कविताएँ ::
यतीश कुमार

यतीश कुमार

स्त्री

नन्ही परी का सिर सहलाता हूँ
वह मेरी हथेली
अपनी उँगलियों में लपेट लेती है

मुझे लगता,
ईश्वर ने मेरा हाथ थामा है

नि:शंक सोते देखता हूँ जब पत्नी को
तो पृथ्वी नीम नींद-सी शांत लगती है
जबकि पलकों में उसके
घर की सारी बलाएँ क़ैद रहती हैं

इस समय
ईश्वर नींद से गुज़र रहा होता है

जब माँ को सोते हुए देखता हूँ
तो लगता है
ईश्वर नींद में भी
सबके लिए उतना ही चिंतित है

जीवन में समस्त ऊर्जा-स्रोत
जिन-जिन स्त्रियों से मिलता रहा
उनकी जागती-सोती आँखों से
मैंने प्रार्थनाओं से भरा स्वर्ग देखा है

ईश्वर मिथक नहीं सच है
और आपके इर्द-गिर्द हाथ थामे
यक़ीन दिलाता है कि
ईश्वर कोई पुरुष नहीं होता।

दबाव और सृजन

पहाड़ बनते देखा है
या नदी बनते देखी है
जंगल उगते देखा है
या सितारे को नक्षत्र में जुड़ते देखा है

दुखों के पहाड़ भी
अनदेखे खड़े हो जाते हैं
भावना की नदी भी
बिन बताए अनचाहे बहती जाती है

तने का फैलाव
और लदे फल का झुकाव
तो सब देखते हैं
पर मिट्टी के दबाव में
बीज का अंकुरण
और जड़ का संतुलन
कोई नहीं देखता

पहाड़ को उजड़ते
नदी को सूखते-भटकते
उल्का पिंडों को गिरते
और भस्म होते सबने देखा है

सच तो है कि
सारी जीवंत उत्पत्ति
दबाव में आकर उभरती है

चाहे कोख में शिशु हो
या ज़मीन के नीचे पड़े बीज का अंकुरण

सृजन दबाव का विस्तार है
पर दबाव को कोई
महसूस करना नहीं चाहता।

किन्नर

साथ नहीं खा सकता भात
पर चावल के दाने
तुम पर ही फेंकता हूँ

नौ महीने के अविरल प्रेम का
मैं भी पैग़ाम था
ओलनाल कटने तक
मैं भी इंसान था

अब मैं इंसानों की श्रेणी से इतर
इंसानों को ही आशीषें बाँटता त्रिशंकु हूँ

सर्पमुखों के बीच सोता
अश्वमुखों का वंशज मंगलमुखी हूँ
ब्रह्मा की छाया से निकल
नीलकंठ के विष में घुल गया हूँ मैं

सुख मेरी दहलीज़ में
दाख़िल न हो सका
पर मैं तुम्हारे हर सुख में शामिल रहा

मौत मुक्ति है
और
मातम से है मुझे परहेज़

न तो कोई गाँव
न तो कोई शहर
मेरा समूह ही मेरा देश

किन्नौर से संसद का सफ़र
त्रेतायुग से कलयुग का था
समानता का हक़ मिलने पर भी
अवहेलना की नसें जुड़ी रह गईं

और अब भी मैं
समाज की बजाई हुई ताली में
एक चीख़ मात्र हूँ।

मैं सड़क हूँ

वे चल रहे हैं
संख्याओं के समीकरण तोड़ते हुए
और मैं चुपचाप उनकी धड़कनें सुन रहा हूँ

धड़कनों में इन दिनों
धौंकनियों का स्वर एकालाप है
अलाप अब महाप्रलाप है

वे चल रहे हैं
तो धरती चाँद को लिए
एक तरफ़ झुकती जा रही है

असंख्य पदचापों में
कुछ ध्वनियाँ तांडव-सी धमकती हैं
पर यहीं जन्मते शिशुओं की चाप
इन सबमें भारी है

उससे भी ज़्यादा भारी है
उन माताओं की छातियाँ
जो दूध की नदियाँ लिए
दौड़ती-भागती जा रही हैं

अन्नपूर्णा ढलान पर फिसल रही है
और सड़कों पर पूजा जारी है

सड़कें अवरोह से आरोह की तरफ़ मुखर हैं
पसीने का काढ़ा
तिल्ली में जमा पित्त है
गाढ़ा रक्त पसीने-सा तरल है

करुणा प्यासी है
नीर नदी बहा रही है
बहाव ख़ुद असमंजस में है

कथरी में दबा भविष्य
अपनी मुट्ठी भींचता है
आँखों से चिंगारियाँ नहीं
ललकारती चुनौतियाँ हैं

