लंबी कविता ::
उपांशु
जो अब देखना भूल चुके हैं
शहर की वे गलियाँ जो टूटी हुई ईंटों से रँगी गईं, घिरी हैं आसरों से जिन्हें मकानों के तर्ज़ पर गीली मिट्टी में तिनके और प्लास्टिक घोल कर, दीवारों पर गोइठे ठोंक कर और फ़र्श पर गोबर नीप कर घर बनाया गया।
जहाँ सोती है हर सर्द रात स्वप्न देखने वालों के केशों में नदी धूप निकलते ही ओस की बूँदों-सी सूख जाने वाली।
जहाँ मिलेंगी इमारतें अब भी साँस लेने वाले उन बाशिंदों की तरह जिनका साँस लेना भुलाए जाने का कारण बनता है। उन्हीं गलियों, इमारतों और बाशिंदों के लिए जो दिखते हुए भी देखे नहीं जाते…
पहली गली
वाक़िफ़ हैं मकानों पर कौए
जो अँधेरे के क्षणों को छतों पर बैठे गिनते हैं हर शाम
गोधूलि की बेला से, आसमान जब धुल रहा होता है मरणशील लालिमा में
जैसे धरती पर ओढ़ाई गई श्वेत सिमेंट की चादर पर सूखता हो
लहू-सा
महीनों पहले लापरवाही में थूका गया
पान, कि सड़कें जो दमकती हैं प्रदूषित बर्फ़ की भाँति दम तोड़ देने वाली
जाड़ों की ऊष्म सुबहों को, नहीं हो सकतीं दो पैरों पर फुदकने के लिए
अगर गाड़ियों से कुचला जाना मुनासिब न लगे तो।
भला हो इन मकानों का जो सड़कों पर और उससे भी ज़्यादा एक दूसरे पर अपना जिस्म अड़ा चुके थे जब दीवारें केवल रेखाएँ थीं और सड़कें बग़ैर चादरों के ठंड में सिकुड़ जाया करती थीं।
बहरहाल, सड़कों को चादर ठंड से बचाने के लिए नहीं बल्कि गाड़ियों की आसान आवाजाही के लिए ओढ़ाई जाती है, इस बात से कौए ऊँची जगहों पर आसरा खोज लेने के बाद भी हैं वाक़िफ़।
एक बाशिंदा
पान दुकान के चबूतरे पर राख सिगरेट की इकट्ठा हो ही जाती है
जैसे पत्तों पर धूल वक़्त की
और ज़ेहन में इच्छाएँ अपूर्ण ही
रास्ते
एक से ज़्यादा
हर तरफ़
लौट आने के, बिछड़ जाने के,
भाग आने के, खो जाने के;
आने के, जाने के।
अनजान बन खो जाना संभव नहीं
लौट आने के
बिछड़ जाने के
हर तरफ़
एक से ज़्यादा
रास्ते।
हर शुरुआत का अंत अंत ही तो है
मंज़िल हर रास्ते की मंज़िल ही तो है
कई बार अंत के ज़ोर में
मंज़िल की होड़ में
रह जाती हैं इच्छाएँ
जिन्हें सिगरेट के पहले कश में सुलगाया गया
धूल झाड़ कर आम की पत्तियों-सा
हर अप्रैल चबाया गया
अपूर्ण!
त्रासदी।
दूसरी गली
धूप की आख़िरी किरण सड़कों पर भुलाए जाने के बाद
खिड़कियों पर कहकहे की पुकारों से विचलित हो जाने के बाद
रात के मुंतज़िर, नींद को व्याकुल
उनींदी आँखें पोंछ भाग लेते हैं
आदत है बाशिंदों की
घेर रखने की ख़ुद को चहारदीवारी से
रिवाज या तलब कहें कि रिवाज और तलब
हर कुछ बंद कर सहेज रखा है
तोते भी! फिर तो स्वाभाविक है निकल लेना भ्रमण पर
लालिमा फीकी पड़ते ही, स्याह की आसमान पर बुलंदी देखते ही
कहीं तो चहारदीवारियों के फैले अथाह से परे गगन हो
अंधकार में सराबोर बग़ैर टिमटिमाते तारों और चमकते चाँद के
एक विशाल ख़ालीपन
जो खो जाने की इच्छा इतनी प्रबल कर दे
कि
लौट आना ही भयावह लगे।
इमारत एक
टहलने का पूरा प्रकरण भ्रमित होने का है।
सत्य जो कुछ भी है
आने-जाने तक ही सीमित है।
इमारतों से दबी ज़मीन और घिरा आसमान दम घोंटते हैं
सबसे ज़्यादा इमारतों की
अँधेरे में जिनकी दीवारें अँधेरा हो जाना चाहती हैं।
ऐसे में टहल आना
कहीं से भी
दीवालों के बीच, धूल जिनके माथे शिकन पड़ने नहीं देती
या जाना कहीं दूर
दीवालों से, धूल ही जहाँ सड़क हो
एक जैसी पीड़ा से भर देते हैं मन को।
तत्पश्चात् एक जैसे भ्रम से भी
कि कुछ किया जाना चाहिए
भ्रमित होने का सत्य तो केवल
भ्रमणार्थ भ्रमित होने तक ही सीमित है।
एक और बाशिंदा
कुछ कुछ, गुलाब की पंखुरियों-सा होता है जाड़े का मौसम!
