कविताएँ ::
उमा भगत

उमा भगत

जननी के प्रति

भेदभाव के इन कठिन दिनों में
प्रकृति ने मुझे बचाए रखा है
जब भी दुपट्टे की भार से मन उजबुजाया
तब हल्की हवा ने उसे सरकाया है
मुझे बचाया है
वही जिसने मुझे जना है
जब-जब किसी सरकारी बबुनी ने
रोज़गार के बारे में पूछा मुझे
एक गहरी खाई के उस पार से
तब भी मुझे प्रकृति ने ही बचाया है
बारिश शुरू हो जाती है
और खाई के इस पार
उस पार
दोनों पार बराबर बरसती है
संभव हो कि उनके पास छतरी हो
और वह ख़ुद को ख़ुशनसीब महसूस करें
पर मेरे लिए यह दुःख की बात होगी
सभी जगहों पर अनामंत्रित मैंने ख़ुद को
खुले आसमान में तारों के बीच आमंत्रित पाया है
जब बारिश होती है तो असमानता की सभी लकीरें
बहाकर एक ही समुद्र में ले जाती हैं
प्रतियोगिता के बीच दबी मैं जब ख़ुद से हारी हूँ
तब तब मृत्यु आसान जान पड़ी है पर
गंगा में डूबता सूरज देखने के लोभ से मैं ज़िंदा हूँ
मुझे गंगा ने, सूरज ने, हवाओं ने ही ज़िंदा रखा है
भेद-भाव से ऊँच-नीच से
जब भी असमानता को जानने की इच्छा से
प्रेम और मोह को समझने की इच्छा से
मैं वेद-पुराणों की तरफ़ मुड़ी
उनकी धर्म आपदधर्म की बातों ने
किंतु परंतु
यद्यपि तथापि ने
मुझे और उलझाया है
तब प्रकृति ने मुझे बचाया है
वही जिसने मुझे जना है
अपने से हारकर जब भी मैंने
आँखें बंद कर मृत्यु को महसूस करना चाहा है
तब सूरज की किरणों ने ही तो
जगाया है
बचाया है

मौन

उभरे पेट और पीली आँखों वाले बच्चे
स्टेशन पर दौड़ते हुए
जब अचानक ही मुझसे टकरा जाते
तब ब्रह्मांड का पूरा दुःख एक साथ
मुझसे टकरा जाता है
पर इतना दुःख भी काफ़ी नहीं है
मैं नज़रें फिराए निकल जाती हूँ वहाँ से…

स्टेशन के पिछले इलाक़े में
बहुत पुराना एक बरगद का पेड़
कट रहा है
काटा जा रहा है
मशीनों से
उसे कटते देख गले में पानी अटकने
जैसा कष्ट होता है
फिर भी विद्रोह तो दूर
मैंने प्रार्थना भी नहीं की

पड़ोस की एक जवान लड़की
रोती-हाँफती
हारी-थकी
पागल हो रही है धीरे-धीरे
फिर भी
नहीं है इतनी हिम्मत
कि उसे कहूँ
भाग जा! भाग जा!
अपने प्रेमी के साथ दूर
बहुत दूर

उससे दूर

वह सुकुवार गेंदा
मैं जलता पलाश
वह कमल-सी शालीन
मैं बेहया कुटज
वह पूजनीय उड़हुल
मैं केतकी के फूल
वह देवी समान
मैं कुचले जाने योग्य
मैं चिर भिखारी
वह अपने में संतुष्ट
वह घृतकुमारी
मैं गाजर घास
वह रसीली फल
मैं पुरइन पात
वह सुंदर झरना
मैं दुःख के आँसू
वह ऊँची डाली की ऊँची फूल
मैं ज़मीन पर बिछा जंगली हेहर
वह जन्म से ऊँची
मैं जात से नीचा
मैं रेंगता घोंघा
वह उड़ती बुलबुल
वह मस्तक का तिलक
मैं पैरों की धूल
उससे दूर बहुत दूर

लड़की एक

अपने ही देह से
अनजान परेशान
अचानक बड़ी
अचानक अछूता
एक किशोरी
किसी सरकारी स्कूल के
बाथरूम में बिना पानी
फँसी हुई है

बोल्ड लेटर्स में गुलाबी रंग से लिखे
मेंस्ट्रुअल साइकल को
स्किप कर टीचर अपने आपको
और सम्मानित महसूस रहा है
एड्स चरित्तर से गिरे हुए को होता है
चिल्ला-चिल्लाकर बता रहा है

वह लड़की अब भी बाथरूम में है
पर अब वह फँसी हुई नहीं
वहाँ सहज है
बिल्कुल सहज
वहाँ सिर्फ़ पेशाब की बदबू है
बाहर सालों से सड़े-गले लोगों की
बदबू नहीं।

ऐसा होता है

छठी इंद्री के ज्ञान से
स्त्री भाँप लेती है
हर ‘छुअन’ की मंशा को
छूने वाला उसे धीरे-धीरे छूता है
वह इंतिज़ार करता है
कि बस कब ब्रेक लगाएगी
और तब वह उसे
ज़ोर से छू पाएगा
उसे भय नहीं है
क्योंकि वह पढ़ा-लिखा है
वह ‘जड़ता’ से परिचित है
उसने अँग्रेज़ी में भी
इसकी परिभाषा रटी हुई है
उस स्त्री को क्रोध आता है
वह चाहती है उसे शाप देना
पर आदमी और उसके बीच
आँखों में पट्टी बाँधे शिव-भक्तिनी
गांधारी आ जाती हैं और कहती हैं—

‘‘मैं जानती हूँ—इसने अपराध किया है, पर यह मेरा पुत्र है! एक माँ की पीड़ा समझ पुत्री, इसे क्षमा कर दे। देख न उसके साथ उसकी पत्नी और दस वर्ष की पुत्री है। उसका संसार न बिगाड़ पुत्री उसे क्षमा कर।’’

दो स्त्री मिलकर उस आदमी को बख़्श देती हैं।

…वह आदमी स्त्री-विमर्श वाली एक सभा में कार्यक्रम के समापन के बाद दो- चार पैग पीने के बाद कहता है, ‘‘धूर! सब बकवास है। स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है। विचार-विमर्श बेकार है।’’


उमा भगत नई पीढ़ी की कवि हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताएँ प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। इससे पूर्व उनकी कविताएँ ‘अलीक’ (जनवरी 2024, संपादक : नील कमल) में नज़र आ चुकी हैं। वह बर्धमान, पश्चिम बंगाल में रहती हैं। उनसे umabhagat143@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. Aarti sirsat अप्रैल 17, 2024 at 5:56 अपराह्न

    Hum bhi judna chahege

    Reply

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