काव्य कथा ::
विनय सौरभ
यह कविता 2002-03 के आसपास संभव हुई थी। एक लंबे इंतिज़ार और उकताहट के बाद गाँवों-क़स्बों में टेलीफ़ोन का आना एक लंबित उत्सव की तरह घटा। उन्हीं दिनों दयाशंकर के साथ यह हादसा हुआ था। दयाशंकर मेरा सहपाठी था। हम लोगों ने गाँव के स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा साथ-साथ पास की थी। दयाशंकर की इस कहानी में कविता कितनी है, पता नहीं! दयाशंकर उन दिनों हँसी-मज़ाक़ और उपहास का पात्र बनकर रह गया था, पर मेरे भीतर उसके लिए करुणा थी।
— वि. सौ.

उनके जीवन में जब चीज़ों ने एकाएक तेज़ी से करवट लेना शुरू किया—यह वही समय था जब लगभग अट्ठाईस के हो गए शर्मीले और अंतर्मुखी दयाशंकर चक्रपाणि ने ग़ौर किया कि दुनिया काफ़ी बदल गई है
दयाशंकर चक्रपाणि जो अपने स्कूल में डी.सी. माटसाब के नाम से जाने जाते थे अपने ही ज़िला मुख्यालय में सुदूर गाँव के एक स्कूल में गणित के अध्यापक थे और एक छोटे-से क़स्बे में रहते थे
वह हारमोनियम अच्छा बजा लेते थे
स्थानीय कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाता था
वह एक ईमानदार सरकारी मास्टर थे
उन्होंने मुझसे कई बार कहा था कि
देहात के स्कूल में कोई पढ़ाना नहीं चाहता
सब टेबल के नीचे पैर हिलाते हैं
राजनीति के हालात पर स्यापा करते हैं
और शाम को घर लौट आते हैं
उनके अनुसार ज़्यादातर अध्यापक
सरकार की आँखों में धूल झोंक रहे हैं
कोई पिछड़े इलाक़े के स्कूल में
बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता
सब अपनी पोस्टिंग शहर में चाहते हैं
दया निश्छल थे
वह यह नहीं जानते थे कि
सरकार भी जनता की आँखों में धूल झोंक रही है
दरअस्ल, अपने भोलेपन में वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि
धूल और धुंध चारों ओर थी
और लोग इसमें चलने के आदी हो चुके थे
दयाशंकर चक्रपाणि अभी तक अविवाहित थे
उनके दोस्तों की शादियाँ हो चुकी थीं
उनमें से कई बाल-बच्चेदार भी हो गए थे
चक्रपाणि बीच-बीच में महसूस करते थे कि
पुराने दोस्तों से बातचीत किए महीनों गुज़र गए हैं
जबकि दोस्त इसी क़स्बे में
और आस-पास के शहरों में रहते थे
इतवार का दिन उनके रियाज़ का दिन होता था
छुट्टियों में ताजमहल देखने और नौकरी के कारण
दूर बस गए पुराने दोस्तों से मिलने जाने की बात
उन्होंने कई बार सोची थी
दयाशंकर चक्रपाणि भावुक प्रवृत्ति के थे
स्कूल और कॉलेज के दिनों में मन ही मन
दो-एक लड़कियों के लिए संवेदित हुए थे
मगर वह जानते थे कि उनके ख़ानदान में
किसी ने प्रेम जैसा कुछ नहीं किया है
और तंबाकू का व्यापार करने वाले उनके पिता
इन मामलों में काफ़ी सख़्त समझे जाते थे
सालाना होने वाले क़स्बों के धार्मिक जलसों में
वे लड़कियाँ अपने मायके लौटती थीं
जिनको लेकर दयाशंकर के हृदय में कभी
हारमोनियम के सुर गूँजे थे
कई रातें तरल एहसास की धुनों में तरंगित हुई थीं