एक सर्द सुबह ऐसी—
जब सब्ज़ ओस
पत्तियों पर ओझल;
बढ़े जा रहे थे (अ)पथिक कई (बे-मंज़िल)
लकीरों की लीक में आकृतियों का भेस धर।
मकानें, दुकानें और चाय के अड्डे
तिरपाल ओढ़े आम रास्तों की रखवाली पर बैठे
घुर्रे की आग और कँपकँपाती हथेलियों का आसरा
बे-लगाम ज़बानों और मुहर्रिक तलवों के आक्रोश से मुस्तफ़ीद।
नज़रों की आवारगी के लिए धीपती सुबहों में आश्कारा
तमाशें ये रह जातें हैं बे-दीद!
कुहासे में
धुआँ हो चुकी अफ़्शाँ की गंध
कुड़कड़ाए जिस्म और सिहरी त्वचा का अज़ाब!
लिपटती हैं तिरपालों पर रँगे इश्तिहारों से धुँध
इमारतों पर मुस्तैद गोया, हों इस विराट नगर की आबरू
ऊँची-ऊँची सड़कों से काँटें नहीं केवल पंखुरियों की लाली दिखे
कि धुँध जो इश्तिहारों पर हो जाए अफ़्शाँ दिखे इत्र-सी
(धुँए में तो और भी)
कि बिक जाए जाड़ा एक और
और आशूफ़ता, पंखुरियाँ जुटाने में खीझ जाएँ वस्ल के ख़याल से ही!
तीसरी गली
बिखरी इंक कोरे काग़ज़ पर
पगडंडियों-सी
रेखाएँ नहीं इस दफ़े
उकेरने वाली नोक टूट चुकी है
तो दिशाहीन बहती चली गयी स्याही और आकार की क़वायद में छेदा गया काग़ज़ को, मोड़ा गया बेतरतीब
और फूटती रहीं धाराएँ
और मुकर्रर हुईं धरा पर रिहायश की उम्मीदें
बीज जब बोया जाता है पहली बार
अंकुरित होने तक धैर्य रखता है बाग़बान
पौध बन जाने के बाद भी सींचता है
फलदार दरख़्त की ख़्वाहिश में
इसके बाद बीज बोये नहीं जाते
उन्हें स्वयं ख़ुशामद करनी पड़ती है
अंकुरित हो जाने तक और पौध बन जाने के बाद भी
कि अवांछित मान उखाड़ न दे बाग़बान
रिहायश के साथ मसला क्या है कि जो दीवारें
धूप में पकती हैं वे आसरे से अधिक कुछ हो नहीं सकतीं
और भट्ठी की आँच में झुलसी रास्ते पर पलड़ भी जाएँ तब भी
घर ही होती हैं
बाग़बान केवल वही पौधे हटाता है
जिन्हें उखाड़ फेंकने से शिकायत न हो,
निश्चित ही जो आँखों में किरकिरी-सा चुभे
प्रकृति की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए!
इमारतें
ये वक़्त धुएँ को कुहासा कहने का है
इसलिए मकानों के झुरमुटों को, आसरों के कुकुरमुत्तों को,
कंकड़ों और पत्थरों से शक्ल दी गई मध्यवर्गीय रोब को
इमारत कह देना कि जैसे कोई ऐतिहासिक धरोहर हो लाज़मी है।
पूछना कि धुएँ को धुआँ कहने में बुराई क्या है, आपको अकेला कर सकता है—बहुत, बहुत अकेला!