इन्हें देख
सूरज और जल रहा है
झंझा और बौखला रही है
वर्षा रह-रहकर तड़प उठती है
बिजली बस कौंधे जा रही है

पृथ्वी को पट्टियों-सा बाँधे देखता हूँ
अजन्मे बच्चे ने चलकर
अभी-अभी नापी है पूरी धरती।

माँ की सहेलियाँ

कंक्रीट के जंगल में
कई झुटपुटे एकांत हैं
उन झरोखों से झाँकती हैं
झुर्रीदार आँखें

कबूतरों के अस्थायी घोंसलों में
कहीं गुम हो गई हैं
माँ की प्यारी सखियाँ

कभी-कभी खोजने लगती हैं
पापा के साथ आने वाली
दोस्तों के चेहरे में उनको
या कभी मेरे दोस्तों की माँओं में

खोजने लगती हैं पास-पड़ोस की
मुँहबोली चाची, मामी, काकी में
गुम हो गई अपनी सहेलियों को
जो थी नादानियों के दिनों की
उनकी सबसे अच्छी दोस्त

माँ टकटकी लगाए
झुटपुटों से राह तकती
झुर्रियाँ का दायरा बढ़ाती
अंतहीन प्रतीक्षा में है

स्मृतियाँ ख़ुद को बस दुहराती हैं
याद आती है
बस, नहीं आती हैं तो माँ की सहेलियाँ।

मसला

रात हमेशा से
दो तारीख़ों का मसला है
जो दिन के उजाले में कभी नहीं होते

अक्सर यह भी सोचता हूँ
कि सारे मसलात
कमबख़्त रातों के साथ ही क्यों होते हैं!

एक बातूनी लड़की
अचानक गुपचुप बैठ जाए
तो मसला दिन में भी पैदा हो जाता है

आग कब की बुझ गई
राख देर तक सुलगती रही

मसला दरअस्ल एक चुनाव है
तिल-तिल जलने
और एकबारगी जल जाने के बीच

जबकि मन है
कि निरंतर जलता जा रहा है
पूरी तरह से बुझ जाने के सच को
ख़ारिज करता हुआ।

चाँद के अश्क मीठे

घास का नर्म ग़लीचा
घर के पीछे
और मन के पीछे तुम

सितारों की तरह टिमटिम
हरी दूब पर असंख्य मोती
दरअसल अपनी ही लिपि के अक्षर हैं
यहाँ समेटने का मतलब बिखरना होता है

मन की ज़मीन पर
मुलायम दूब उग आए हैं
ख़याल के क़दम लिए
उन दूबों पर चलता हूँ

सोचता हूँ तलवों से चिपकी
बूँदों का अब क्या करूँ?
और फिर घबराकर पाँव झट से
समंदर में भिगो आता हूँ

ख़ुश हो लेता हूँ
कि समंदर को
हल्का मीठा चखा दिया

मन के अंदर भी एक समंदर है
लहरें वहाँ भी उमड़ती है
हिचकोले लेती हैं
दिल पर पड़ती है

और फिर बाँध पसीजता है आँखों में
अब यही सोचता हूँ
चाँद के अश्क़ मीठे
और मेरे नमकीन क्यों?

सबसे प्यारी हँसी

जब तुम हँसती हो
तो तुम्हारी ठुड्डी
हौले-से छू लेता हूँ
हथेली में हरसिंगार भर आता है

जब तुम हँसती हो
तो तुम्हारे घुँघराले बालों से
हज़ारों जुगनुओं के झुंड उड़ते हैं
ज़िंदगी रौशनी से भर जाती है

जब तुम हँसती हो
तो मकई की बालियों से
मोती झाँकने लगते हैं

जब तुम हँसती हो
तो लगता है कि
सैकड़ों दाने कंसार में भूँजा बन
साथ-साथ फूट रहे हों

जब तुम हँसती हो
फुनगियाँ भी हवा के संग
डोलना भूल जाती हैं
पृथ्वी अपनी धुरी पर
घूमना भूल जाती है
चाँद चहलक़दमी नहीं करता
टकटकी लगाकर ताकता है

जब तुम हँसती हो तो
हजारों कंचे एक साथ
धरती का माथा चूमते हैं

और जब तुम हँसती हो तो
पिता का सीना समंदर हो जाता है
बनती हुई तस्वीर
मुकम्मल हो जाती है।

वही पुराना सच

खिड़की की धूप सीधे मेरे टेबल तक आती है
जिसकी बौछारों में
किताब की अख़बारी जिल्द
मटमैली हो रही है

