सफ़र ::
दयाशंकर शुक्ल सागर
प्रवेश
पेरिस यानी यूरोप का सबसे रंगीन शहर। फ़्रांस की राजधानी। नेपोलियन बोनापार्ट का देश। वाल्तेयर, विक्टर ह्यूगो, रोमा रोलां का देश। पश्चिम को समानता, बंधुत्व और आज़ादी का पहला पाठ पढ़ाने वाला देश। साहित्य, संस्कृति और राजनीति को नई दिशा देने वाला देश। ये वही देश है जिसने दुनिया में जनक्रांति की शुरुआत की और अपने निरंकुश राजा और बेअदब रानी को सरेआम चौराहे पर फाँसी दे दी थी। ऐसा मैंने पहले कभी नहीं सुना था कि किसी देश की जनता ने अपने ही राजा को सूली पर लटका दिया हो। सीन नदी के किनारे बसा एक अत्याधुनिक शहर, जिसकी भव्य इमारतों में इतिहास के अनिगनत क़िस्से क़ैद हैं। जर्मन फ़ौजों ने इस शहर को तीन बार रौंदा, लेकिन हर बार यह शहर फिर अपनी राख से ज़िंदा हो गया—फ़ीनिक्स की तरह।
अभी-अभी पेरिस एयरपोर्ट पर उतरा हूँ। मौसम ख़ुशनुमा है। रात शायद हल्की बारिश हुई थी। पर अब सुबह के बादल छँट गए हैं। नीले आसमान में कहीं-कहीं काले बादलों के टुकड़े अटके हैं, शायद वे घर लौटना भूल गए। पेरिस के इस चार्ल्स डी गॉल एयरपोर्ट को ‘रोसी एयरपोर्ट’ भी कहा जाता है। यह फ़्रांस का सबसे बड़ा और यूरोप का दूसरा सबसे व्यस्त अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। यह पेरिस शहर से कोई तेईस किलोमीटर दूर है। एयरपोर्ट चार्ल्स डी गॉल के नाम पर है जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ़्रांस के सैन्य हीरो था। बाद में वह राजनीति में आ गए और उनने फ़्रेंच फ़िफ़्थ रिपब्लिक की संस्थापना की। 1969 तक वह फ़्रांस के राष्ट्रपति भी रहे। काफ़ी बड़ा एयरपोर्ट है। टर्मिनल भी दूर-दूर हैं। इतने दूर की आपको एक टर्मिनल से दूसरे टर्मिनल तक जाने के लिए एयरपोर्ट की शटल लेनी होगी। ये शटल तीनों टर्मिनल को जोड़ती हैं। तीसरे टर्मिनल से आप पेरिस शहर के लिए बस, ट्रेन, टैक्सी कुछ भी पकड़ सकते हैं। प्राग का मेरा सिटी पास के इस्तेमाल का अच्छा अनुभव था। यह शहर घूमने का बेहतरीन साधन है। जितने दिन आपको शहर में रुकना है, उतने दिन का सिटी पास ले लीजिए। फिर बस, ट्रेन और मेट्रो जिससे मन करे जब मन करे शहर के किसी भी हिस्से में घूमिए। सो मैंने वहीं ट्रेन स्टेशन पर ही काउंटर से सिटी पास ख़रीद लिया। बाहर से आ रहे ज़्यादातर सैलानी यही कर रहे थे। इसी काउंटर पर आपको पेरिस के मैप रखे मिल जाएँगे।
पेरिस में होटल या हॉस्टल में कमरा बुक करना बेहतर विकल्प है, क्योंकि एयर बीएनबी के कमरे ठीक शहर के सिटी सेंटर में नहीं मिलते। होटल, हॉस्टल या एयर बीएनबी चुनते वक़्त आप एक चीज़ ज़रूर ख़याल में रखें कि आपका रूम मेट्रो स्टेशन के क़रीब हो। इससे शहर घूमने में और ज़्यादा सहूलियत हो जाती है। मेरा होटल एक मेट्रो स्टेशन के एकदम क़रीब है। सो रूम में सामान पटक कर मैं आधे घंटे में फ़ारिग़ हो गया।