उन माँ बन चुकी लड़कियों को लेकर
डी.सी. माटसाब अब निरपेक्ष हो चुके थे
उन्हें देखकर भी उनके मन में
अब कोई जुंबिश नहीं उठती थी
कोई राग नहीं जगता था
दयाशंकर चक्रपाणि अपनी माँ के ज़्यादा क़रीब थे
माँ उनकी शादी-विवाह की चिंता में रोज़ घुल रही थीं
वह उनके विवाह के लिए हर सोमवार को बासुकिनाथ धाम जातीं
दूसरे मंदिरों के चक्कर काटतीं
पीपल के पेड़ पर धागा बाँधतीं
बाबाओं से मिलतीं
यह कोई नहीं जानता था कि
उन्होंने अभी तक
विवाह क्यों नहीं किया है
दरअस्ल, चक्रपाणि जिस बिरादरी से आते थे
उसमें लड़कों के गठबंधन की आदर्श उम्र बीस-बाईस थी
और वहाँ धारणा यह बन चुकी थी कि
उनकी उम्र बहुत ज़्यादा हो चुकी है
वे ख़ुद को मानसिक रूप से परिपक्व
और वैचारिक महसूस करते थे
चौदह-पंद्रह साल की लड़की का प्रस्ताव उन्हें
अजीब और अमानवीय लगता था
अपने से आधी उम्र की कन्या के साथ रिश्ता
उनकी नज़र में अपराध जैसा था
दयाशंकर ने एक दिन पाया कि
माँ का बिस्तर लगाना उन्होंने छोड़ दिया है
हालाँकि माँ ने अपने बेटे को कभी नहीं कहा कि
तुम मेरा बिस्तर लगाओ
पर उन्होंने ऐसा करना
एक आस्था भरी सनक में शुरू कर दिया था
उन दिनों उन्हें हर सुबह टीवी पर
एक गुरु के प्रवचन की लत पड़ गई थी
लेकिन एकाएक एक सुबह प्रवचन देखते-सुनते
दयाशंकर चक्रपाणि को यह एहसास हुआ कि
टीवी के अंदर का यह आदमी
हज़ारों आदमियों को धोखा दे रहा है
उनका समय खा रहा है
प्रवचन सुनकर भी लोग बदल नहीं रहे थे
उन्हें समय के बहुमूल्य होने का ख़याल आया
ख़ुद पर गहरी खीझ हुई और वही पुराना विचार
फिर-फिर आया कि इस बीच में वे अपने पुराने दोस्तों को
चिट्ठियाँ लिख सकते थे
उनसे मिलकर आ सकते थे
अपने क़रीबी रिश्तेदारों से मिले कई-कई साल हो गए थे
उनका ख़याल अब जाकर उन्हें आ रहा था
फिर देखिए उन्होंने अपने परिचय के दायरे में लोगों से
कहना शुरू किया कि टीवी एकदम बेकार की चीज़ है
यह आदमी की क्रिएटिविटी को नष्ट करता है
आपसी मेलजोल और घटती सामाजिकता की सबसे बड़ी वजह
उन्हें टेलीविजन ही जान पड़ा
लोग दयाशंकर चक्रपाणि की बाद सुनकर मुस्कुराते
उन्हें भी सास-बहू वाली कहानी और रीमिक्स की लत पड़ गई थी
मित्रो, दयाशंकर चक्रपाणि के जीवन में हुई दुर्घटना
या तब्दीली का ब्योरा यहीं से शुरू होता है…
रातें उनकी ठीक-ठाक ही बीत रही थीं
वहाँ नींद थी
ज़ाहिर है—वहाँ सपने भी होंगे
महीने भर हुए थे
क़स्बे में फोन लगना बस शुरू ही हुआ था
वह दयाशंकर चक्रपाणि के यहाँ भी लगा
टेलिफ़ोन विभाग में कनेक्शन का आवेदन देकर
छह सालों से लोग उकता गए थे
और उदासीन हो गए थे
इसलिए दूरसंचार विभाग ने घरों के भीतर
जैसे ही फ़ोन के तार पहुँचाए
क़स्बे ने नया रोमांच महसूस किया
लोग आपस में एक दो महीने जहाँ भी मिलते
बस फ़ोन की ही बात करते
रिसीवर के रंगों की बात करते
कोई नया उत्सव जीवन में शामिल हो गया हो जैसे!
