अनुराधा पाटिल की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

अनुराधा पाटिल

हमारे पास न थी

नहीं थी हमारे पास कोई लिपि
न थी भाषा भी
नहीं था कोई उच्चारण हमारी ज़ुबान पर
दूसरों के लिए
और अभी भी हमारे भोजपत्र पर
फैला हुआ है अँधेरा
नसीब की ही तरह घना-काला

जहाँ पर साक्षात् भूख बनकर मारे-मारे भटकती रही भाषा
और घट्टे पड़े हुए हाथों से अंकित होती गई
पहाड़ों-खाइयों की दीवारों पर
मूक इतिहास बनकर

कभी न कभी उगेंगे पंख इस आस के साथ
चलती रही अपनी राह पर
काँटों-झंखाड़ों के बीच

पर पेट है तो लगी हुई है उसके ही साथ भूख भी
इस निहायत ही सीधी-सी बात को भुला दिया गया
और भूख को भूख के ही नाम से पुकारा
यह भी अपराध ही साबित हुआ अक्षम्य!

अब अबीर-गुलाल उछालने की बात करते हैं लोग
और पांखड की पैरवी करते हुए
जहाँ लड़े वही जगह
बन जाती है
कुरुक्षेत्र उनके लिए

जहाँ पर नहीं सुनाई देती है
किसी को भी किसी की चीत्कार
जहाँ पर रची जाती हैं भ्रम की गाथाएँ
और लादा जाता है हमारी पीठ पर
पुनः पुनः विवशकारी ख़ूबसूरत कूबड़
दंतकथा के भेष में।

फ़िलहाल

क़बूल ही है कि किया भरोसा शब्दों पर
उसके पीछे के इंसानों पर उससे भी अधिक

सोचा कि
इंसान होने का कुछ तो अंश हो
शेष बचे कौर दो कौर के जीवन में
तो किस तरह से ढीली होने लगी हैं
कसी हुई मुट्ठियाँ
और दरख़्तों की शाखों पर अटकी
फटेहाल पतंग की मानिंद
दिशावंचित जीना

ग़लत जगह पर पनपाया जड़ों को
इसलिए कल ही सज़ा हुई है किसी पेड़ को
काले पानी की
और रेगिस्तान में ढीठता से खड़े
एकाकी कैक्टस का चित्र रँगने में मगन है
एक मासूम बच्चा
नीले आसमान के तले

जिसके स्वप्न में रोता रहता है घर
और लिखने के पश्चात देखना चाहो तो
काली ठस्स पड़ी हुई
नज़र आती हैं कविताएँ

आजकल जानी-पहचानी आँखों में भी
नज़र आता है मुझे अपरिचित-सा कुछ
साथ में दबी-दबी एक हिंसक चेतावनी
और यूँ ही पड़ा रहता है मेरे सामने
दिन-दिन भर
कोरा काग़ज़
अपनी सारी दहशत को साथ लिए!

पुरुष की कल्पना में होती है

पुरुष की कल्पना में होती है हर वक़्त
एक काल्पनिक स्त्री
जो होती है सर्वथा नवीन
नई-नई देह धारण करती
जो पका सकती है बिना उकताए नित नए पकवान
सँभाल सकती है गृहस्थी उसके सारे नखरों के साथ
सुचारु ढंग से हर दिन को बना सकती है
गजरे की तरह ताज़ा और ख़ुशगवार!

सुनो स्त्री,
भले ही बसी हुई हो कल्पना में
आख़िर हो तो तुम स्त्री ही
तुम भी रचती हो
घर भर में फैले काग़ज़ों को समेटकर
पैर टूटे मोर का चित्र
जीती हो प्राणों को मुट्ठी में सँभालकर
जीने को विवश इस जग में ख़ामोशी से

कम से कम पता होना चाहिए तुम्हें कि
उगते-ढलते हैं हमारे दिन तो हर वक़्त
तीसरी आँख के अदृश्य दबदबे में
रहना पड़ता है जब वह चाहे उसके बाहर
और ऐसे चांगदेव से मिलने की ख़ातिर भी
चलाना पड़ता है किसी अड़ियल दीवार को
बिना कान के

जिसे नहीं आता है देखना
गहरे कुएँ के तल में जाकर
ऊपर का सारा आकाश
उम्र भर धक्के खाकर भी
नहीं समझ में आता है
तोड़ने जितना ही जोड़ने का मोल
जिसे नहीं सुनाई देते हैं
टूटी बाँसुरी से झरते
बेसुरे गीत
और पानी में उतरकर भी
अज्ञात रहता है इस बात से सदा
कि अपनी कल्पना से भी अधिक गहरा होता है
समझा था जिसे आज तक सतही
वह पानी।

पर फिर भी

मेरी चिर-परिचित स्त्री जा बैठी है
सब रास्तों पर नज़र आते विज्ञापनों के फ़लक पर—
बिना झिझके
और एक सीधा-साधा नीरस जीवन जीने वाली
बिना चेहरे की स्त्री
व्यस्त है दूसरी तरफ़ सिंदूर से जकड़े व्रत को उजलाती हुई

पीठ पर ओढ़ा हो खुरदरा कंबल या रेशम
भीतर की त्वचा तो होती है एक-सी
बस इसी बात को भुला दिया है संवेदना ने भी