पेरिस में मेरे पास घूमने के लिए कई जगहें थीं, लेकिन वक़्त बहुत कम था। तीन-चार दिन में आप उस शहर को कैसे जी सकते हैं जिसका सदियों का एक शानदार इतिहास रहा हो। 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति ने पूरी दुनिया पर असर डाला। स्कूली किताबों से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं तक न जाने कितनी बार यह पाठ पढ़ा। यह क्रांति पेरिस मं हुई थी। तब लुई 16वें का राज था। वह बीस साल की बहुत कम उम्र में ही फ़्रांस का राजा बन गया था। उसकी शादी आस्ट्रिया की राजकुमारी, मैरी एंटोनेट से हुई थी। फ़्रांस के लोग अपनी रानी को बाहरी समझते थे और वह फ़्रांस की जनता को अजनबी। राजा के अलावा दो अन्य ताक़तें—सामंत और चर्च के पादरी थे। राजा का ख़ज़ाना ख़ाली था और जनता टैक्स के बोझ तले दबी थी। सामंतों के अलावा उन्हें चर्च को भी टैक्स देना पड़ता था। बेकारी चरम पर थी और उस पर टैक्स। महँगाई बढ़ती जा रही थी। बेकरी में बनने वाली ब्रेड तक इतनी महँगी हो गई थी कि आम आदमी उसे ख़रीद नहीं सकता था। बेकरी मालिकों ने जमाख़ोरी बढ़ा दी। यूरोप में रोटी का चलन है, न चावल का। तरह-तरह की ब्रेड उनका लंच भी है और डिनर भी। साथ में सलाद और कुछ कच्ची-पक्की डिशें। ख़ैर, कहानी कहती है कि जनता सड़क पर उतर आई। इनमें बड़ी संख्या में औरतें भी शामिल थीं। उन्होंने बेकरियों को लूटना शुरू कर दिया। पेरिस में अराजकता फैल गई। राजा ने अपनी सेना को शहर में कूच करने का आदेश दे दिया। जनता निहत्थी थी। सो वह चौदह जुलाई को बैस्टिल क़िले की तरफ़ कूच कर गई। बैस्टिल का यह क़िला 14वीं सदी में इंग्लैंड और फ़्रांस के बीच सौ साल के युद्ध के दौरान पेरिस की सुरक्षा के लिए बनाया गया था। पेरिस शहर के पूर्वी हिस्से में यह क़िला एक पहाड़ी पर था जो जेल के साथ राजा का शस्त्रागार भी था। क़िले के चारों तरफ़ गहरी खाई थी। जनता का इरादा यहाँ हथियार और हथगोले लूटना था। राजा की निरंकुश ताक़त के चलते जनता के लिए यह क़िला घृणा का प्रतीक था। जनता ने बहुत जल्द क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। क़िले का कमांडर मार डाला गया और हथियार लूट लिए गए। यहाँ सात क़ैदी बंद थे जिन्हें आज़ाद कर दिया गया। क़िले में लूट हुई और उसका लूटा हुआ सामान पेरिस में बेच दिया गया। कहते हैं कि यादगार के रूप में सँजोने के लिए लोगों ने इन समानों को हाथों-हाथ ख़रीद लिया। बग़ावत की यह आग फ़्रांस के गाँवों तक फैल गई। किसानों ने जागीरदारों और सामंतों के महलों में आग लगा दी जिसमें क़र्ज़ के सारे दस्तावेज़ जलकर ख़ाक हो गए।
बैस्टिल का क़िला आज भी एक ऊँची पहाड़ी पर है। लेकिन यह क़िला अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। क़िले की दीवार और छत पर ऊँची घास उग आई है। क़िले का एक द्वार बचा है जिस पर ‘फोर्ट द ला बैस्टिल’ लिखा है। यहाँ देखने को कुछ ज़्यादा नहीं है, इसलिए बहुत कम पर्यटक यहाँ आते हैं। क़िले के आस-पास कोई आबादी नहीं है। हाँ, यहाँ ऊँचाई पर खड़े होकर आप पेरिस के नए बसे शहर की तस्वीर खींच सकते हैं। मैं एक ऊँचे टीले पर बैठ कर इन खंडहरों की तरफ़ देख रहा हूँ। क्रांति की पूरी घटना एक चलचित्र की तरह आँखों के सामने चलती नज़र आ रही है। तब यह जगह पेरिस के केंद्र में रही होगी।