उसी दरमियान एक रात जब वे गहरी नींद में थे
दूसरे पहर फ़ोन की घंटी बजी
रिसीवर दयाशंकर चक्रपाणि ने ही उठाया
वह उस समय तक फ़ोन पर बात करने के अभ्यस्त नहीं हुए थे
फ़ोन किसी स्त्री का था जिसे वे जानते नहीं थे
बातें कुछ -कुछ रूमानी थीं
वह सुंदर स्त्री स्वर था
वे अकबका गए और उस स्त्री का नाम भी नहीं पूछ सके
उस रोज़ सुबह तक जगे रह गए दयाशंकर
रतजगा होने के बाद भी वे तर-ओ-ताज़ा थे
उन्होंने गुनगुनाते हुए स्कूल के लिए बस पकड़ी
बस में रात को हुई
टेलिफ़ोनिक बातचीत के बारे में विचार करते रहे
जो उन्हें अब भी अविश्वसनीय और सपने-सी लग रही थी
पूरे दिन भर वह स्कूल में यही सोचते रहे
कि एक प्यार करने वाले स्त्री का
जीवन में होना कितना ज़रूरी है
अब तक सुनी गई दूसरों की प्रेम-कहानियों
और वृत्तांतों को लेकर उदासीन रहने वाले
दयाशंकर ने उस रोज़ महसूस किया
कोई तो बात होती होगी!
अगली रात और फिर कई रातों तक दयाशंकर चक्रपाणि
आधी-आधी रात को फ़ोन उठाते रहे
लज्जा-विस्मय-भय-रोमांच-घबराहट-उत्सुकता ने
उन्हें भीतर से अस्त-व्यस्त कर दिया था
एक रात उस अनजान स्त्री ने
प्यार भरी बातों के सिलसिले को
आगे बढ़ाते हुए कुछ अंतरंग बातें कीं
तो वे भीतर तक हिल गए!
जो घट रहा है उनके साथ
वह क्या है!
क्या दुनिया इतनी आगे बढ़ गई है?
क्या वे ही पीछे छूट गए हैं?
सब कुछ उन्हें अवास्तविक लगा!
मगर यह सपना नहीं था!
हक़ीक़त में एक स्त्री उनसे रोज़ आधी रात को
अंतरंग बातें कर रही थी!
यह सच है!
यह सच है डी.सी. माटसाब
यही सच है!
सच को स्वीकारो!
उनके मन ने कहा
उनके लिए यह कठिन दौर था—
सचमुच अकल्पनीय
लेकिन स्वप्निल!
वे बौरा चुके थे
और रोज़ देर रात तक जगे रहते थे
फ़ोन का इंतिज़ार करते रहते थे
हाल ही में घर में लगे फ़ोन ने
उनकी ज़िंदगी बदल दी थी
रोमांचित दयाशंकर ने इस अनोखे कारनामे के लिए
ग्राहम बेल को धन्यवाद दिया
दयाशंकर चक्रपाणि ने कई बार एकांत में
स्त्री-शरीर के उपादानों की कल्पना की थी
और रोमांचित हुए थे
मगर एक स्त्री की आवाज भी
ऐसा अलौकिक सुख दे सकती है
यह उनकी कल्पना से परे था
उनका जीवन अब पूरी तरह से स्वप्निल था—
एक अज्ञात रोमांच से भरा हुआ
अब उनकी रातों में रोज़ साफ़ आसमान था
वहाँ बस चाँद और सितारे थे
सुकून से भरा भीतर घुलता हुआ आत्मिक संगीत था
जीवन को भरपूर जीना चाहिए—उमंगों के साथ
यहाँ हर पल नया है
नई अनुभूतियों से भरा हुआ!
आह!
ज़िंदगी एक नए दर्शन
और अनोखे अनुभव के साथ सामने आ गई थी
एक रात दयाशंकर प्रेम की गहरी मनःस्थिति और
कुछ-कुछ वासना के अतिरेक में काँपते हुए बोले :
देवी अपना नाम तो बताइए
मुझे छलिये मत
मैं आपसे प्रेम करने लगा हूँ
आप कहाँ से बोल रही हैं
मैं आपको इस संसार में सबसे ज़्यादा चाहता हूँ
दया चक्रपाणि यह सब कहते हुए असहज-असंयत और विचलित थे
उनकी साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं
सर्दियों की उस रात में
उन्होंने अपने माथे पर पसीना पाया
आज उनकी आवाज़ में
याचना-अनुरोध-करुणा और बेचारगी से भरी घिघियाहट थी!
अगली रात उस स्त्री ने
दयाशंकर चक्रपाणि से क़सम लेते हुए
नाम किसी को न बताने की शर्त पर
अपना नाम बताया…
और फ़ोन कट गया
यह कहते हुए कि
अब वह एक सप्ताह के बाद फ़ोन करेगी!