उस पर अभी भी जो मुद्दा छपा दबा है
ग़ौर करने से दिख सकता है
समय के परे
जो बस बहे जा रहा है

आँखें वृत्त से चौकोर हो गईं
शब्दों की भीड़ से निकल
एक भीड़
सब कुछ लूटती निकल गई

तभी जिल्द से उछलकर
समाज पर कसी एक फ़ब्ती
मेरे हाथ आ गई

यह वही पुरानी ख़बर है
कि कल फिर कोई बस में
अकेले सफ़र पर थी

निर्गुण लोक में ज़्यादातर लोग
उपवास में रहते हैं
या नहीं तो अज्ञातवास में

शाश्वत यही है
कि जो संख्या में सबसे कम हैं
वही सबसे ताक़तवर हैं।

मेरी बच्ची!

जीवन पत्तियों की तरह है
आज हरी तो कल सूखी

वसंत में खिलखिलाई
पतझड़ में बहुत याद आई

इसीलिए
मेरी बच्ची!

लहलहाना ज़रूर
जब आँधियाँ चलें
तुम जड़ मत हो जाना
जड़ बन जाना
रहना ऋतुओं के असर से बेअसर
वसंत और बरखा को अपने भीतर बचाए
दुनिया को जीवंत और नम बनाने के लिए

मेरी बच्ची!
ख़ूब खेलना
खेलने के लिए खेलना
जीतने के लिए मत खेलना

पत्थर तो डूब जाते हैं
तुम तिनका बन तूफ़ानों में भी तैरना
बनना डूबते का सहारा

मेरी बच्ची!
चमकना तुम इतना
कि अँधेरे में भी कोई आँख
स्याह न रहने पाए

पसर जाना रौशनी की तरह
कि हाथों को थामने के लिए हाथ मिल जाए

जीवन-पथ पर बहुतायत शून्य
शक्ल बदल-बदलकर मिलेंगे
तुम सीखना…
छिद्र शून्य से बचना
और विच्छेद शून्य को गले लगाना

मेरी बच्ची!
तुम प्रकृति हो
देती हो मुझे बार-बार जीवन
करती हो मेरा पुनर्नवा।

इतना ही सीखता हूँ

इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम-तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ

इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूलभुलैया में
शाम ढलने तलक
घर की दिशा याद रख सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ अँग्रेज़ी
कि देशी अँग्रेज़ों के बीच
स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ

इतना ही पढ़ता हूँ तुझे ज़िंदगी
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ

उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही
जितना सच बचा है
मेरे अंतस में।

भूख

अशेष गंध की तलाश में
घूमती रहती है धरती
या इसी चक्र में घूमते हैं
इस पर रहने वाले लोग

मृगतृष्णा है यह गंध
या इनसानों में भी है कोई कस्तूरी

विचित्र अग्नि है
रूह झुलसती नहीं
बस, सुलगती रहती है

भूख करवट यूँ बदलती है
मानो जलती लकड़ी
आँच ठीक करने के लिए
सरकाई जा रही हो

उसी आँच पर रोटी पकेगी
सोचकर नींद नहीं आती
आँच आती है, बढ़ती है
बस कमबख़्त रोटी नहीं आती

आँखें बुझ जाती हैं
नींद डबडबाती है
देह सो जाती है
पर भूख अपलक जागती है

एक लंबी रूदाली है
जिसकी सिसकियाँ नहीं थमतीं
एकसुरा ताल है जिस पर
ताउम्र नाचता है जीवन

एक ठूँठ पेड़ है
तने का हरापन ज़िंदा है
लहू, जो हरे में बह रहा है
वह अजर-अमर भूख है

देह के बाहर
देश की भूख अलग होती है
और देश के अंदर
सियासत की अलग भूख

अनंत सीमाओं की भूख लिए
दूर अंतरिक्ष से दिखते हैं देश
ऊन के उलझे धागों जैसे
कोई एक भी सीधी रेखा नहीं दिखती
दरअस्ल, भूख इन दिनों ऑक्टोपसी हो गई है।

बस इतना हो

गोलाई खोती पहिए-सी ज़िंदगी में
सपने और चपटे होते जा रहे हैं

शेष बची प्रार्थनाएँ ही
इस पत्थर-समय की छेनी है
जिससे लिखा गया
बस इतना हो
कि ग़रीबों की हत्या का नाम
आत्महत्या न पड़ जाए

