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उपांशु

Upanshu hindi poet
उपांशु

वह सब जो छूट गया

एक

बंद आंखों के दृश्य
खिड़की से छिटक रही किरण की त्वचा पर
स्पंदन में सारे आंसू गंवा चुकी लौ पर तिलमिलाती अग्नि के अवश हो जाने से
धुंधलाती आकृतियों की तरह ओझल होते हैं जब
छूट चुकी गली के क्षितिज पर पहरा देने वाला पहाड़
रात का आवरण त्याग चर्म पर सुर्ख झंझावात से सराबोर आसरा बनता है
रौंओं की हरियाली में छनकर
सुनहले होते बहाव का किनारा जो उकेरती है बंद आंखों में
शीशे के गिलास में भरी जा रही फीकी चाय से घुलकर
रोशनी क्षीण कर देती है शहर के दृश्य
जो पगडंडियों से भयाक्रांत कोना एक ढूंढ़ते हैं
छूटते रंगों वाले कमरे में बिस्तर की छांव का
जहां सुरक्षित है पायों की निगरानी में संदूक
संजोया है जिसमें पुराने शहर को
बंद आंखों से देखने के लिए

दो

यद्यपि पुराना शहर पुराने घर की तरह होता है
जिसे छोड़कर जाने के बाद लौटना किसी अजनबी के यहां तफरीह करने जैसा है
जो लोग मिलते हैं मेजबान
कागज के कटे, कूटों पर उकेरे गए, अजनबी चाय के प्याले गलत रखे गए मेज पर
सपनों का हिस्सा नहीं होते जिनमें फर्श और दीवारें दरवाजा बंद होने के बाद
और खिड़की खुली हुई हो तब भी
फेरे हुए कपड़ों की गंध लिए शहर ही हो जाते हैं
जो बुने हुए रेशों से जिस्म पर और फिर पूरे कमरे में
लौट आने पर साथ सोता है

तीन

रास्तों के मकड़जाल पर पर्यटनशील कोना तलाशती आंखें
कैद होती हैं सब्ज मैदान पर बिछी सुनहली चादर से
जो पौ फटते ही बह आती है पिघलकर दूर टंगे एक पहाड़ से
जिसकी त्वचा तीव्र प्रकाश के रक्स में स्याह तेज से झिलमिलाती है
आंखें निराकार परछाइयां बंद होने पर ही देख पाती हैं
क्योंकि सदी के छूट जाने के बाद आकृतियां बगैर परछाई के तराशी जाती हैं
ढके हुए संसार में अमूमन दूसरा कोई नहीं रहता
जहां सिवाय आंखों के पर्यटनशील होने की मृगतृष्णा के
जो लौटने के वायदे पूरे न किये जाने पर डेरा जमा लेती हैं रातों में–
कमरे की वास्तविकता से खिन्न

चार

दूसरे की नजर से अपना शहर देखना दूसरे के नजरिए पर गौर करना है

यह जरूर है कि हर जिस्म पर शहर की एक जैसी बू छूटती है
लेकिन लौटने के बाद रातों को कमरे में सो रहा शहर
एक नहीं होता

अपने पुराने घर में किसी और के डेरे का सबूत है दीवारों की रंगत से हुई छेड़खानी
फिर भी फर्श पर किसी अनदेखे कोने में
जो फिलहाल अलमारी या किसी मेज का आसरा होने की वजह से वैसी है
पुराने दीवारों की गवाही देती है

शहर के लिए एक और कविता

जब दुपहर की धूप आंखों पर अंधेरे का पर्दा खींचने आती है
जब उसकी ऊष्म किरणें पसीने से सनी मेरे देह को
बारिश की बूंदों में हाफ–बॉईल करती है–
मै उस वक्त खुद को तुम्हारे बहुत करीब महसूस करता हूं

मैं वही इंसान हूं जो तुम्हारी सड़कों पर पत्थरों से फुटबॉल खेलता है
रेत पर लेटी हुई कुतिया को हांफता देख
उसके लिए एक बिस्कुट
और खुद के लिए एक सिगरेट खरीदता है
कश भरता है और बिस्कुट उसकी तरफ फेंक कर निकल जाता है