सानिया मिर्ज़ा!
हाँ, यही नाम था!
दया चक्रपाणि ने अपने कानों से सुना था!
वह रात उनके जीवन की सबसे भारी रात थी
उसके बाद वे सो नहीं पाए
तो सानिया मिर्ज़ा इतनी रातों से उन्हें फ़ोन कर रही थी?
क्या सानिया मिर्ज़ा उन्हें हैदराबाद से फ़ोन कर रही थी?
हैदराबाद सानिया हैदराबाद!
इन शब्दों को दयाशंकर चक्रपाणि
मंत्र की तरह दोहरा रहे थे
हैदराबाद पुराना ऐतिहासिक शहर है
आधी रात को कमरे में तेज़-तेज़ घूमते
उन्होंने अपने आपसे बात की…
एक ऐतिहासिक शहर से
एक निःस्वार्थ प्रेम कहानी की शुरुआत हो रही है
सच में यह एक स्वार्थरहित प्रेम ही तो है!
उन्होंने मन के कोने-अंतरों में
अपनी ही बात पहुँचाने की कोशिश की
दयाशंकर एक गाँव में जन्मे थे
दो-चार छोटे शहरों को देखने का अनुभव उनके पास था
उनके पिता तंबाकू के व्यापारी थे
वे बेहद साधारण परिवार से थे
यह सब सोचते हुए सब कुछ उन्हें
अविश्वसनीय और दिन में देखे गए सपने की
तरह लग रहा था
इस दुनिया में सच्चा प्रेम किस्मत वाले को ही मिलता है—
एक पुरानी डायरी में मन में उठे इस आप्त विचार को उन्होंने लिखा
सानिया मिर्ज़ा के लिए अब उनके मन में प्रेम की जगह
करुणा व्याप रही थी
वह अकेले में सोचते—
आह सानिया!
वह कितनी अकेली है…
अपनी शोहरत के बीच!
वे अतिशय भावुक हो उठते
दिल डूबने जैसा लगता!
वह सप्ताह बड़ी मुश्किल से बीता
आज सानिया का फ़ोन आएगा!
उन्होंने वह हफ़्ता बड़ी कठिनाई से पार किया था
उन दिनों वह ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस पर
देर रात गए आने वाले पुराने गीतों के कार्यक्रम—
‘धरती को आकाश पुकारे’ को नियमित सुनते
पीड़ा से उनका हृदय और भारी हो उठता
रोज़ बस में बैठने के बाद आँखें मूँदकर
वह टेनिस खेलती सानिया को देखते
स्कूल में पढ़ाने के बाद ख़ाली समय में
अपने साथी शिक्षकों से दूर वे पेड़ के नीचे
अपनी कुर्सी जमा लेते और गुमसुम दिखते
उनमें पिछले दिनों से आए बदलावों को देखकर
एक सहायक शिक्षक ने पूछा भी था :
डी.सी. आप ठीक तो हैं…
भागलपुर जाकर किसी डॉक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते?
दयाशंकर चिढ़ गए और कहा :
मुझे हुआ क्या है
अपने काम से काम रखिए!
उस रात सानिया का फ़ोन नहीं आया
वे रात-रात भर फ़ोन के रिसीवर की तरफ़ ताकते रहे
और सुबह हो गई!
अगली रात भी यही हुआ
वह अनवरत जगे रह गए
जब सुबह का उजास उनके कमरे में उतरा तो
उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि
वह पूरी रात जगे रह गए हैं!
यही प्रेम की वास्तविक स्थिति है
जब आप अपना अस्तित्व भूल बैठते हैं
भौतिक अनुभव से परे ख़ाली अनंत बचा रहता है—
आपके भीतर!
