदमी को बचाए रख सकता था
पर यह दौर भरोसे की हत्या का चरम समय है
यहाँ चेहरा पहचानना मुश्किल है
और मैं अक्सर नहीं देख पाती
किसी आँख में आँसू
झट थाम लेती हूँ हाथ
और इस तरह ठगी जाती हूँ हर बार
अपनी अंतहीन यात्रा में।
सोनी पांडेय सुपरिचित-सम्मानित कवि-कथाकार हैं। उनकी छह से ज़्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे pandeysoni.azh@gmail.com पर संवाद संभव है।