संदीप शिवाजीराव जगदाले की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

संदीप शिवाजीराव जगदाले

धनुष्कोडी

बचे हुए हैं केवल
घरों के उदास अवशेष
इन रेल की पटरियों ने
किसी समय हज़ारों क़दमों को
इस गाँव तक पहुँचाया होगा
वे आख़िरी प्रवासी
उनका प्लेटफ़ॉर्म पर इधर-उधर टहलना
दर्शाता था लंबी प्रतीक्षा
जो नहीं जानते थे कि
किसी को भी कहीं पर भी
नहीं ले जाने वाला है यह रास्ता

एक भग्न चर्च है
ठीक अंतिम क्षणों में
उसे याद कर
डूबते गाँव ने लगाई होगी
प्रार्थना की गुहार
यह अथांग समंदर
इंसान की साँसें और आँसू पीकर
और भी खारा बन चुका है

धनुष्कोडी प्रख्यात है आज
पर्यटन स्थल के रूप में

कुछ पर्यटक
जीवन-रक्षकों से पूछते हैं,
‘यहाँ से कितनी दूरी पर है श्रीलंका?’
कुछ पर्यटकों की भीड़
उमड़ी हुई है दुकानों में
शंख-सीपियों से बनी वस्तुएँ
ख़रीदने के लिए

मित्र मुझे रोकते हैं
उन चीज़ों को ख़रीदने से
वे सहमे हुए हैं
प्रचंड लहरों के नीचे दबकर
जान गँवा चुके लोगों की अस्थियाँ हो सकती है
इन शंख-सीपियों की मालाओं में पिरोई हुई

ठिठक जाता हूँ मैं कुछ क्षण
पर मुझे ख़रीदनी है कुछ चीज़ें
मुझे सुननी है
उन मृतकों की गूँज
जब ज़िंदा थे वे
मुझे सुननी है
उनके सुख-दुखों की धुन
उनकी जद्दोजहद के
मशक़्क़त के
स्वप्न देखने और उनके ढह जाने के
गवाह क्षण
ठिठुरकर जम चुके
इन शंख-सीपियों में
इन अस्थियों में

मैं खड़ा हूँ इस तट पर
मैं महसूस करना चाहता हूँ
यह पानी
यह रेत
मनुष्य के भीतर की आदिम जीवटता
मुझे देखना है सूरज
पानी से उगता
पानी में डूबता हुआ
देखना है अँधेरे में नाव खेता हुआ
दूर निकल जाने वाला एकाकी मछुआरा
पर मेरी आँखों के सामने पसरा हुआ है अँधेरा

कहीं भी कुछ दिखाई नहीं देता है मुझे
सुंदर और आश्वस्त करने जैसा

क्या घुलती जा रही है मेरे भी भीतर
मीलों दूर फैली हुई इस रेत के नीचे
निमिष मात्र में गाड़ दिए गए
इंसानों की मौत?
या इस गाँव तक आना
मेरा ख़ुद तक पहुँचना है?

कुछ भी अलगा नहीं पा रहा हूँ मैं
नहीं समझ पा रहा हूँ
किस में क्या हो चुका है विलीन
अब समंदर भी समंदर नहीं है
मेरे घर-द्वार पर से उफनती गोदावरी है
और
गोदावरी ही समंदर बनी
मेरे सामने पसरी हुई है

फ़क़त एक ही चीज़ है मेरे पास

मेरे पास तुम्हें देने की ख़ातिर
कुछ नहीं है
मैं नहीं सिखा सकता
ऐसा कोई शब्द
जिसे सीखकर
तुम्हारे होंठों की निश्छल हँसी
जीवन भर क़ायम रहे

मैं रटवाता हूँ प्रार्थना
कई-कई बार
‘एक ही धर्म है सच्चा
संसार को हम प्रेम अर्पण करें…’
जाँचता रहता हूँ मैं
प्रार्थना के हर शब्द का उच्चारण
स्वरों का उतार-चढ़ाव
मैं सहम जाता हूँ कि
किसी दिन इस प्रार्थना की लय बिसरा दोगे तुम
इसकी एकाध पंक्ति का अर्थ भी
चिपका रहे तुम्हारी साँसों से
आख़िरी दम तक
इसके लिए क्या करना होगा मुझे?