बस इतना हो—
‘समय पर दो बार कम से कम
बिजली आए न आए,
पानी ज़रूर आ जाए ‘

बस इतना हो
उम्मीद और उत्सुकता भरी आँखों में
चमक के पीछे उदासी की रहनवारी न हो

और बस इतना हो
कि सपनों को पाने के लिए
जुगनुओं को न बेचना पड़े
और कोई पंगत में
बिना पत्तल के बैठा न रह जाए।

चटकाती स्मृतियाँ

स्व और पर के बीच दौड़ती-दौड़ती
धरती से ज़्यादा सहनशील माँ
पसीने से सने आँचल से
आँखों की कोर पोंछती है

सैकड़ों तंग ग्रंथियों के संग
सूख चुके अश्रुग्रंथ लिए
ग़ुस्से में तिलमिलाए पिता
अपने गमछे को थोड़ा और कसते हैं

माँ को पता है
नहर होने से ज़्यादा ज़रूरी है
नहर में पानी का होना
और पिता जानते हैं
पहाड़ का सीना नहीं सिकुड़ता

हम बस हवा हैं
कभी माँ के पास,
कभी बाबा के पास
हमें उड़ना तो आता है
पर उनके दिल से गुम होना नहीं

यह भी सच ही है
कि अखंड बहती नदी को भी
झरना बनते ही टूटना होता है

आज दूर, बहुत दूर
गगनचुंबी इमारतों की बंद ठंडी हवा में
महसूसता हूँ दोनों का कराहना
आज स्मृतियाँ नसों को बहुत चटका रही हैं।

प्रेम में पेड़

कटे हुए ‘तनों’ से छलकता है पानी
छालों का दर्द समझता है पानी
पेड़ समझते हैं पानी का दर्द
और दर्द में मुस्कुराने के माने

पानी की पनाह है
पेड़ की घायल देह
जिसकी छाल के आग़ोश में
सुकून भर ठहरता है पानी

सोखती हुई जड़ें
जब टोहती हैं नमी
और चूमती हैं मिट्टी को
तब पानी बंद पलक पत्ती-पत्ती मुस्काता है

जड़ों को आस पसंद है
और पत्तियों को साँस
जबकि आस और साँस से परे
पेड़ को पसंद है बारिश

मोहती हुई नदी को
टुकुर-टुकुर देखते हैं पेड़
और चूमते हुए थोड़ा और झुकते चले जाते हैं
पानी थोड़ा और मीठा हो जाता है

पेड़ बनाते हैं पानी को और ख़ूबसूरत
दरअस्ल, हर पल पानी के प्रेम में होते हैं पेड़
और झूमते हुए बहती हवा से कहते हैं—
‘प्रेम में प्रतीक्षा का नाम बारिश है’

‘कि’-‘सान’

भाषा से पहले था वह
पर बालियों की भाषा भी बुनी उसी ने
और फिर लरज उठा
सपनों का गीत-संगीत

अलहदा रहा वह जो ओस से बुनता रहा सुबह
जबकि नमकीन ओस उसकी पीठ से उग
दहकते सीने का ईंधन बनाती रही
और यूँ हिम-बिंदु से नीचे उतरकर
प्रेम करना सीख लिया उसने

युग बीता और भूख का डंक
अपना दायरा बढ़ाता रहा

और वह है कि सपनों की चाह में
धरती के हर उस हिस्से को खोदता रहा
जिसमें बची रही जिजीविषा

आज शब्द की लुकाछिपी
कुछ ऐसी है
कि मैं लिखना चाहता हूँ प्रजातंत्र
और वह राजतंत्र में बदल जाता है

अब देखता हूँ जहाँ लिखा है किसान
वहाँ मज़दूर उभरने लगते हैं

आज भी वही युगों पुरानी कुल्हाड़ी
अपनी सान तेज़ कर रही है
और विडंबना यह है
अधकटा ‘कि’ प्रश्नचिह्न बरगद से लटक रहा है

ज़मीन पर छटपटाता है
सत्य के साथ ब्रह्मराक्षस
और भोथराया थका ‘सान’ देख
समय मुस्कुरा रहा है।

ऊँघता शहर

ऊँघते शहर में
गाँव के सपने
अक्सर उड़ जाते हैं
रह जातीं हैं सिर्फ़ बैरन आँखें

दूर से न दिखने वाला शहर
अस्ल में विरह की अधूरी कहानी है
नयनों से निकले मेघदूत वहाँ पहुँच नहीं पाते
गाँव के सीमांत तक जाते-जाते बरस पड़ते हैं

मन के ग़ुब्बारे उड़ते हैं
अंतस की ज़मीन डोर पकड़े ताकती है
देखते-देखते ग़ुब्बारे गुम हो जाते हैं
हाथ में टूटी हुई डोर रह जाती है