यह फ़्रांसीसी क्रांति की शुरुआत भर थी। इस घटना ने निरंकुश राजा को इतना डरा दिया कि उसने नेशनल असेम्बली को मान्यता दे दी। लुई 16वें ने यह शर्त भी मान ली कि अब से उसकी सत्ता पर संविधान का अंकुश होगा। चार अगस्त 1789 से फ़्रांस में सामंती राज ख़त्म हो गया। चर्च के विशेषाधिकार ख़त्म हो गए। उनके तमाम टैक्स भी ख़त्म कर दिए गए। अगले तीन साल में नया संविधान भी आ गया जिसके अधीन फ़्रांस का राजतंत्र था। अब सत्ता राजा के हाथ में नहीं बल्कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के हाथ में आ गई। यूरोप के लिए यह एक बड़ी घटना थी। 18वीं सदी के अंतिम सालों तक न केवल यूरोप बल्कि पूरी दुनिया में सिर्फ़ दो वर्ग थे—अमीर और ग़रीब। ग़रीबों के ऊपर उठने का काई रास्ता नहीं था। औद्योगिक क्रांति के दौर में समुद्री रास्तों से व्यापार तेज़ी से बढ़ रहा था। यूरोप में ऊनी और रेशमी कपड़ों की अमीरों में ज़बरदस्त माँग थी। तब यूरोप में कारोबारी वर्ग का जन्म हुआ। इधर पढ़ाई-लिखाई के मौक़े बढ़ रहे थे। जान लॉक और रूसो जैसे तमाम विचारक आज़ादी, समानता और बंधुत्व की बात कर रहे थे। समान अवसर की बात कर रहे थे। एक तरफ़ जॉन लॉक निरंकुश राजाओं की दैवीय शक्ति को चुनौती दे रहे थे, तो रूसो जनता और जन-प्रतिनिधियों के बीच सोशल कॉन्ट्रेक्ट यानी सामाजिक अनुबंध का दर्शन लेकर आए थे। अख़बार छपने लगे थे और ये अनोखे और क्रांतिकारी विचार आग की तरह चारों तरफ़ फैल रहे थे। फ़्रांस के कॉफ़ी हाउसों में इन विचारों पर चर्चा होती थी। फ़्रांस के ग्रामीण इलाक़ों में अख़बार की ख़बरें बोल-बोलकर सुनाई जाती थीं। इन सबका असर ज़मीन पर दिखना लाज़मी था। युवा, प्रशासनिक सेवा, सेना और वकालत से अच्छा-ख़ासा पैसा कमा रहे थे। इस तरह से सामाजिक जीवन में बड़ा बदलाव हो रहा था। सामाजिक हैसियत से ज़्यादा योग्यता को प्रमुखता दी जाने लगी। तब यूरोप और भारत में भी मध्यवर्ग का जन्म हुआ। यह वही दौर था जब अमेरिका, अँग्रेज़ों के चंगुल से नया-नया आज़ाद हुआ था; और वहाँ आधुनिक युग का पहला लोकतंत्र स्था पित हुआ। इसीलिए अमेरिका के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहा जाता है।
वह शहर जिसने अपने राजा को दी सज़ा-ए-मौत
