कविताएँ ::
उज्ज्वल शुक्ल

उज्ज्वल शुक्ल

ख़ालीपन

आकाश जब मनुष्य में झाँकता है
धरती की दरारें त्वचाओं पर
दीमक की तरह चढ़ आती हैं

ख़ालीपन शहर भर में घूमता है
जिसके पास एक बंदूक़ है
ज़मीन पर लटकती
कुरेदती

मेरी जगहों पर आ जाता है कोई
ख़ाली नहीं बचती वे जगहें
जो मेरी थीं

एक सरल अँधेरा है
गहनता की छिछली परछाईं के साथ
और एक दुनिया
जिसे रोशनी ने प्रदूषित कर रखा है।

एलियनाइजेशन

बिल्लियों के पर नहीं होते
और कौए जूते नहीं चाटते

भूख पर कविता
उतनी अधूरी रह जाती है
जितना भूख में कवि होना

एक आदमी झूठे आरोप में
बाईस बरस जेल रहा
वह भगवान के गुण गाता था जेल में
वह जेल जो मैंने कभी देखी नहीं
वह वहाँ पुजारी था
वह बाहर क्या होगा?

कहते हैं—नटों के घर नहीं होते
कहते हैं—कविताएँ संवाद करती हैं

घर आपस में कोई बात नहीं करते

वे कौन लोग हैं
जो घर बने रहते हैं
संवाद करते हैं।

प्रेम के मेनिफ़ेस्टो का ख़ाली काग़ज़

एक

मैं प्रेम का मेनिफ़ेस्टो लिखने बैठता हूँ
एक पतंग की डोर हाथों में आती है
माँझा मेरे सीने को काटता
हाथ से छूट जाता है
मैं सबसे पहले दर्द की मरम्मत में लग जाता हूँ

इस तरह मेनिफ़ेस्टो नहीं लिखा गया

उधार ली एक ज़मीन पर
मैं पेड़ लगा रहा हूँ
ज़मीन मेरी नहीं है
पेड़ मेरे हैं
पेड़ की जो छाया ज़मीन पर पड़ेगी
वह हमारी होगी
और फल आने वाले वक़्त के

एक रजिस्ट्री है इस छाया की
बिना किसी नाम के
समूची दुनिया के लिए

थोड़े-से आकाश के नीचे
एक पेड़ खड़ा है
पेड़ के नीचे एक प्रेमी है
प्रेमी के ऊपर प्रेयसी का दुपट्टा
आकाश पेड़ के ऊपर से नीचे उतरकर
प्रेमी के ऊपर आ जाता है
थोड़ा-सा आकाश पिघल जाता है
थोड़ा-सा प्रेम आकाश बन जाता है
इस थोड़ेपन में एक बूँद गिरती है
यह थोड़ापन गल जाता है
पेड़ से दीमक की मिट्टी धुल जाती है
थोड़ी मिट्टी को दुपट्टा छान देता है
थोड़े पानी को आकाश रोक लेता है
अब कुछ थोड़ा भी नहीं बचता
पूरा ख़ालीपन है—
दो व्यक्तियों के बीच
दो व्यक्ति कोई भी हो सकते थे
दुपट्टे का होना ज़रूरी नहीं था
जब-जब दुपट्टा हटेगा
आकाश धड़ाम से गिरेगा
पानी सन्न से वाष्प बनेगा
प्रेम धम्म से गिर जाएगा
अतः दुपट्टे का ढकना
अनचाही हत्या के निमंत्रण से बचाता है

जंगले की सलाख़ों पर जमी काली परत
जंगले के उस पार रास्ता है
जंगले के इस पार
खड़कते बर्तन हैं
खटिए पर पड़ी किताब है
इनके बीच नाक-कान-नज़रें हैं
जो ख़ुद को जंगले पर टाँगे हुए हैं
मैं उस रास्ते से गुज़रने वाला पहला नहीं हूँ
वह उस पार बैठी पहली नहीं है
ये मेरी नितांत कल्पना नहीं है
यह कल्पना से थोड़े पीछे की बात है
यह शहर बनने के पहले की बात है

एक उदास सड़क पर
पीली रोशनी तले
सिगरेट का धुआँ है
तुम्हारे चेहरे को ढके हुए
मैं इस पार से
तुमसे सिगरेट छीनकर
तुमसे लड़ना चाहता हूँ
पर बैग के पट्टे को रगड़ता आगे बढ़ जाता हूँ
आगे बढ़ना पहली बार दुर्भाग्य इस तरह बनता है