हालाँकि अकेलापन आदतन अग्रसर है एकांत की ओर; ईमानदारी ग़रीबी और देशभक्ति भुखमरी। ज़ाहिर है कि मृगतृष्णा हैं ये सभी आम आदमी जिसमें ख़ुद का दैवीकरण करता है और जो अलौकिक हैं सचमुच आँखों में आँखें डाल पूरी ईमानदारी के साथ छल लेते हैं।
आम देव और देव आम हो जाते हैं!
देवभूमि भारतवर्ष!
संस्कृति जहाँ की खंडहर हो जाने पर
तस्वीरों में उतार ली गई
गृहशोभा बढ़ाने के लिए
ये तस्वीरें लगाई गईं, हर नए गोबरछत्ते पर,
घिस जाने के बाद भी रेखाएँ उकेरने मर्यादा की
ताकि प्रश्न वैसे ही पूछे जाएँ
जिनका उत्तर उत्तम होने का प्रमाण-पत्र हो,
पर्यटकों के लिए खंडहरों में नई ईंटें जोड़ी गईं
पुरानी ढही ईंटों के चूरन से बनी हुई
जैसे मध्यवर्गीय रोब को बचाने के लिए पाकशालाओं को ढका जाता है परदों से ताकि अपनी अलौकिकता के भौतिक प्रमाण बचे रहें
बाक़ी सब कुछ बेतुका है,
सवाल ग़ैरज़रूरी, जवाब अनचाहे
सिवाय झुरमुट की सबसे लंबी डाल
अपने हाथ में होने के
फिर क्या मजाल
कि अप्रैल की चिलचिलाती दुपहर में धुआँ उठे
और कुहरा क़रार न दिया जाए। वह अलग बात हुई कि
धुएँ के जानकार भी घुर्रे में हाथ सेंकने की ख़ातिर ही
कुहरे का झूठ झुठलाते हैं
जैसे किसी एक घर की बदक़िस्मती पर
पूरा मुहल्ला साथ बैठ कर मिठाई तोड़ता है।
बाशिंदे
दरख़्त एक ग़ैर आहाते की दीवार पर बहाता भोर के अश्रु,
घास मिट्टी की टीलों पर आँसू पी लहलहाती हरी,
पंछियों की चहचहाहट में लहू की भीनी पुकार,
चहुँ दिशा फैलता सुर्ख़ सैलाब,
और धरती की पिपासा के लिए बूँद एक भी नहीं
ईंटें, कुछ टूटीं और कुछ टूट रहीं, बिखरीं
रास्ता है कच्ची दीवारों से घिरी किसी सरकारी दीवार पर ख़त्म
घर जहाँ लोग रहते हैं ज़रूर
लोक को जिनके घर होने की लेकिन कोई आशंका नहीं
ऊँघना।
आँखों से की गई नींद की मुहब्बत का सबूत साफ़ करना।
जल। कुल्ला। जल। ईंटों की धूल गले में ख़राश न बने।
दीवार। गोइठा। चाय। पार्क में टहलते लोगों की तलब। ख़ुद की तलब। धूँ-धूँ-धुआँ। फू-फू-फूँकें हा! लंबी साँसें, इंतिज़ार और लपटें!