यूरोप के तक़रीबन सभी देशों में अपने राजा के लिए एक प्रसिद्ध संबोधन है—’लॉन्ग लिव द किंग…’ यानी राजा की उम्र लंबी हो। फ़्रांस अकेला देश है जिसने अपने ही राजा को सरेआम चौराहे पर गला काट कर मार डाला। महान लुई परंपरा का 16वाँ राजा लुई 16वाँ अयोग्य था, लेकिन वह क्रूर नहीं था। वह कोई राक्षस भी नहीं था, जैसा कि उसे कई इतिहासकारों द्वारा पेश किया गया। फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान उसने कोई क़त्लेआम नहीं किया, जैसा कि आमतौर पर राजा बग़ावत दबाने के लिए करते हैं। कुछ क्रांतिकारियों को मौत की सज़ाएँ ज़रूर मिलीं, लेकिन वह स्वाभाविक था। आख़िर वह राजा था। वर्साय महल से पेरिस लाए जाने के बाद जेल में उसका अधिकांश वक़्त उसके नन्हें बच्चों के साथ बीतता था। 1892 में राजा पर कन्वेंशन में राजद्रोह का मुक़दमा चला। एक घंटे में सुनवाई ख़त्म हो गई। दरअसल, नेशनल कन्वेंशन के सारे सदस्य फ़्रांसीसी क्रांति के नायक थे। उन्हें लगता था कि जीवित राजा ख़तरनाक है, भले ही वह क़ैदख़ाने में हो। उसके समर्थक कभी भी बग़ावत कर सकते हैं और कन्वेंशन को ख़त्म कर फिर राजशाही ला सकते हैं, इसलिए राजा को मरना होगा। हालाँकि सभी सदस्य राजा को सज़ा-ए-मौत देने के पक्ष में नहीं थे। उस पर लगा आरोप-पत्र पढ़ा गया, जिसमें एक मुख्य आरोप पेरिस की जनता पर गोली चलाने का था। इसमें कई जानें गई थीं। लुई ने इस आरोप से इनकार किया। उसका कहना था कि इसके लिए सैनिकों ने उससे इजाज़त नहीं ली थी, वह घटना अचानक हुई। राजा ने कहा कि वह फ़्रांस की जनता से प्यार करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज उसे यह साबित करना पड़ रहा है। लेकिन उसकी बात सुनने के लिए कोई तैयार नहीं था। उसे चौबीस घंटे के अंदर मौत की सज़ा देने का फ़रमान सुनाया गया। कहा गया कि फ़्रांस की जनता यही चाहती है।
यह लंबी भूमिका मैं इसलिए बना रहा हूँ ताकि आप समझ सकें कि किन हालात में फ़्रांस के राजा को सरेआम चौराहे पर सज़ा-ए-मौत दी गई होगी। मैं उस चौराहे पर गया जिसे आज ‘द प्लेस ला कॉनकॉर्ड’ के नाम से जाना जाता है। क़रीब बीस एकड़ इलाक़े में फैला यह चौराहा पेरिस के मशहूर ऐतिहासिक होटल, डे क्रिलॉन के पीछे है। 1758 की इमारत में भव्यता और विलासता के लिए मशहूर यह होटल 1907 में खुला था। क़रीब ही संयुक्त राज्य अमेरिका का दूतावास है। यहीं एक इमारत पर आपको ‘द प्लेस ला कॉनकॉर्ड’ का छोटा-सा बोर्ड टँगा दिख जाएगा। ग़ौर से देखें तो इसी तख़्ती के ठीक ऊपर एक और पुरानी तख़्ती टँगी है जिस पर फ़्रेंच में लिखा है : ‘प्लेस लुई XVI’. इस जगह को लुई 15वें के वास्तुकार, ग्रेबरिल ने 1755 में डिजाइन किया था। 1789 में फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान फ़्रांस के लुई 16वें की प्रतिमा को तोड़ दिया गया था और इस जगह का नाम बदलकर ‘प्लेस डे ला रिवोल्यूशन’ रखा गया था, और यह जगह क्रांति का प्रतीक बन गई।