इस तरह शुरुआत होती है
गाँव की शहर से दूरी
इसी तरह खेत बिल्डिंग को देख
चुप रह जाते हैं
इसी तरह हवा सिगरेट के धुएँ को
गाँव तक लाते-लाते
गंगा दशहरा पर खेतों में उठती है
और इसी तरह पैदा होता है
गाँव में शहर से लौटे शख़्स का अकेलापन

नदी में पत्थर मारकर मैं
यादों को तिलांजलि देता हूँ
एक प्रेत वहाँ से पीछा करता आता है
मेरे तकिये तले छुप जाता है
अपने करवटों के निशान पर
तुम्हें ढूँढ़ता हूँ
प्रेत मुस्कुराता है
थोड़ी-सी ज़मीन में
थोड़े आकाश की परछाईं होती है
दुपट्टे के कुछ रेशे एक घड़े में होते हैं
किताब का एक पन्ना
पन्ने पर बार-बार काटा गया
एक जमा एक बराबर एक ही नाम
और धुएँ की राख
मेनिफ़ेस्टो का ख़ाली काग़ज़
प्रेत का वस्त्र है।

दो

मेनिफ़ेस्टो के वस्त्र पर
नहीं दर्ज एक भी हर्फ़
न एक निशान
जैसे क़ायम हैं प्रकृति के निशान
पर्वतों और पठारों को चीरती नदी की भाँति
मेरे हाथों पर कुछ लकीरें हैं
जिन्हें मैं घिस रहा हूँ
तुमसे मिलने की ख़ातिर
और संसार मुझे पागल कह रहा है
मैं पर्वतीय दुर्भाग्य का चलता-फिरता रूप हूँ

इस कमरे के चारों ओर टँगे हैं सफ़ेद काग़ज़
जिसे मेरे घरवालों ने जला दिया है
मैं प्रेम की राख से उपजने वाला व्यक्ति हूँ
मैं पूरे जहान का मुँह काला करूँगा
अगर झाँक सको इस कुएँ में
जो मेरे भीतर सूख रहा है
तो तुम्हें सदियों का चेहरा दिखेगा
तुम्हें दिखेगा कि कहीं न कहीं
कोई कृष्ण है
राधा है
आदम है
हौवा है

दुःख यह कि यह कुआँ सूख रहा है
और लोगों के चेहरे की कालिख
और काली हो रही है

इस काग़ज़ के सिरे जो पहली क़लम चली थी
उसकी नोक तोड़ने की नाकाम कोशिश
सबसे पहले ईश्वर ने ही की थी
और निकाले गए थे स्वर्ग से प्रेमी
मैंने देखा तो नहीं है पर यक़ीनन
इस काग़ज़ पर जो आख़िरी क़लम चलेगी
वह उतार सकती ईश्वर को उसके आसन से

एक बिंदु पर एकत्रित किरणें
जला देती हैं काग़ज़ को
मध्य में छूट जाता है जलने का निशान
आज तक इकट्ठा नहीं हुए सभी प्रेमी
उनके मध्य नहीं ली गई
कोई टेनिस कोर्ट की शपथ
मैं उनके इंतिज़ार में इस मैदान में बैठा हूँ
और सूरज को अपना चक्कर लगाते देखता हूँ

मुझे पता है कि एक दिन
जब लोग काट रहे होंगे
एक दूसरे का गला
जब हथियार ही रहेंगे आभूषण
तो मेनिफ़ेस्टो के पन्नों पर हस्ताक्षर करने
यहाँ सभी प्रेमी आएँगे

जब दुनिया कसेगी अपनी औलादों पर
ईमानदार होने का व्यंग्य
दोस्त हँसेंगे दोस्तों पर
इतना सीधा-सादा होने के लिए
और बजेगी हर राष्ट्र की सीमा पर
जब युद्ध की गगनभेदी दुंदुभी
मैं आह्वान करूँगा प्रेम का
उस दिन ख़ाली काग़ज़ पर सफ़ेद स्याही से
एक बात दर्ज होगी
कि कुछ नहीं होता प्रेम में
सिवाय प्रेम के

यह लिखते हुए मैं
तुम्हारी आँखों को सोचता हूँ
जिनकी सजीवता की हत्या हो चुकी है
और प्रेत अपने वस्त्र को त्याग रहा है
दूसरे वस्त्र को धारण करने के लिए।