दिन रात हाड़-तोड़ मशक़्क़त करते
झुलसकर स्याह पड़ चुकी पीठ के माँ-बाप
उनका सबसे प्यारा फूल
बड़ी आस से
मेरी हथेली पर रख गए हैं
मैं पूरी जद्दोजहद करता हूँ
कम से कम तुम्हारे भाग में
माता-पिता की वह झुलसी पीठ न आए
पर कभी-कभी तुम मेरे सामने
ऐसे खड़े रहते हो कि
कराह उठता है मेरा कलेजा

एक लड़का
जिसका पिता चल बसा है पिछले ही साल
वह माँग रहा है एक दिन की छुट्टी
उसे करनी है मदद
गली-मुहल्लों में घूम-घूमकर
चूड़ियाँ बेचने वाली अपनी माँ की
मेरे पास नहीं ऐसी कोई जड़ी-बूटी
जिससे बचा लूँ मैं
इन कोमल हाथों को
वह बोझ उठाने से

उदास बैठी हुई है वह लड़की
बिना रंगों का चित्र ताकती हुई
मैं जेब से दस रुपए लेकर
उसकी हथेली पर धरता हूँ
ताकि ख़रीद पाए वह रंगीन चाक
पर जानता हूँ मैं
जैसे-जैसे धुँधली पड़ती जाएगी
उसकी आँखों में उभरी चमक
ये दस रुपए भी
किसी काम के न रहेंगे

चारों तरफ़ से घर के भीतर घुसते धुएँ से
धुँधले पड़ते जाएँगे
हर दिन के साथ
पटल पर लिखे साफ़ अक्षर भी
गाढ़ी बनती जाएगी कालिख
जिसे पोंछने में
असमर्थ होंगे मेरे हाथ
मैं असहाय बना रहूँगा
फिर भी छटपटाता रहूँगा कि
यह अभाग्य रोक लूँ मैं

मेरे बच्चो,
लाख ठोकरें खाओ
अंधड़ में घिरे रहो
जतन कर रखना हमेशा
मेरी दी हुई प्रार्थना की पंक्ति

फ़क़त इतनी ही चीज़ है मेरे पास
तुम्हें देने की ख़ातिर

हमने थाल बजाकर साँपों को घर में लिया

हथेली पर ज्वार के दाने लेकर बतियाने वाले
हमेशा सच ही बोलते हैं
इसी मुग़ालते में रहे हम
पंढरपुर के रास्ते पर मिलने वाले
हर एक को समझा वारकरी
तुलसी की माला-से ही
सभी होते हैं पवित्र
इसी भरम में जीते रहे आँख मूँदकर
और नींद में पत्थर बरसाने वाले
कब सिरहाने आकर बैठ गए
पता ही नहीं चला

सात समंदर पार से आती
जगमगाती धूल को
हमने अपने चूल्हों-चौकों में जगह दी
यहाँ की मिट्टी के बदले
सोने का धुआँ उगलते
हिरन के सींग से बँधे
गूलर के फूल के मोह में उलझ गए और
उसके पीछे दर-दर भटकते हुए
राई-नोन को भी तरस गए

ग्राम-सुराज-ग्राम-सुराज के नारे लगाकर
चुनावों की धाँधली में
खपकर मर गए
सहकारी ऋण-संस्थाओं में गिरवी रख दिए गए
और हरित-क्रांति में ग़ोते खाते रहे

मॉन्सैंटो बायर के घरों को भरते हुए
जैविक जीना ज़हरीला बनता गया
फिर भी उठते-बैठते हम
अट्ठाइस युगों की जड़ता से लिपटे हुए
ग़ाफ़िल के ग़ाफ़िल ही रहे

सारे घर को घुन लग गई
तब रोज़गार गारंटी योजना में नाम लिखवा आए
गमछों में मुँह छुपाए हुए
सड़कों पर गिट्टी तोड़ी
और बबूल के नीचे
हमने छाँव ढूँढी

सात समंदरों का खारा पानी
मुँह में जाने लगा है
ऐसे दम साधकर
कहाँ तक ख़ुद को बचा पाएँगे

पंढरपुर के रास्ते पर मिलने वाले
सभी होते नहीं हैं वारकरी
यह छूट गया
आसमान को भी तौलने वाली हमारी दृष्टि से
हमने थाल बजाकर साँपों को घर में लिया
और भरे पगहे को बाज़ार में खड़ा कर
केवल रस्सी झुलाते हुए
घर लौटने की दुर्भाग्यपूर्ण घड़ी
हमारे हिस्से चली आई


संदीप शिवाजीराव जगदाले सुपरिचित मराठी कवि हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : मेरा गाँव पानी में बसता है | काँधे पर ढो रहा हूँ मैं लाश अपने गाँव की | दिल्ली-द्वार पर किसान

सुनीता डागा से परिचय के लिए यहाँ देखिए : सुनीता डागा

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