दूर नज़र डालेंगे तो आपको यहाँ से एफ़िल टॉवर भी दिख जाएगा। इस भव्य मैदान के बीच में आपको एक ख़ूबबसूरत-सा फ़व्वारा देखने को मिलेगा। कहते हैं कि राजा को फाँसी यहीं दी गई थी। इस फ़व्वारे में गहरे हरे रंग की मूर्तियाँ बनी हैं। ये मूर्तियाँ संभवतः राजमहल की अर्द्धनग्न सुंदरियों की हैं। इस फ़व्वारे पर सुनहरे रंग की मीनाकारी की गई है। यह फ़व्वारा 1840 में बना था। इसे ‘फ़ाउंटेन ऑफ़ कॉमर्स एंड नेवीगेशन’ का नाम दिया गया है। इस चौराहे पर केवल फ़्रांस के राजा लुई 16वें को ही नहीं, बल्कि फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान उसकी रानी, क्वीन मैरी एंटोनेट, फ़्रांस की राजकुमारी एलिज़ाबेथ, और शार्लोट कॉर्डे जैसे चर्चित लोगों को फांसी दी गई थी।
इस चौराहे के सामने आपको कोई दो किलोमीटर लंबी-सी सड़क दिखेगी जिसके दोनों तरफ़ शानदार दुकानें, थिएटर, ओपरा आदि मिल जाएँगे। इमारतें फिर फ़ुटपाथ और सड़क के बीच हरे पेड़ों की लंबी क़तारें। यह सड़क ‘एवेन्यू डेस चम्प्स-आइलेसीस’ के नाम से मशहूर है। कहते हैं कि लखनऊ का हज़रतगंज इसी फ़लसफ़े पर बना था। बीच में लंबी-सी सड़क दोनों तरफ़ भव्य दुकानें, मेफ़ेयर जैसे थिएटर। लेकिन भव्यता के मामले में दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। रात में जब इस सड़क पर लाइन से गाड़ियाँ चलती हैं तो उनकी रोशनी में नज़ारा देखने लायक़ होता है। यह सड़क भी फ़्रांसीसी क्रांति से ठीक पहले की है। आज इसकी रौनक़ देखने लायक़ है।
और आख़िर में वह क़यामत का दिन आ गया। मैं जानना चाहता था कि आख़िर जनता ने अपने राजा को बीच चौक पर मौत की सज़ा कैसे दी होगी। मैंने पुराने दस्तावेज़ पलटे। वह 21 जनवरी 1793 दिन था। कोई 10 बजे, राजा को लेकर एक बग्घी प्लेस ‘डे ला रेवोल्यूशन’ पर पहुँची। पूरा मैदान पेरिस की जनता से खचाखच भरा था। भीड़ राजा के ख़िलाफ़ नारे लगा रही थी। चारों तरफ़ ‘विवे ला नेशन! विवे ला रेपुब्लिक!’ का शोर था। मैदान में एक तरफ़ सड़क के किनारे ड्रम बज रहे थे। बीच में फाँसी देने के लिए ऊँची मचान बनाई गई थी। लेकिन राजा के वहाँ पहुँचते ही भीड़ ख़ामोश हो गई। वहाँ चार जल्लादों की ड्यूटी लगी थी। राजा से राजसी कोट और गले से उसका स्कार्फ़ उतारने को कहा गया। एक आज्ञाकारी बालक की तरह लुई ने ऐसा किया। एक जल्लाद रस्सी से राजा का हाथ बाँधने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन राजा शांत था। वह बोला, ‘‘नहीं, ये ज़रूरी नहीं।’’ जल्लाद ने कहा, ‘‘ये ज़रूरी है सर।’’ राजा ने अपने हाथ पीछे कर दिए। लुई काँपती टाँगों से मचान की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। सज़ा से पहले लुई ने वहाँ चिल्लाकर कुछ कहने कोशिश की, लेकिन ड्रम की तेज़ आवाज़ों में उसके शब्द कहीं खो गए। कहते हैं कि तब राजा ने कहा था, “मुझ पर लगाए गए सभी आरोप ग़लत हैं। मैं निर्दोष मारा जा रहा हूँ, लेकिन मैं उन सभी लोगों को माफ़ करता हूँ जो मेरी मौत के लिए ज़िम्मेदार हैं… और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप लोग मेरा जो ख़ून बहाने जा रहे हैं, वह ख़ून कभी फ़्रांस पर न जाए।” और जल्लाद ने उसे बेंच पर लिटा दिया। उसकी गरदन लकड़ी के तख़्ते पर रखी गई। दूसरे जल्लाद ने हैंडिल घुमाया और ऊपर शिकंजे में फँसी लोहे की एक