कविताएँ ::
यशस्वी पाठक

गुल
यह पाँचवाँ मधुमास है
जब तुम यहाँ नहीं हो
दिल्ली पर दुल्हन-सा रूप आया है
सुबहें कितनी मोहक
शामें कितनी मदिर हैं
महामहिम का बग़ीचा
नागरिकों के लिए खोल दिया गया है
सुंदर नर्सरी को सुंदर बनाते
सुंदर कामगारों के सुंदर हाथ
सुस्ता रहे हैं
मेरा उधर जाना हुआ तो उन हाथों को
अपने हाथ में लेकर
शुक्रिया कहूँगी
वे कमासुत-दिलेर औरतें कौतूहल से हँस देंगी
मैं भी मुस्कुरा दूँगी
उदासी में चेहरे पर आई मुस्कान
इंसानियत से लबरेज़ होती है
तुम भी मुस्कुराती हो?
नहीं, तुम सिर्फ़ मुस्कुराती नहीं हँसती भी होगी
निराशा तुम्हें छू भी नहीं सकती
तुम्हारे मन को किसी ने छुआ है गुल
किसी की बात,
किसी का साथ तुम्हें सुंदर लगा?
क्या उसे तुम्हारी प्रतीक्षा होगी?
वसंत अपने सबसे जवान दिनों में है गुल
तुम्हारी और मेरी तरह
एक लज्जित करने वाले स्पर्श के लिए
हमें अभी कितने वसंत बर्बाद करने होंगे गुल
मैं उसके बाज़ुओं से अपना कंधा मिलाती हूँ
आठ जोड़ी आँखें मुझे छलनी करने लगती हैं
उन्हें हमारी पहचान से ग़रज़ है
हमें एक अदद इंसान होना याद
हम बिरला मंदिर जाते हैं
क्या ग़नीमत है
यहाँ अब भी डर नहीं लगता
वह पुजारी को विनम्रता से देखता है
पुजारी अन्यमनस्कता से उसे कुमकुम लगाते हैं
मौन की भाषा में मैं उससे कुछ कहती हूँ
वह चुप की ज़बान में जवाब देता है
यह दिल्ली का सबसे सूना मंदिर है गुल
यहाँ ईश्वर की प्रतिमाओं और पुजारियों के अतिरिक्त
यूरोपीय पर्यटकों का छोटा समूह दिख जाता है
बातूनी परिंदों, गिलहरियों
धमाचौकड़ी करते बंदरों का घर है यह
चींटियों की पंक्तियाँ अनंतता की ओर बढ़ रही हैं
कलियों पर झूलते नारंगी भृंग
दूबों से दबी बेंच पर फुदकती गौरैयाँ
रह-रहकर आती घंटों की आवाज़
हमें दीन दुनिया से दूर करते हैं
जिन स्थानों पर मनुष्य नहीं हैं
वे जगहें कितनी लवलीन
कितनी कोमल हैं गुल
बोगनबेलिया की गुलाबी पंखुड़ियाँ
धरती को चूमने लगी हैं
कोयलों का गला भी ख़ुश्क हो चला है
निज़ामुद्दीन में रंग भी मनाया जा चुका है
ईद बस आने को है गुल
नहीं मालूम तुम कब आओगी
फिर ऐसा क्यों लगता है
कि तुम आ गई हो
और छा गई हो सब ओर
ये रंग-ओ-बहार
ये पलाश ये कचनार
ये तुम्हारे ही रूप हैं
तुम आ गई हो क्या
क्या यह तुम्हीं हो
तुम्हीं हो गुलफ़िशाँ
रात
रात में जागना मना था
रात में पढ़ना मना था
रात में बातें करना मना था
रात में चौखट लाँघना सख़्त मना था
रात में बहुत ख़तरे थे
रात को दुरात बनाया गया था
मैं रात से दूर थी
उसी तरह जैसे दुनिया की अधिकतम लड़कियाँ
मुझे दिन दिया गया था
उसी तरह जैसे दुनिया की अधिकतम लड़कियों को
अगहन की शीत रातों में
मैं रात की ओर बढ़ी
जिस रात जामिया की लाइब्रेरी में
केंद्रीय पुसिल बल के जवान
लाठियाँ तोड़ रहे थे
मैं वर्जनाओं की सब रस्सियाँ
निषिद्धता के सब क़िले तोड़
रात में उतर गई
मैं दिन की हद के पार थी
रात के आँगन में रक़्स करती
उस रात के बाद
मैं रात में जागने लगी
रात में पढ़ने लगी
रात से बातें करने लगी
तब से मेरा रात से
रात-रात भर बातें करना जारी है
मैंने उम्र के तेईसवें बरस में जाना
रातें सोने के लिए नहीं
बातों के लिए होती हैं
रात में रात से बातें करते
मैंने कई बार चाहा बस रात ही रात रहे
और बात ही बात रहे
मैं रात पर खुली
रात मुझ पर खुली
उसने मुझे दिन के उजालों में
उजली दिखने वाली चीज़ें दिखलाईं
वे अब अपनी अस्ल शक्ल में थीं
उरियाँ, बेलौस, सुस्ताती हुई
उसने मुझे चोर-उचक्कों, जिगोलो
वेश्याओं और उनके ग्राहकों से मिलवाया
सोते मज़दूरों, जागते कुत्तों से मिलवाया