वह फेफड़ों में धुआं भरता है और हर कश में खुद से सिगरेट छोड़ने का वादा करता है
चार सिगरेट बाद
वह सड़कों पर सूखते गोबर में अपने इतिहास की कल्पना करता है
आगे से एक मोटरसाइकिल जिसे अपने धूमकेतु न होने की कुंठा उत्पीड़ित कर रही है
धूमकेतुओं-सी पृथ्वी से लिपट जाती है
धमाका एक हजार चीटियों के को-ऑर्डिनेटेड तांडव जितना

वह जो धूमकेतु का आहार बनते-बनते रह गया
गोबर को खटाल से जोड़ता है
खटाल को गायों से
गायों को दूध से–
मां ने वापस आते वक्त एक पैकेट दूध लाने कहा था

इतिहास गोबर से शुरू हो दूध के पैकेट पर रुक जाता है

दूध लेना संसार का सबसे जरूरी दायित्व है—
चलो एक और सुट्टे का बहाना मिल गया

दायित्व से मुझे सुट्टे का धुआं कलेजे पर पत्थर के टुकड़ों जितना भारी लगता है
सिगरेट फेंक नहीं सकता
कमबख्त, तुम्हारे आशिकों ने इस बेचारी के साथ भी टैक्स वाला खेल शुरू कर दिया है

हम सबकी पीठ पर मुझे चट्टानें लदी दीखती हैं
सोचता हूं अगर सिसीफस मेरी तरह रूहों की दुनिया देख पाता
तो ज्यूस की पीठ पर उसे कितनी लाशें दिखती?
कहो तो तुम्हारे आशिकों से पूछ कर देखूं
खैर, जैसे तेल पकने के बाद सब्जी अपना रस छोडती है
उस दुपहरी पसीना वैसे ही छूट रहा था

बाजारों को काटती सड़कें
गिट्टियों और गड्ढों से बना अलकतरे का रास्ता
साढ़े चार सौ मीटर की ऊंचाई से तुम्हारी सूख चुकी नसों का मानचित्र है
लेकिन उस पर खड़े इंसान के लिए
उसनता
तपता
सीझता
कड़ाही
तवा
प्रेशर कुकर है और खूबसूरती सडकों पर फैला कचरा है
इन बाजारों का और जो सडकों पर हैं खाली कब्रों में सड़ रहे गड्ढे
कुचले जाने को आतुर कौतुक कंकालों की तरह झांकती गिट्टियां
उन पर उछलते चक्के, लड़खड़ाती टांगें और साढ़े चार सौ मीटर ऊंचे
अपने सिंहासन पर अट्टहास करता शोर—
कयामत के दिन की एक झलक

स्वान्तः सुखाय

कीमत लगायी जाए तो उन शब्दों को किस दाम पर बेचा जाएगा
जो डायरी में नहीं देख पाती हैं आंखें—
दिन भर ताजा सुर्खियों से चौंधिया कर रातों को पन्ने पलटने के बाद
आखिर पढ़ेगा कौन
अगर कलम से निकला हुआ हर अक्षर केवल सुबह की उफनती चाय
दोपहर में सीझ रही दाल
और रातों को कड़ाही में पानी छोड़ती सब्जियों की पुकारों को ही आवाज दे

ऐसे प्रश्न यह समझ लेने के बाद भी कि अखबारों के पन्नों में खो जाने से बेहतर है
फोटो एल्बम की तस्वीर हो जाना
या डायरी में गुदे हुए चंद अक्षर
अपनों के लिए या सिर्फ अपने लिए ही कचोटते हैं—
बिस्तर पर पलट जाने के बाद

एक और दिन
वही चौका
वही चूल्हा
पाषाण
और
कविता पर कविता लिखने वाले कविता पर कविता लिखते रहे

***

उपांशु ने पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया है. उनकी रचनाएं इधर कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन-माध्यमों पर देखी गई हैं. उनसे m.upanshu@gmail.com पर बात की जा सकती हैं.

2 Comments

  1. कुमार मुकुल अप्रैल 14, 2018 at 8:57 पूर्वाह्न

    कविताओं इतनी निजी हैं कि सार्वजनिक के लिए जगह नहीं बचती, पाठक के पल्‍ले पहले पाठ में पंक्तियां पड़ती हैं, कविता नहीं पडती । यह मेरी सीमा हो सकती है।

    Reply

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