बड़ी-सी ब्लेड झटके से नीचे आई। सब कुछ इतनी हड़बड़ी में हुआ कि ब्लेड ने उसकी गर्दन के बजाए उसकी खोपड़ी के पीछे और उसके जबड़े में काट दिया। गला काटने की इस प्रक्रिया को गिलोटिन कहा जाता था। गिलोटिन दो खंभों में लटकी मशीन थी जिस पर अपराधी का सिर रखकर ऊपर लटकी ब्लेड से काट दिया जाता था। इस मशीन का आविष्कार डॉ. गिलेटिन ने किया था और इसका डेमो उसने राजा लुई 16वें को दिया था। लुई को तब अंदाज़ा तक नहीं था कि इस मशीन का इस्तेमाल उसके लिए भी किया जा सकता है।
नेपोलियन की प्रेम-कहानियाँ
पेरिस में नोट्रे-डेम एक मशहूर जगह है। यहाँ मेट्रो, बस, ट्रेन, ट्राम ये सारे स्टेशन हैं। दरअसल, पेरिस के बीच में बना नोट्रे-डेम एक ख़ूबसूरत मध्यकालीन कैथोलिक कैथेड्रल है। 1789 में फ़्रांसीसी क्रांति के बाद, नोट्रे-डेम और फ़्रांस में पादरी की बाक़ी संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया और उसे सार्वजनिक संपत्ति बना दिया गया था। लेकिन फ़्रेंच गोथिक वास्तुकला से बने इस गिरजाघर ने मुझे सबसे ज़्यादा इसलिए प्रभावित किया, क्योंकि यहाँ मेरे हीरो नेपोलियन का राजतिलक हुआ था और उसने अपनी प्रेमिका को महारानी का ताज पहनाया था। इस चर्च ने मेरा ध्यान इसलिए भी खींचा क्योंकि मेरे प्रिय फ़्रेंच लेखक—विक्टर ह्यूगो—ने इस चर्च पर एक पूरा उपन्यास लिख दिया जिसका नाम ही था—नोट्रे-डेम डे पेरिस। अँग्रेज़ी में यह उपन्यास ‘द हंचबैक ऑफ नोट्रे-डेम’ (नोट्रे-डेम का कूबड़ा) के नाम से जाना जाता है। यह एक मध्यकालीन प्रेम-कथा है जो नोट्रे-डेम चर्च के इर्द गिर्द-बुनी गई। कहते हैं कि नेपोलियन के छोटे से शासनकाल के बाद इस चर्च को ढहाने की नौबत आ गई थी, लेकिन नेपोलियन की सदी में जन्मे फ़्रेंच लेखक विक्टर ह्यूगो ने यह उपन्यास लिखकर उपेक्षित पड़े इस चर्च को बचा लिया। इसके बाद जो चर्च बना, वह पेरिस आने वाले सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। 2018 में नोट्रे-डेम में लगी भीषण आग ने इसके एक बड़े हिस्से को बर्बाद कर दिया। जब मैं यहाँ पहुँचा तो इसे फिर भव्य बनाने का प्रोजेक्ट ज़ोर-शोर से चल रहा था।
बहरहाल, इस चर्च के बहाने कहानी शुरू करते हैं—नेपोलियन की, क्योंकि नेपोलियन की ज़िंदगी की दिलचस्प कहानी सुने बिना आप पेरिस को नहीं समझ सकते। पेरिस शहर के कई महलों और राजप्रसादों में नेपोलियन के जीवन की कथाएँ आज भी शानदार चित्रकारी में ज़िंदा हैं। दुनिया की मशहूर फ़्रांसीसी क्रांति ज़्यादा लंबी नहीं चली। फ़्रांस में राजशाही का अंतिम संस्कार करने के बाद यहाँ 1892 में लोकतंत्र की स्थाफ़पना हुई। देश में एक संविधान बना। लेकिन लोकतंत्र के नायक सत्ता की चकाचौंध में इतने अंधे हो गए कि एक-एक करके क्रांति के सारे बड़े नायकों को ठीक उसी तरह चौराहे पर फाँसी देकर मार डाला गया जिस तरह उनके राजा लुई 16वें को मारा गया था। कुछ लोग कहते हैं कि यह एक बेगुनाह राजा की हत्या का शाप था। ‘प्लेस डे ला रिवोल्यूशन’ जहाँ राजा को मारा गया था, वहाँ दस साल के अंदर तक़रीबन 40 हज़ार क्रांतिकारियों की गर्दन काटी गई। कहते हैं कि फाँसी का वह तख़्ता ख़ून के कीचड़ से सन गया था। गला काटने की ब्लेड पर ख़ून की मोटी परतें जम गई थीं जो एक झटके से अगली गर्दन नहीं काट पा रही थी।