नगर की तलाश है सबको
पर गाँव बार-बार
कंधे पर हाथ रख देता है
और हम थोड़ा उसकी ओर हो लेते हैं

वर्तमान की सुध नहीं
इतिहास याद नहीं
भविष्य देख नहीं सकते
और समय है कि
क्षण-क्षण करके रीतता जा रहा है

खंडहरों पर बने मकान
अपनी कहानी नहीं कह पाते
जबकि समय न राजनीतिक है, न धार्मिक
वह अपनी ही कहानी कहता जा रहा है

कहानियों में आपबीती ढूँढ़ते-ढूँढ़ते
हम जगबीती के रास्ते निकल जाते हैं
और बन जाते हैं एक अधूरा बना मकान
जिसमें न रहा जाता है, न ही बेचा।

प्रेम में हम-तुम

मेरी छोटी-सी दुनिया में
तुम्हारे पाँव पड़ते ही
स्वर्ग बलाएँ लेता है
चाँद टकटकी लगाकर ताकता है

तुम्हारे आते ही मन के पोखर में
कुम्हलाए कमल खिल उठते हैं
उजास यूँ फैलता हैं
कि तारीक साये लरजकर छुप जाएँ

तुम्हारी हथेली इतनी बड़ी है
कि अक्सर समय को ढक देती है
और जब भी मैं मुठ्ठी बंद करता हूँ
तो तुम गुदगुदा देती हो

अरबी खजूर-सी मिठास
और शहद-सा ठहराव लिए
कृष्णपक्ष का हँसिया-सा चाँद
मेरी पीठ पर टहलता है

हम नदी की दो धाराओं की तरह मिलेंगे
हम चाँद बन समंदर में डूबेंगे
हम गोंद बन छाल की नमी में गुम रहेंगे
हम पराग बन फूलों को बोसे देंगे

और यूँ हर बार उगेंगे
प्रेम में पेड़ की पत्तियों की तरह।

सिकुड़ना

आखों में शोले हैं
और मन में संगीत
आग को इतने सुर में
पहले कभी नहीं देखा

चकरघिन्नी तालों की भाषा
कभी समझ नहीं आयी
मैंने उसकी सेटिंग हमेशा
ज़ीरो-ज़ीरो ही रखी

मेरी हथेली बड़ी
उसकी छोटी
दोनों हथेलियाँ ज़्यादा देर
साथ नहीं रह पाती

अपनी हथेली मुट्ठी में बदल
उसकी तलहत्ती में छिपा दी
अब दोनों एक हैं
सिकुड़ना प्रेम का सबसे सुंदर विस्तार है।

तुम तक

सुख है तुमको देखना
और, दुख है नज़र का एक कोण बन जाना…

दुःख अगर टोकरी भर जाड़ा है
तो सुख हमारे साथ से उपजी
बोरसी भर आग!

समंदर के झाग-सा है दुःख
जबकि सुख है उसी की लहरों का
हर बार लौट आना

दुःख है, नहीं पाना
चित्त का उखड़ जाना
सुख है कच्ची हल्दी-सा उखड़कर भी
हर बार उग आना, लेप बन जाना

दुःख है दूध की तरह उफन जाना
और सुख है, तब भी तुम्हारा हर बार मुस्कुराना

बैगाटेला की गोली हूँ मैं
और कीलों वाली आख़िरी सुराख़ तुम

दुःख है बारहा टकराना
जबकि सुख है बावजूद इसके
हर बार तुम तक पहुँच पाना।


यतीश कुमार (जन्म : 1976) सुपरिचित कवि-लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं। उन्होंने कविता और कहानी के साथ-साथ चर्चित उपन्यासों, कहानियों व यात्रा-वृत्तांतों पर अपनी विशिष्ट शैली में कविताई से एक अलग पहचान बनाई है। वर्ष 2021 में उनका पहला कविता-संग्रह ‘अंतस की खुरचन’ और 2023 में दूसरा कविता-संग्रह ‘आविर्भाव’ (हिंदी साहित्य की 11 प्रसिद्ध कृतियों पर कविताई) प्रकाशित हुआ है जिसे पाठकों, समीक्षकों और साहित्य-प्रेमियों का भरपूर स्नेह मिल रहा है। उनसे khudrangyatish@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. Hans Raj जुलाई 14, 2023 at 1:17 अपराह्न

    प्रिय कवि की पसंदीदा रचनाएं एक जगह उपलब्ध करवाने के लिए सदानीरा का आत्मीय आभार।

    Reply

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