अस्पष्टता में

बारिश अपनी बूँद तोड़े बिना बरस रही है
वह एक पत्ते को छेदते बह जाती है
बारिश ने अपना सामान्य धर्म तोड़ दिया
एक भ्रम यह कि खूँटी पर शर्ट टँगी है
और किताब मेज़ पर है
रहा होगा कोई मेरी मेज़ की जगह बिस्तर रखकर
खूँटी में एक किलो आम टाँगकर
यह वास्तविकता मेरे साथ है कि
कहीं मेरे बग़ल मेरा अतीत न लेटा हो

गाँव में एक बूढ़े को भूलने की बीमारी है
वह भूल गया है—
उसने आठ दशक बिता दिए
वह नवें दशक में है

एकमात्र स्मृति
कि उसकी पत्नी सामने वाले कुएँ में
कुछ वर्ष पहले मर गई थी
विस्मृति में एक अस्पष्ट स्मृति के निशान
कितने ख़तरनाक

इस नदी को नदी कहना
रेगिस्तान न कहना
थकान को मात्र प्यास से न जोड़ना
जैसे नदी को रेगिस्तान ढूँढ़ता है
एक जोड़ी जूता दरवाज़े पर है
अभी भी कोई घर में होगा ढूँढ़ लो

एक सीलन माथे तक चढ़ गई है
ख़राब हैंडराइटिंग से नफ़रत उम्र भर रही
और बिना शक्ल देखे
प्रेम होने की उम्मीद अभी बाक़ी है

एक क्रूर मज़ाक़ रही है ख़ूबसूरती भी
आत्मा झाँकने जैसा कुछ नहीं होता शायद
आँखों में झाँकना
पहाड़ झाँकना या कुआँ झाँकना नहीं है
कोई नहीं देगा धक्का तुम्हें
रतजगी आँखें सूखा कुआँ हैं
और इसके सामने एक अस्पष्टता
और एक बोर्ड—
अपनी ज़िम्मेदारी पर अंदर जाएँ

नौकरी से घर जाता इंसान
बैग टाँगे अपने दोस्त को ताकता एक लड़का
सड़क और फुटपाथ के बीच
बारिश के पानी बराबर दूरी है
दोनों की अस्पष्ट परछाइयाँ
इन्हें उलझते देखता मैं
मुझे लगता है
मैं नीले आसमान में सफ़ेद बादल टाँगे
एक बैकग्राउंड मात्र हूँ
और यह तस्वीर अभी गिरकर टूट जाएगी

हालाँकि सब एक नियम से हो रहा है
सूरज पूरब से पश्चिम जाएगा
रात को सप्तर्षि आएँगे
एक दिन सौरमंडल ब्लैकहोल में जाएगा
ऊर्जा को न उत्पन्न किया जा सकता है
न नष्ट

सिकंदर के मक़बरे को ढूँढ़ता इतिहासकार
सँजो रहा है सभ्यता
एक बड़े समुदाय में कवि हँस रहा है—
अपवाद-सा
तमाम सर्जन चीड़-फाड़कर
अपवादों की व्याख्या करते हुए चले गए
छोड़ गए हैं एक गंध मारती लाश

लाल बत्ती पर खड़ा मैं
नियम से रास्ता पार करता हूँ
सफ़ेद बादल काले होने लगे हैं
अभी तस्वीर और गाढ़ी होगी
और अस्पष्ट होगी।

आख़िरी पड़ाव के दुःख

होली का वह चुटकी भर गुलाल
जो गाँव के कोने में
रहने वाली एक आजी के
माथे पर नहीं लग सका
अपना रंग त्याग देता है

एक जीवन दुःख नहीं त्याग सकता
शासक के मोह में जैसे रहती है सत्ता
किसी कोने में दुःख रहता है
पूरे व्याकरणिक नियमों के साथ

उन आजी के घर
एक गाय बँधी रहती थी
बेटियाँ खुली रहती थीं
फिर गाय खुल गई एक दिन
एक-एक करके बेटियाँ जा बँधीं
अब वह अक्सर ग़ायब हो जाती हैं
गाँव से
और महीनों बाद आती हैं घर
कभी-कभी उनके पति का ज़िक्र

किसी घर की चर्चा में आता है
आज भी अपने पति के क़िस्सों से
वह ग़ायब हैं
आज भी उनका पति
बिना गुलाल वाले माथे पर उनके साथ है