तंग आए तीमारदारों, कृतज्ञता से मरते
मरीज़ों की उकताहट दिखाई
पत्नियों के पतियों और पतियों की बेटियों और बेटियों के प्रेमियों से मिलवाया
मठों में साधुओं-साध्वियों की
रात्रिचर्या से परिचित करवाया
रात मुझे
उन-उन तहों
उन-उन तलों पर ले गई
जहाँ मेरी रसाई दिन में नामुमकिन थी
यानी मेरा दिन भी कटा-फटा था
उसमें रात के बहुत से पैबंद थे
रात में अति हुई
अति में रात
सबसे ज़्यादा प्रेमानुभूति रात में हुई
सबसे ज़्यादा व्याकुल मैं रात में हुई
सबसे ज़्यादा मैं रात में रोई
दिन में मिला शुभ समाचार रात में ज़हर-सा चढ़ा
दुःख रात ही में मुझसे न सँभलता
सबसे तेज़ भूख रात में लगी
आत्मन् को तृप्ति रात में मिली
सबसे ज़्यादा आज़ादी मैंने रात में महसूस की
सबसे ज़्यादा डर रात में दूर हुए
सबसे ज़्यादा झूठ मैंने रात के कारण बोले
सबसे ज़्यादा सच मैंने रात के कारण जिए
कभी-कभी मैंने रात को सशरीर पाना चाहा
उसकी आँखों में उतरना चाहा
दुर्लभ वन्यजीव-सा सहेजना
जलते अंगारे-सा पकड़ना
और जुगनुओं-सा छोड़ना चाहा
मुझे रात से ज़्यादा हसीन
रात से ज़्यादा विद्रोहक कुछ नहीं लगता
भारत महान्!
मेरी रातें मुझे सौंप दो
मेरी अनगिनत तवील ज़िंदा रातें
तुम पर युगों से उधार हैं
कहो
गढ़े में नहाती चिड़ियों का उल्लास हो
कि पकते गुड़ की महक
तुम्हारे देह में वैसी तो कोई सुगंध नहीं
क्या है वह
नहीं अगर करौंदे, कदम, नींबू, नीम
या लिप्ट्स के फूलों जैसी महक भी
लाल चूड़ियों से सजे हाथ भी नहीं तुम्हारे अम्मा जैसे
महावर भी नहीं तुम्हारे पाँव में
न ही तुम्हारे चारों जानिब हैं कुहासे में लिपटे
गंदुम और सरसों के खेत
तुम बाग़ में अचानक मिले मोर के नन्हे पंख हो क्या
हरी घासों, ऊँचे दरख़्तों, सूखे पत्तों के बीच
उस एक पंख के मिलने पर
बहुत से पंखों को ढूँढ़ लेने की अतृप्त चाह जैसे?
हंसों जैसे हो क्या—
घटिली शाम में
डैने पसारे
सुंदर आकृति बनाते
अपने घरौंदों को लौटते
तुम बूढ़े चरवाहे तो नहीं हो
लाठी-छाता-गमछा लिए नहर पर मवेशी चराते
फिर मैं तुम्हें अनझिप देखती कैसे रहती हूँ
तप्ते की आँच-सा निश्चित ही
कुछ है तुम्हारे भीतर
जिसकी ऊष्मा मुझे टोहती रहती है
मैं कक्षा चार में नहीं हूँ
तुम्हारे होंठ नई-नई घर आई
छोटी भाभी जैसे कत्थई रंग के भी नहीं
जिन्हें मैं आहिस्तगी से छूना चाहूँ
वह जंगला हो तुम क्या
जिसकी ओट में शाम के ओसारे से
रात के दुआरे तक
बैठी सोचती थी हस्त-रेखाओं, इंद्र की सभाओं, भविष्य की आशंकाओं और संभावनाओं के बारे में
ताक में जलती ढिबरी हो
कि बाबा की कथाओं से भटक कर आया
कोई दिलचस्प पात्र
कहो क्या हो और क्यों हो मुझे प्रिय
जब तुम नहीं हो वह और वहाँ
जहाँ मेरे मन का कोई टुकड़ा
समय से रुलता तिर रहा है
नहीं
बिटिया के सुख और सुखी संसार के लिए
बाबुल मग़ज़मारी नहीं करते
वे बला टालते हैं
‘बाबुल की दुआएँ लेती जा…’ जैसे गीत
बेटियों को मूर्ख बनाने के लिए लिखे गए
जो बाप अपनी बेटियों को सुखी संसार न दे सके
विदा करते हुए उनके मुँह से
सुखी संसार की दुआ गाली-सी लगती है
उन्हें फ़िक्र रही पुर-पौश्त की
समाज और इज़्ज़त की
यह तो कोई हम लड़कियों से ही पूछे
हम अपने पिता से किस तरह ज़िच खाई हुई हैं
वे स्वाद और विलास में निर्लिप्त
कभी नम्बरदार थे
कभी ‘नम्बरदार का नीला’
हमने उनका सम्मान किया
जिनका व्यवहार चौकीदार, ठेकेदार
वर पक्ष से बात करते हुए लगभग दलाल-सा लगा
ज़मीन उनकी
घर उनका
समाज उनका
इज़्ज़त उनकी
नियम-क़ानून उनके
फिर सुखी संसार हमें कैसे मिलता
उनके नियमों के उल्लंघन का अर्थ था
संबंध-विच्छेद
उनसे संबंध भी क्या था
भय का?
