कविता ::
रवि प्रकाश
नागरिक-परिक्रमा
इस महाद्वीप पर मेरे पास,
सिर्फ़ एक मतदाता पहचान है।
हालाँकि मैंने आज तक कभी मतदान नहीं किया।
दरअसल, मुझे जीने के लिए इतनी कम चीज़ों की आवश्यकता थी कि
उसके लिए मतदान करने के बजाय
मैं इस दुनिया को जला देना चाहता था
और मतदान केंद्र पर चीख़ते हुए यह कहना चाहता था कि
आदमख़ोरो! तुम बिना मतदान के क्या यह भी नहीं दे सकते?
यों मैं लौट आता था
और वापस लौटते हुए जब ख़ुद को देखता था
तब इस देश के मानचित्र के बीच कोई देवी नहीं,
क्षत-विक्षत मेरा शरीर लिथड़ा और ऐंठा पड़ा नज़र आता था—
चेहरे पर इतने घाव कि
लहू अश्वघोष के पन्नों पर बह रहा है
और मध्यदेश से उठती हुई आग में
मेरे मष्तिष्क के पन्ने झुलस रहे हैं।
पुस्तकालयों में मेरा काव्य जल रहा है
और आँखें इतनी शिथिल कि
किसी लुप्त भाषा का अभिलेख हों जैसे!
मेरी भुजाएँ मोहनजोदड़ो के स्तंभों पर टिकी हुईं
और फैली हथेली
बंगाल की खाड़ी पर पसरा हुआ प्रपात
जिसके पोरों से इस देश की पीड़ा महासागर में घुलती जा रही है।
मेरे हृदय को नक्सली बताकर
कलकत्ता की सड़कों पर रौंदा गया
जिसका लहू आज तक जंगलों में रिसता है
मेरी पसलियों के भीतर यूनान से उत्तर पूर्वी हिमालय तक
एक विशाल गोचारण था
जो अब चरवाहों की क़त्लगाह है और गऊवें आवारा।
मेरी धमनियों में चरवाहों का लहू लिए गंगा थी
जिसके किनारे पर हम खिले थे
और आँखों में सरयू जिसमें गिरे गुम्बद का तिनका,
मेरे सीने पर पत्थर की तरह भारी है।
मेरी अंतड़ियों में बसी भूख की बेचैनी
ऐंठकर पेड़ों पर झूल रही है।
पाँव शिथिल, शरीर कपास की तरह हल्का
हिंद महासागर के ऊपर झूल रहा है।
फटकर चिथड़ा हो चुके मेरे वस्त्र को
बनारस के एक जुलाहे ने बड़ी शिद्दत से बुना था
वह न हिंदू था, न मुसलमान!
जबकि मैं नाथों-सा हठी था, सूफ़ियों-सा हसीन
आजीवकों-सा बेफ़िक्र था, सिद्धों-सा ‘पतित’
वहीं, वहीं कुशीनगर से त्रासद करुणा लिए
चला था मैं! एक बेचैन-सी परिक्रमा करता
दुनिया भर के बच्चों को माचू-पिच्चू पुकारते हुए
उनकी क़ब्रों तक जाना चाहता था।
मैं फूल सिपाहियों को हरगिज़ नहीं दूँगा,
उस पर हक़ उन बच्चों का है
जिनकी नागरिकता रद्द कर
उन्हें गोली मार दी गई—
उनके अपने ही देश में।
मैं प्रेम में मीर की तरह रोया,
और मजाज़ की तरह पागल रहा,
ग़ालिब-सा बेदिन पड़ा रहा एक गुफा के भीतर,
जैसे पृथ्वी शमशान की राख से ढँकी जा रही हो,
मुझे नुसरत ने बताया कि कितना मज़बूत है अक़ीदा मेरा।
मैं अपनी कला लिए पण्य या प्रणय के लिए कभी उज्जैन नहीं गया।
पुस्तकों तक मैं जेने की तरह गया,
जहाँ हर पुस्तक खुलने से पहले
एक रोचक वाक़या थी।
मेरे लोगो,
मैं लोर्का की तरह मरना चाहता हूँ—
नाज़ियों की आँखों में आँखें डाल;
अन्यथा वॉन की तरह
कलात्मक अनुभूति के किसी गहनतम क्षण में…
बताओ मेरे लोगो,
तुम्हीं बताओ
मेरी पहचान क्या है?
मेरा धर्म क्या है?
जाति क्या?
कहाँ का नागरिक हूँ मैं?
और शासको!
तुम्हें तो मैंने अपना मत भी नहीं दिया
यह अधिकार तो देने से रहा कि
तुम मेरी नागरिकता तय करो।
रवि प्रकाश हिंदी कवि-लेखक हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हुई है। वह फ़िलहाल लखनऊ में रह रहे हैं। उनसे toprakashravi@gmail.com पर बात की जा सकती है।