एक बूढ़ा भी है गाँव में
जिसके होंठ दिन भर लरजते हैं
और कहा जाता कि वह जाप करता है
हालाँकि उसका बेटा एक युद्ध में मारा गया था
उसकी इच्छा है कि जल्द ही
ईश्वर के साथ मुठभेड़ हो

जैसे कंबल के कोने से ठंड घुस आती है
न चाहते हुए भी
घर में दुःख घुस आए

दूर किसी मंदिर में कीर्तन होता है
प्रसाद बँटता है
कोई सोहर गाया जाता है

पूरे वितान में तमाशा चलता रहता है

दुःख विस्तार भी करता है
इतना कि
जब देखता हूँ शाम होते ही
अलग-अलग दरवाज़े पर जाते बूढ़ों को
लगता है—वे होते हुए भी
लगभग अदृश्य हो जाते हैं
घरवालों के लिए

इसी तरह आई होगी
विलुप्त पक्षी की आख़िरी आवाज़
इसी तरह
अंतिम मनुष्य मरेगा
छोड़कर भरी पूरी पृथ्वी
अनुभव की आत्मा
दुःख की गठरी
सुख की लाठी

मैंने गाँव के बीचोबीच
एक दरी बिछाई
और दुःखों को माँगना शुरू किया
मेरे साथ वह आजी और बूढ़ा भी हैं
शेष सब जा रहे हैं
अपने-अपने रास्तों पर
सिक्के फेंकते हुए

एक सिक्के को माथे पर लगाए
सुख धूप ले रहा होता है
और बाक़ी सिक्कों से मिला भोजन
दुःख खा रहा होता है।

वह किसकी मौत मरा

कुचले जामुनों से
जामुनी हुई फ़ुटपाथ पर
कविता ढूँढ़ता मैं
अक्सर ढूँढ़ लेता हूँ
एक कुचला हुआ मनुष्य
जो अभी वहाँ फिसलने के बाद
लोगों से नज़रें चुराता उठा होगा

वह जो अभी इस मंदिर के सामने
सिर झुकाकर जा रहा है
वह अगले पाँच किलोमीटर में
बीस बार सिर झुकाएगा
और चालीस बार दुःख उसे पटकेंगे
हर बार बेर की झाड़ियाँ
उसके शरीर से निकलेंगी
आत्मा को चीरते हुए
हर बार एक आस्था उसमें उड़ेल देगी
एनेस्थीसिया की डोज़

धूप ऐसे मनुष्य के सिर तक ही नहीं रुकती
वह एक चमचमाती कटार की तरह
उसमें घुस जाती है
और देखो कोट-टाई में वह
सड़क के किनारे नीम तले बैठा
कैसा साधु लग रहा है
ठीक वहीं परसों तक
एक भिखारी बैठता था
जो पागल था
हालाँकि यह व्यक्ति न भिखारी है
न ही पागल
इन्हीं दोनों व्यक्तियों के बीच
पागलपन लटकता रहता है
इन्हीं दो स्थितियों के बीच
जीवन चरमराते प्लाईवुड-सा उखड़ता है
जिसकी फाँस दोनों व्यक्तियों में गड़ती है

ट्रेन से कटते मनुष्य के
अवसाद-सा मैं
सामने वाली दीवार पर
सूखे लहू की छाप था
जिस पर एक पखवाड़े बाद
एक व्यक्ति पान थूककर जा रहा है

ठीक अभी इतिहासकारों को बैठक करनी चाहिए
और साहित्यकारों को चौपाल लगानी चाहिए
कि वह आदमी जो मार्क्स, गांधी, अंबेडकर
और सावरकर के बीच आदमी था
वह किसकी मौत मरा
यह कहकर पल्ला झाड़ना कि
वह बुद्धिजीवी की मौत मरा
इतिहास में सबसे बड़ा बहाना
क़रार दिया जाएगा।


उज्ज्वल शुक्ल (जन्म : 2000) की कविताओं के विधिवत कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएचडी कर रहे हैं। उनसे shuklaujjwal6@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. सत्यव्रत रजक अक्टूबर 13, 2023 at 7:16 पूर्वाह्न

    अच्छी कविताएँ। कवि को बधाई

    Reply
  2. ललन चतुर्वेदी अक्टूबर 13, 2023 at 9:33 पूर्वाह्न

    प्रतिभासंपन्न कवि में अपार संभावनाएं दिख रहीं है ।

    Reply

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