झड़ चुके हैं उनकी कल्पनाओं में बसे कल्पवृक्ष के
अक्षय हरे पत्ते
और किस-किस रूप में खड़ा किया गया
मुक्ति के भ्रम का कद्दू
फैल रहा है बेतहाशा परिधि को लाँघकर

पर फिर भी
चलना चाहती हूँ मैं
उनके साथ कुछ दूरी तक
पूछते हुए कुशलक्षेम
हवा को
दूर के तारे को
रखना चाहती हूँ मैं उनकी राहों पर
कोमल उजाले के नन्हे-नन्हे चौकोन
करना चाहती हूँ हल्के-से स्नेह भरा स्पर्श
उनकी दुखती आँखों को
अपनी उदास गलियों में
बिना शिकायत भटकते हुए
एक कोने से दूजे अँधियारे कोने में
उनके ग़ायब होने से पहले।

दूर क्षितिज की

दूर क्षितिज की
काली रेखा पर रुका हुआ है चाँद
और उतर रही हूँ मैं कब से
इस तलघर की सीढ़ियाँ—
अंतहीन!

पर मेरे मन के कोने में
फूल-सी एक लड़की
रिमझिम धूप में
चलती रहती है
घर की दहलीज़ तक पहुँचे
जेसीबी मशीन के विकराल हाथों को भुलाकर
और परिंदे घोंटते रहते हैं अचूक ढंग से
अपनी स्लेटों पर
एक उचटती चहचहाहट
शब्दों के जन्म से पूर्व की
आश्वासक क्रिया बनते हुए।

लापता चेहरों के लोग

उन्हें सिखाई न थी किसी ने भी
प्रेम की उत्कट भाषा
नहीं सिखाया था क्या होता है
राख से निकलकर फिर ज़िंदा होना
नहीं पढ़ाया था सत्व को दाँव पर लगाने का
कोई पाठ
पर चल दिए वे अपने फ़लक को ऊँचा उठाए
जकड़े हुए दिलों को देते हुए दिलासा
सूखे गले से
दी उन्होंने आक्रोश से भरकर आवाज
नहीं आएगी पलटकर कोई प्रतिध्वनि भी
ज़हर से अटे इस पर्यावरण से
इसे जानते-बूझते हुए

ज़ाहिर कर दिया उन्होंने
शस्त्रों को हाथों में धरने से पहले ही
शर्तनामा
अघोषित शस्त्र-संधि
उनकी और अपनी आँखों के बीचोबीच
अविश्वास का परदा
खड़ा कर दिया था फिर भी

वे फिरकते नहीं हैं अब
अपने आस-पास भी
अपनी हर बात लगती है उन्हें झूठी या निरर्थक
और हद दर्जे की सहनशीलता के साथ
वे देखते हैं राह
उसकी तीसरी आँख के खुलने की

कहाँ जाना है
क्या करना है
असमर्थ हैं वे बैठाने में
इसका ठीक-ठीक तालमेल
और यूँ ही भटक रहे हैं भूलकर राह
यहाँ की हिंसक भीड़ में
जहाँ पर फेंका गया कोई भी पत्थर
सहजता से निशाने पर लगेगा
अपने सिर पर
इसका पक्का अंदेसा होने पर भी

मेरे भी मन में उठते हैं दुःख के
ऐसे ही सूखे कोरे आवेग
कम से कम चलती रहे उनके जीवन की गाड़ी
यह कहते हुए

पर ज्ञात है उन्हें कि
नहीं बचा है कुछ ऐसा
जिसे कह सके आपस में
और सुनने के लिए तो कुछ भी नहीं

नहीं सहा जाता है अब
इंद्रधनुष का आभास कराता यहाँ का
बित्ता भर भी उजाला
धूल से भरी उनकी आँखों को
और देख रहे हैं वे राह
पीठ पर लादे असहनीय बोझ पर
आख़िरी तीली के
अचूक ढंग से गिरने की

जहाँ पर दु:खों को साथ लिए
वे चलते जाएँगे कदाचित
एक अंतिम समूह-गान की तरफ़
और जल उठेंगी हज़ारों मोमबत्तियाँ
मुक्ति का मार्ग
खुला होने की ख़ातिर
जैसे आत्मा के प्रस्थान के लिए
दीप्त होती है
नए क्षितिज के किनारे जलती हुई।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित अनुराधा पाटिल (जन्म : 1953) मराठी की समादृत कवयित्री और अनुवादक हैं। उनके ‘दिगंत’, ‘तरीही’, ‘दिवसेदिवस’, ‘वाळूच्या पात्रात मांडलेला खेळ’ और ‘कदाचित अजूनही’ शीर्षक कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। वह औरंगाबाद में रहती हैं। उनसे ktthale@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। वह मराठी-राजस्थानी-हिंदी से परस्पर और नियमित अनुवाद के इलाक़े में सक्रिय हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व उनके अनुवाद में ‘सदानीरा’ पर मराठी कवि श्रीधर नांदेडकर, मंगेश नारायणराव काले, लोकनाथ यशवंत और संदीप शिवाजीराव जगदाले की कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए उन्होंने मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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