एक कप चाय। दो चाय। चाची चार दीहों।
मरद-आन्हर-अधीर।
पतीले में उफनते दूध को देखना
एक ही अख़बार के नए पन्ने हर सुबह पलटना
बासी बहस से रात भर शिथिल नसों को गर्म करना
उसने कल रात सोने का हर संभव प्रयास किया था। नींद आई भी, लेकिन सो न पाई। जब तक वक़्त मिला माते को टहलना था, रोज़ की ही तरह। भीनी ख़ुशबू, चायपत्ती अभी-अभी डली है उफनते दूध में। सख़्त ज़रूरत महसूस हुई चाय की उस वक़्त जैसे पौ फटने से ढाई घंटे पहले आइसक्रीम की हुई थी। वापस जाते ही पहली चीज़ चाय।
मुहल्ले की चाय दुकानों पर औरतें राजनीति पर ख़ून नहीं खौलातीं।
लड़कियाँ खुले आसमान के नीचे सिगरेट नहीं पीतीं।
बुरी आदतें केवल आदमी ही पाल सकते हैं
और अगर छिपाना सीख जाएँ तो अच्छे घर के लड़के भी।
चबूतरे पर शॉल ओढ़कर बैठी बुढ़िया बीड़ी का कश भरती है फेफड़ों में। उसकी पीठ चौक-चौराहों पर बनाई गई गाँधी की दो हज़ार एक मूर्तियों में से एक पर अड़ी है। पूँजीवाद ने हमारी औरतों को सड़क पर ला दिया है। बधाई हो! अब उन्हें नौकरियाँ भी लाकर दो तो लोहा माने।
एक टुकड़ा ईंट का झुलसा हुआ ओस से गीला, अतृप्त
टाँगों से दुत्कारा जाता है लौटने के क़वायद में ढेर ख़ुशामद
किए जाने के बाद भी जो उठती नहीं।
दिन मलिन और लहू की एक भी बूँद गगन पर नहीं
एक और तारीख़ जो मुहल्ले के सभी लोक
(कच्ची-पक्की दीवारों या अदृश्य चहारदीवारियों में बँटे हुए)
सहयोग से असहयोग से, रोते हुए गाते हुए, थक कर, हँस कर,
किसी न किसी हिसाब या जुगाड़ से सधा ही लेंगे।
आख़िरी इमारत
चाह कर भी सब कुछ देखा नहीं जा सकता।
देख लेने के बाद भी नहीं।
निगाहें हर वक़्त मक़ाम अगर ढूँढ़ती रहीं तो टाँगें निश्चित ही
ठोकर मार फेकेंगी रास्तों के कंकड़।
पौध कभी एक ही दिन सारे फूल देकर सूखती नहीं
गिलहरियाँ अपने भर ही इकट्ठा करती हैं
बुरे वक़्त के लिए भी
अधीर हाथ अक्सर खौलते पानी से नहीं बल्कि भाप से जलते हैं
कुछ न कुछ रह जाता है अपने हिस्से का न चाहते हुए भी पीछे
और कुछ जो नहीं होता है अपने लिए ज़्यादा कचोटता है
अनावश्यक आकांक्षाओं से बनाया जाता है चिंता का क़िला
जिस पर दूरबीन होने की वजह से अपनी परछाई दिखती ही नहीं
एक कहानी है नदी की
किनारों की, रास्तों की और मक़ामों की
अंधेरे में
मुसाफ़िर कई अलग-अलग राहों से भटक कर एक होते हैं
दूर क्षितिज पर काले आसमान का बोझ उठाए झिलमिलाती रोशनी
अब भी उतनी ही दूर है जितनी यात्रा के प्रारंभ में थी
मुसाफ़िर मुस्तक़िल चलते चले अँधेरे से दूर होने
पूरे संसार के स्याह हो जाने पर भी
इंसानियत का सबक कि सब एक जैसा नहीं देखते
सीखना सबसे कठिन है
लक्ष्य एक हो भी तो
दृष्टि भिन्न हो ही जाती है
रोशनी नदी पर कलकल बहती रही
और होते रहे मुहर्रिर मुसाफ़िर मुख़्तलिफ़ राह से
और बुनता रहा क़िस्सागो सवालों के जाल
आदि से अनंत तक
क्योंकि सवालों के जवाब सवाल ही होते हैं
और अधीर होना तो अपनी फ़ितरत ही है इसलिए
सवाल पूछना किसी खंडहर के रख-रखाव जैसा हो गया है
क़िस्सागो विलुप्त है,
उसके अवशेष धरती भी निगल न पाई
कि बाद में भी कभी खोद निकाला जाए।
***
उपांशु बहुत सीमित प्रकाशन और प्रदर्शन के बावजूद बहुत तैयार कवि प्रतीत होते हैं। उनकी कविताएँ बहुत संयम से अपना समय रच रही हैं। उन्होंने इस क़दर एक मुश्किल राह ले ली है कि जो उनसे और ज़्यादा संयम की माँग करती जाएगी। उनके संक्षिप्त परिचय और इससे पूर्व-प्रकाशित कविताओं के लिए यहाँ देखें :
थमकी थमकी सी भावनाओं में कविता की खिलती हुई संभावनाएं अपना एहसास कराती हैं।
मेरी शुभकामनाएँ।