कविताएँ ::
अनुपम सिंह

अनुपम सिंह

शाम रँगरेज़िन

कितनी हल्की उतरी है शाम
अपने मजीठ रंग में मुझे रँगते हुए

ऐसी ही किसी शाम पैदा हुई होगी संगीत-लहर
लोग हवा के झोंकों संग नाच उठे होंगे

ऐसी ही शाम घटित हुआ होगा पहला प्रेम
तड़प उठे होंगे धरती के प्रेमी जोड़े
पाने को वह लाल क्षितिज

इस शाम को निहारती मैं
याद कर रही हूँ
हमारा वैभवशाली दिन।

मृत्यु के सपने

वे मेरे उत्साही दिन थे
सीखने, बहस करने,
प्रेम करने और कविता लिखने के
उन दिनों प्रेम मेरे सीने में
तबले-सा थाप दे रहा रहा था
उसकी लहरियाँ मुझे अस्थिर करती थीं

मेरे क़दम घर में न टिकते थे
उन दिनों मुझे बिल्कुल भी डर नहीं लगता था
न पुलिस से
न ही अपने भविष्य से
यह भी नहीं लगता था कि
अपने ही देश की सरकार से डरना चाहिए

एक स्वर्णिम वर्तमान था मेरी मुट्ठी में
जिसे सोते हुए मैं रात को सौंप देती थी
न्याय के बारे में किताबें पढ़ती और
उसे ज़मीन पर उतारने के लिए
आंदोलनों में शिरकत करती

तब मैं प्रेम और क्रांति और न्याय के
सपने देखती थी

अब बुलडोज़रों से
मेरे सपनों का घर ढहा देती है सरकार
दंगाई पहले बलात्कार करते हैं
फिर सबूत मिटाने के लिए मार देते हैं

अब अक्सर मुझे आगजनी,
जेल और मृत्यु के सपने आते हैं।

जिस राह पर हूँ

जिस राह पर हूँ
बच जाऊँगी उस नौकरी से
जिसके मिलने तक
स्वप्न छुपा दिए गए थे
ज़रूरतें पीछे ढकेल दी गई थीं

वे स्वप्न बुहार कर फेंक दिए गए
लेकिन ज़रूरतें अडिग हैं
और प्रतिरोध कर रही हैं
पूरा करने के लिए

जिस राह पर हूँ
बच जाऊँगी पद और पुरस्कार से
किसी की ख़ुशामद करने
किसी की झूठी प्रशंसा पाने से
लेकिन कैसे बच पाऊँगी
भीतर-भीतर डोलती उस चीज़ से
जो कभी चूहा बन जाती है
कभी बिल्ली का बच्चा
मेरे कमरे, बिस्तर और देह पर कूदती है
जो छुपी है उस लहरते जल में
अधपके पत्ते में
सूरज की नरम रोशनी में
हवा की गंध में
मेरी-तुम्हारी दबी-सी पुकार में
उस नामालूम-सी चीज़ की कोमलता,
उसके खुरदुरेपन को छूने की
उसे चूमने, पाने और उसके लिए
नष्ट होने की इच्छा से
कैसे बच पाऊँगी

भाषा, कविता और सिगरेट पीने वाली साँवली हँसोड़ औरत

ये साँवली इबारतें मुझे तब मिलीं
जब मैं अपना रास्ता खोज रही थी

वे मिलीं और पक्की दोस्त बन गईं

मैंने जाना कि
वे धारण करती हैं थोड़ा सुख
और ढेर सारा दुःख
उनकी आँखों में सजल रोशनी है
हृदय धरती-सा है उनका
थोड़ा ऊबड़-खाबड़
और ख़ूब नरम हरियरी से भरा

मैंने देखा कि
चाँदनी का उजास है
उनकी आत्मा में
कभी न ख़त्म होने वाले ख़ज़ाने हैं
उनकी ख़ाली जेबों में
समयों का बदलना ही
उनका भोजन-पानी है
हवाएँ पंख हैं
जिनसे आकर टकराते हैं
बैंगनी बादल और गुलाबी बारिशें
रूप-अरूप सौंदर्य है उनका
उनकी मुट्ठियों में बंद है
ब्रह्मांड का समस्त रहस्य
और हमारा भविष्य भी

मैं उनके प्रेम में
उनकी मशाल थामें चल रही हूँ
उनका गहरा साँवला रंग सुहाता है मुझे
फिर भी वे पूरी नहीं मिलती हैं मुझे
मिलती हैं तो मिलने की आश्वस्ति नहीं देतीं
हर बार उन्हें खोजना पड़ता है
उन्हीं रास्तों पर चलकर।

कविता की नागरिकता

देने के लिए
यह सहमी-सहमी दृष्टि है
टूटती-बिखरती स्मृति
अपने में गुत्थम-गुत्था विचार हैं
हर वक़्त धिक्कारती एक आत्मा

एक अ-स्पष्ट रुलाई
जो अकेले में तेज़ी से फूटती है
जिसके बारे में अनजान हूँ मैं
यह दूसरों की पीड़ा से फूटती है
या अपने लिए सहायता की पुकार है

ख़ाली घर-सा गूँजता है भीतर का ख़ालीपन
तिस पर आत्मा का यह गुह्य रहस्य
जो नहीं ढलता कविता में बिना छद्म
तेज़ धार चाक़ू-सा मारे डाल रहा है मुझे

हे विश्व-काव्य-आत्माओ!
कैसी है यह युक्ति तुम्हारी
मार कर जीवन देने की

तुम्हारी चेतना की लपटें
जीवन को ख़ाक में बदल देती हैं
जहाँ सिर्फ़ बबूल उगता है
झरते हैं उसके पीले नीरस फूल

या कि जलमग्न कर डुबा देती हैं
कहीं बहुत नीचे से फूटता है
एक हरा अंकुर

उस एक अंकुर के लिए यह मरण!
पूछो भी इस मरण के लिए
क्या तैयार हूँ मैं

यदि चुनूँ तुम्हारा दिया
यह ख़ाक जीवन-मरण
तो क्या तुम्हारी दुनिया की नागरिकता
मिलेगी मुझे।

खिड़की भर प्रकाश

खिड़की से देखती रही दुनिया
खिड़की भर ही देख पाई
खिड़की भर ही आया प्रकाश
जबकि निकल सकती थी दरवाज़ा खोल
निर्लंघ्य-सी दिखती चौखट से

चढ़ सकती थी सबसे ऊँचा पहाड़
गिर सकती थी गहरी घाटी में
तब मेरी पसंद का बैंगनी लहू बह निकलता

देख सकती थी पूरा आसमान
उसका आसमानी-सुफ़ेद और गुलाबी
शुक्र तारे को खोंस सकती थी जूड़े में

चाँद को रख सकती थी ताखे में
मंगल को आमंत्रित कर सकती थी भोजन पर
वृहस्पति को रोक सकती थी
संग-साथ के लिए

धूल में लोटपोट सकती थी
जिद्दी बच्चे की तरह
रास्ते के कंकड़ रख सकती थी अपनी झोली में
पृथ्वी के साथ सूर्य का चक्कर लगा सकती थी
जो कहीं हो जाती डगमग
बाँह गह लेती अपनी यह धरती माता

यूँ ही, क्यों झाँकती रही मैं खिड़की से बाहर।


अनुपम सिंह नई पीढ़ी की सुपरिचित कवि-कार्यकर्ता हैं। उनकी कविताओं की एक पुस्तक ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे anupamdu131@gmail.com पर संवाद संभव है।

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