अराजकता के इस माहौल में सेनापति नेपोलियन फ़्रांस के लिए पड़ोसी देशों की जंगें जीत रहा था। नेपोलियन का जन्म कोर्सिका में मामूली इतालवी परिवार में हुआ था। वह फ़्रांसीसी सेना में एक तोपख़ाने का अफ़सर बना। जब 1789 में फ़्रांसीसी क्रांति भड़की तो सेना में तेज़ी से उसका पदोन्नत हुआ और केवल 24 साल की उम्र में वह सेना में जनरल बन गया। 26 वर्ष की उम्र में उसने ऑस्ट्रियाई लोगों के साथ अपना पहला सैन्य अभियान शुरू किया। लगातार जंगें जीतकर वह देखते-देखते युद्ध-नायक बन गया। 1798 में उसने मिस्र में एक सैन्य अभियान का नेतृत्व किया। अगले साल की सर्दियों में उसने एक तख़्तापलट किया और फ़्रांसीसी रिपब्लिक के पहला कौंसल बन गया। नेपोलियन बेहद महत्त्वाकांक्षी था और युद्ध का राष्ट्रनायक भी। क्रांति की अराजकता में बहुत जल्द वह फ़्रांस का हीरो बन गया। लोग लोकतंत्र के नाम पर नेताओं के ड्रामे से बीस साल में ही ऊब गए थे। 1804 में नेपोलियन फ़्रांस का राजा बन गया। फ़्रांसीसी क्रांति के बाद वह पहला राजा था। लेकिन उससे पहले ही 32 साल की विधवा जोसेफिन जो नेपोलियन से उम्र में छह साल बड़ी थी, उसकी ज़िंदगी में प्रेमिका बनकर दाख़िल हो चुकी थी। जोसेफिन का पति क्रांति की अराजकता का शिकार हुआ था। उसे भी मौत के घाट उतार दिया गया था। जोसेफिन युवा, ख़ूबसूरत और रसूख़दार थी। फ़्रांस के कई राजनेताओं से उसकी दोस्ती थी। वे सब उसे ‘रोज’ के नाम से जानते थे, क्योंकि जोसेफिन को गुलाबों से प्यार था। उसके घर के बाग़ीचे में दुनिया भर के गुलाबों की क़िस्में लगी थीं। नेपोलियन का भी सरकार में उठना-बैठना था। इस दौरान उसे जोसेफिन से प्यार हो गया। कहते हैं कि लड़ाई के मैदान में वह रातों में जाकर जोसेफिन को ख़ूबसूरत प्रेम-पत्र लिखा करता था। लेकिन जोसेफिन उसके ख़तों का बहुत कम जवाब देती थी। नेपोलियन को जोसेफिन का ‘रोज’ नाम पसंद नहीं था। वह उसे जोसेफिन ही संबोधित करता था। यह वह समय था जब नेपोलियन बोनापार्ट उन्नति के शिखर पर चढ़ रहा था। नेपोलियन इटली का सेना-प्रमुख बना। उसी दौरान उसने 1796 में जोसेफिन से शादी कर ली।
लेकिन जोसेफिन उससे शायद कभी प्यार नहीं कर पाई। नेपोलियन के इतालवी अभियान के दौरान जोसेफिन के एक लेफ़्टिनेंट से प्रेम का क़िस्सा सामने आया। नेपोलियन को इस बारे में मालूम चला तो उसने जोसेफिन को एक ख़त लिखा, जो इंग्लैंड (जो फ़्रांस का जन्मजात शत्रु-देश था) के हाथ लग गया। नेपोलियन का मज़ाक़ उड़ाने के लिए ब्रिटिश मीडिया में इस क़िस्से को ख़ूब उछाला गया। इस घटना के बाद से जोसेफिन