उन्होंने अपनी उसी पुरानी डायरी में फिर लिखा
अगली कई रातें भी इस तरह ही रिक्त बीत रही थीं
दयाशंकर चक्रपाणि अपने मन को समझाते
टेनिस स्टार की व्यस्तताओं का आकलन करते
अख़बारों से उनकी ख़बरों की कतरनें और फ़ोटू जुटाते
धीरे-धीरे उनका कमरा सानिया की ख़बरों के
अख़बारी कतरनों से भर रहा था
सानिया के विभिन्न पोज़ों वाली तस्वीरों के साथ
दयाशंकर चक्रपाणि ने जीना शुरू कर दिया था
इंतिज़ार की इंतिहा हो रही थी
दो महीने होने को आ रहे थे
सानिया ने उन्हें अपना नंबर भी नहीं दिया था
गुमसुम परेशानहाल अंतर्मुखी दयाशंकर
सानिया से बात करना चाहते थे
वह व्यग्र थे
व्याकुल थे
उदास थे
उनका दार्शनिक मन जैसे किसी
विचार-सरणी में डूब चुका था
और बाहर आने को तैयार न था
वह असामान्य रूप से
सारी रात फ़ोन के पास बैठे रहते
बिजली कटी रहने के बावजूद किरासन लैंप की
लाल मद्धम रोशनी में ख़बरों की कतरने और फ़ोटू देखते
आधी-अधूरी नींद लेते!
टेनिस स्टार के ख़यालों में
पूरी तरह मुब्तिला हो गए थे दयाशंकर चक्रपाणि
वह पीड़ा-प्रेम-कल्पना और तकलीफ़ की
कहानी के नायक होने की तरफ़ बढ़ रहे थे
एक बार बस स्टॉप पर उन्होंने मुझे रोका
किनारे ले गए और मुझसे धीरे से कहा :
क्या सानिया मिर्ज़ा का नंबर कहीं से मिल सकता है?
तब जाकर मुझे सारे वाक़ये का पता चला
मैं हैरत से उन्हें देख रहा था!
मगर वह—पता चले तो बताइएगा…
कहकर ओझल हो चुके थे
वह—वह दयाशंकर चक्रपाणि नहीं थे
जिन्हें मैं बचपन से जानता था
वहाँ एक ऐसा अबोध और निरीह प्रेमी था
जो कल्पना में आई एक स्त्री के लिए
अपना वर्तमान भूल चुका था
एक रोज़ वह स्कूल से लौटते हुए मुझे हाट में मिले
बताया कि सानिया लंबे समय से विदेश में है
वह तैयारी कर रही है
दयाशंकर सानिया की एड़ी की चोट को लेकर भी चिंतित दिखे
दयाशंकर चक्रपाणि का हारमोनियम धूल से ढक चुका था
उनका कमरा अख़बार की कतरनों से बेतरतीब था
वह इतवार को रियाज़ करना भूल चुके थे
दोस्तों और रिश्तेदारों के होने न होने का एहसास
उनके जीवन से विदा ले चुका था
इन दिनों उनके जीवन में जो सुनामी आई हुई थी
उससे मैं और प्रह्लाद भगत ही वाक़िफ़ थे
प्रह्लाद भगवान शंकर पर आस्था रखने वाला
मेरा बचपन का सहपाठी और एक भक्त मनुष्य था
वह एक रोज़ सुबह मेरे घर आ गया और बोला :
दयाशंकर के बारे में बात करनी है
वह अकेला पड़ चुका है
उसके बड़े भाइयों को उसकी मैरिज की फ़िक्र नहीं है
आजकल वह कैसा-कैसा व्यवहार कर रहा है
तुम देख ही रहे हो
उस पर कोई प्रेत का साया तो नहीं है?
कल उसके माँ-बाप चंदन डॉक्टर के मज़ार पर गए थे
जानते हैं—कल उसने मुझसे सानिया मिर्ज़ा का नंबर
पता करने को कहा है!
~~~
इस देश में हाल ही में बने
एक राज्य के पिछड़े ज़िले के
सुदूर ग्रामीण स्कूल में पदस्थापित अध्यापक
दयाशंकर चक्रपाणि इन दिनों
अख़बार आने पर सबसे पहले खेल-पृष्ठ देखते हैं
गुमसुम स्कूल जाते हैं
और बेहद संकोच के साथ थोड़े-थोड़े अंतराल पर
मुझसे और प्रह्लाद भगत से
सानिया मिर्ज़ा के फ़ोन-नंबर के बाबत दरयाफ़्त करते रहते हैं।
विनय सौरभ [जन्म : 1972] सुपरिचित-सम्मानित हिंदी कवि हैं। ‘बख़्तियारपुर’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनसे nonihatkakavi@gmail.com पर संवाद संभव है।