क्रोध का?
लिहाज़ का?
कोई धूर्त था वह
निहायत मक्कार
प्रेम करती पुत्री की ताब न ला सका
उसकी स्वतंत्रता
उसका व्यक्तित्व
कुचलकर
बनाया उसे भावनात्मक मूर्ख
घोषित किया—
पिता सबसे अधिक प्रेम पुत्रियों से करते हैं
उसके छल को छिपाने के लिए
लिखे जाते हैं लाड़-प्यार के गीत
यह तिलिस्म अब टूटना चाहिए
इस मक्कारी से पर्दा उठाना चाहिए
नहीं करते पिता अपनी पुत्रियों से प्रेम
नहीं करते
नहीं करते
मिट्टी
तुमने कभी देखा है
दिनों से भूखे कुत्ते को
सूखी हड्डी चाटते
घर को उसी तरह चाटना
विदा से पहले
एक मुट्ठी मिट्टी
अपने झोले में रखना
यह तुम्हें रोटी देगी
नमक और गुड़
पानी, हवा और छाँह देगी
गाढ़े दिनों में
तुम्हें वह सब कुछ देगी
जिसकी तुम्हें दरकार होगी
यह एक मुट्ठी मिट्टी
महानगर में
तुम्हें गिरते हुए थाम लेगी
तुम्हारे साथ चलेगी
तुम्हारे बग़ल बैठेगी
सुनेगी तुम्हें
तुम्हें तुम्हारा कमरा देगी
तुम्हारा बिस्तर
तुम्हारा कम्बल
जिस कम्बल को तुम
तह किए बिना छोड़ आए थे
तुम देखोगे
उसमें तुम्हारे शरीर की गर्माहट
अब तक है
तुम उसे ओढ़ोगे और पाओगे
घर ने तुम्हें
अपने आलिंगन में कस लिया है
प्रेम
मेमनों-सी उजलत
नहीं चाहिए
पूरी तल्लीनता से
चरना चाहिए प्रेम को
सिर झुकाए
जिस तरह चरती है गाय
हरी घासें
चरर-चरर की आवाज़ के साथ
पीयूष बनने लगता है
घासों का रस
पूँछ से मक्खियाँ उड़ाते
धीरे-धीरे बढ़ाते हुए क़दम
सिर झुकाए
चरना चाहिए प्रेम को
यक़ीन
वन धूँ-धूँ करता जल रहा है
जीव चीत्कार रहे
एक हठी बुलबुल
अपने बच्चों की चोंच में
रख रही पपीते का मीठा गूदा
पिता का अभिमान
राख बन उड़ रहा है
माँ का ईश्वर पर विश्वास बढ़ रहा है
चीलें नए ग्रहों पर पलायन कर रहीं
भादों के ग़ुर्राते मेघ
दक्खिन से चढ़ रहे
स्वाहा हो रही मैं
उत्साहित हूँ
सुगबुगाहट होगी
जन्म होगा
नए रोयें आएँगे
वे पुनः मुझे प्रिय लगेंगे
उन्हें मैं
यशस्वी पाठक की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : मैं दबाकर रखी गई चीख़ हूँ जो तुम्हें बावला कर सकती है
बहुत अच्छी कविताएँ हैं। बार-बार पढ़ने वाली। गाहे-बगाहे याद आने वाली, जैसी अच्छी कविताओं की विशेषता होती है।
इन बेहतरीन कविताओं के लिए बहुत बधाई, यशस्वी जी!
क्या शानदार कविताएं हैं। युवा कविता के हल्ले में इनका स्वर कितना स्थिर, दृढ़, निष्कम्प और संतुलित है। बहुत बधाई कवि को और शुक्रिया सदानीरा का।