नेपोलियन की नज़रों से उतर गई। लौट कर नेपोलियन उसे छोड़ देना चाहता था। लेकिन जोसेफिन के आँसुओं से वह पिघल गया। शादी नहीं टूटी, लेकिन नेपोलियन टूट गया था। इसके बाद उसके जोसेफिन से कभी संबंध सामान्य नहीं हो पाए। नेपोलियन ने अगले ही साल मिस्र में एक फ़्रांसीसी सेना का नेतृत्व किया। इस अभियान के दौरान नेपोलियन का अपने एक जूनियर अफ़सर की पत्नी, पॉलीन फ़ोएरेस से इश्क़ हो गया। उसे फ़्रांसीसी सैनिक ‘नेपोलियन की क्लियोपेट्रा’ कहते थे। वह ख़ूबसूरत थी। सैन्य अभियान पर सैनिकों को अपनी पत्नी को साथ ले जाने का नियम नहीं था। लेकिन शादी के तुरंत बाद ही फ़ोएरेस सैनिक के वेश में अपने पति के साथ पानी के जहाज़ पर सवार हो गई थी। यह उनका रोमांचक हनीमून था। बाद में नेपोलियन से संबंध के बाद उसके पति ने उसे तलाक़ दे दिया।
सैन्य अफ़सर से जोसेफिन के प्रेम की घटना के बाद जोसफिन के जीवन में कोई और नहीं आया। लेकिन नेपोलियन बदल गया था। उसने कई औरतों से संबंध बनाए। राजा बनने से पहले उसका एक चर्चित वाक्य था : ‘‘शक्ति मेरी रखैल है।’’ याद कीजिए यही वही फ़्रांस था जिसके राजा लुई 14वें ने कभी कहा था, ‘‘मैं ही राष्ट्र हूँ।’’ नेपोलियन की एक और प्रेमिका थी—डे वाडेय। उसे महारानी जोसेफिन के लिए एक लेडी-इन-वेटिंग चुना गया था। नेपोलियन ने चैटो डे सेंट-क्लाउड में अपना आशियाना बनाया था। यह पेरिस शहर से कोई पाँच किलोमीटर दूर है। डे वाडेय ने यहीं लेडी-इन-वेटिंग की शपथ ली थी। डे वाडेय सुंदर थी, अच्छा गाती थी, बहुत जल्द लोगों से दोस्ती कर लेती थी। वह नेपोलियन के साथ पानी के जहाज़ की यात्रा पर निकल गई। इस यात्रा पर, कमउम्र डे वाडे ने नेपोलियन को अपने वश में कर लिया। जल्द ही उनके प्रेम के क़िस्से पेरिस में फैल गए। एक दिन जोसेफिन ने उसे सेंट माउंट के महल में नेपोलियन के साथ रंगे हाथ पकड़ लिया। कहते हैं कि तब नेपोलियन और जोसेफिन में खूब झगड़ा हुआ। नेपोलियन ने जोसेफिन से तलाक़ तक माँग लिया। दोनों में बातचीत बंद हो गई। डे-वाडेय से इस्तीफ़ा ले लिया गया। जोसेफिन अपनी बेटियों के पास चली गई, जो उसके पहले पति से थीं। लेकिन जल्द ही उनमें समझौता हो गया। पोप पायस VII की मौजूदगी में 2 दिसंबर 1804 को इसी नोट्रे-डेम डे पेरिस में राज्याभिषेक समारोह हुआ जिसमें एक पूर्व-व्यवस्थित प्रोटोकॉल के बाद, नेपोलियन ने पहले ख़ुद को ताज पहनाया, फिर अपनी पत्नी की घोषणा करते हुए अपनी प्रेमिका जोसेफिन के सिर पर फ़्रांस की महारानी का मुकुट रख दिया।
दयाशंकर शुक्ल सागर हिंदी पट्टी के कई प्रतिष्ठत दैनिक अख़बारों में संपादक रहे हैं। वह गए 28 साल से पत्रकारिता में सक्रिय और सम्मानित हैं। उनकी एक पुस्तक ‘महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग’ प्रकाशित और चर्चित हो चुकी है। विदेश-यात्राओं के संस्मरणों पर उनकी एक किताब शीघ्र प्रकाश्य है। उनसे dsssagar@gmail.com पर बात की जा सकती है।