कविताएँ ::
अंजुम शर्मा
दसवीं के जाड़े
जब भी देखता हूँ
जाड़ों में बच्चों को स्कूल जाते
मुझे याद आते हैं दसवीं कक्षा के जाड़े
मेरे पास एक गाढ़ी नीली जर्सी थी
जिसके गले पर दो आसमानी धारियाँ थीं
और जिसका दायाँ कंधा उधड़ चुका था
उसके नीचे हल्की नीली शर्ट थी
जिसका कॉलर धुल-धुल कर घिस चुका था
जिसे पलटने के पैसे दर्ज़ी ने मुझसे न जाने क्यों नहीं माँगे थे
मेरे साँवले कंधे की हड्डियाँ मेरी शर्ट ने छिपा ली थीं
लेकिन शर्ट का उड़ चुका रंग स्वेटर से बाहर झाँकता था
बावजूद इसके
मैंने कभी गुरुओं के पैर छूना बंद नहीं किया
गुरुओं ने भी ख़ूब आशीष दिया, पीठ थपथपाई
लेकिन कभी कंधे पर हथेली नहीं रखी
साथियों ने भी कभी फटे जीवन का एहसास नहीं कराया
लेकिन कुछ की तिरछी हँसी ने ज़रूर सीधी चोट की
माँ चाहती तो सिल सकती थी मेरे जाड़े
मगर वह अपने ही उधड़े रिश्तों को बुनने में मसरूफ़ थी
पिता भी अपना जीवन तुरपने में लगे रहे
दोनों की प्राथमिकताओं में मेरा कंधा
काफ़ी नीचे उतर चुका था।
शहर
सिर पर
गेहूँ की बोरी लादकर
गाँव का आदमी उतरता है शहर में,
शहर
गेहूँ की बोरी उसके सिर से उतारता है
आदमी को पीसता है
और खा जाता है।
सालता स्वप्न
बचपन से एक स्वप्न सालता है मुझे
मैं दौड़ता रहता हूँ स्वप्न में अनवरत
कभी लगाता हूँ इतनी लंबी छलाँग
कि पार हो जाती हैं एक साथ चार गलियाँ
नामालूम कहाँ और किससे भागता हूँ मैं
मैंने हर संघर्ष का सामना शिवालिक की तरह किया है
लेकिन यह एक स्वप्न बना देना चाहता है मुझे अरावली
जहाँ मैं ख़ुद को बचाने का हर संभव प्रयास करता हूँ
मेरे पीछे दौड़ती रहती है पुलिस और कुछ बिना वर्दी के बंदूक़धारी
जबकि निजी जीवन में मैंने
दाल के डिब्बे में छिपाए पाँच रुपए के सिवाय
कभी कुछ नहीं चुराया
कभी दग़ा नहीं किया
ग़लतियाँ कीं तो हाथ जोड़े कई बार
पर कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया
फिर भी दौड़ते हैं कुछ बौखलाए लोग लाठी लिए मेरे पीछे
मैं हर अगली छलाँग पिछली से लंबी लगाता हूँ
साँस भरता हूँ
कि वे लोग फिर आ जाते हैं मुझे ढूँढ़ते-पूछते
यह सिलसिला
चलता रहता है सिहर कर मेरे जागने तक
हम अक्सर जिन सपनों दुःस्वप्नों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं
वे उतनी ही ज़ोर से आँखों के दरवाज़े खटखटाते रहते हैं
जीवन की आपाधापी में कितनी छलाँगें लगाते हैं हम
कभी चिकने पत्थरों की तरह साथ बहते हैं नदी के
तो कभी शिवालिक से बड़ा करके अपना क़द
हो जाते हैं पीर पांजाल
पर कुछ होती हैं ऐसी बातें, ऐसी घटनाएँ, ऐसे सपने
जो समझ से परे होते हैं,
सालते रहते हैं उम्र भर,
करते रहते हैं पीछा।
?
हम दो हैं—तुमने कहा
हम एक हैं—मैंने कहा
एक दिन शून्य पसर गया
हम दोनों ने कहा—क्या हम हैं
बायाँ कांधा, तुम और चश्मे का फ़्रेम
याद है सर्दियों की सुबह
जब धुँध से आँख मिलाकर
तुमसे मिलने आया करता था मैं
और तुम उनींदी आँखों से मेट्रो की सीढ़ियों पर
बाट जोहा करती थीं मेरी
अपनी ठंडे हाथ तुम्हारी गर्म हथेलियों में रखकर
दुहराता था केदारनाथ सिंह की कविता :
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए
तुम लजाकर झटक देती थीं मेरा हाथ
और मेरे चश्मे के दोनों लेंस पर
कन्नी उँगली से लिख देती थीं अपने नाम के दो अक्षर
तुम्हें शिकायत रहती थी
कि मेरे चश्मे का फ़्रेम छोटा है बहुत
कि उसके लेंस पर नहीं आता हम दोनों का नाम
और इतना कहकर किसी पौधे की तरह
झुक जाता था तुम्हारा सिर मेरे बाएँ कांधे पर
एक रोज़,
जब टूट गई थी मेरी कोल्हापुरी
तब उतार दी थी तुमने भी अपनी चप्पल
और उड़ने लगी थीं मेरे साथ हरी दूब पर
उस रोज़ आख़िरी बार घास इतनी अधिक सब्ज़ हुई थी
और तुम इतनी अधिक गुलाबी
उस रोज़ आख़िरी बार दिल्ली में इंद्रधनुष अपनी पूरी रंगत में निकला था
और आख़िरी बार मैंने बादलों पर घोड़े दौड़ाए थे
तुम्हारी यादों की नदी में,
मैं रोज़
डूबता हूँ
और रोज़ तलाशता हूँ किनारा
मेरे चश्मे का फ़्रेम अब कुछ बड़ा हो गया है
लेकिन तुम्हारी उँगलियाँ इतनी दूर
कि मेरी दूर की नज़र को भी वे नज़र नहीं आतीं
कोल्हापुरी अब टूटती नहीं है
और धुँध के साथ चलना सीख लिया है मैंने
बस्स! हाथ ठंडे रहते हैं
और बायाँ कांधा…
बायाँ कांधा बहुत दुखता है सर्दियों में।
अगले बारह घंटे
इसराइल-फ़लस्तीन के बीच बारह घंटे के युद्ध-विराम की घोषणा के बाद
अगले बारह घंटे नहीं गिरेगी कोई मिसाइल
कोई रॉकेट नहीं छोड़ा जाएगा किसी के नाम
अगले बारह घंटे आसमान से नहीं उठेगा धुआँ
अगले बारह घंटे नहीं पीटेगी की कोई माँ अपनी छाती
घड़ी देखकर निकल जाएँगे पिता बची संतानों के लिए घिघियाने-रिरियाने
कुछ परिवार घरों को घरों में गाड़ कर
दू……………………………………र
बारह घंटे दूर चले जाएँगे पट्टी से
अगले बारह घंटे सबकी आँखें सबके सिरों पर टँगी होंगी
अगले बारह घंटे अभी और जीवित रहेंगे बच्चे—
अपनी माँओं के साथ।
भानजी के टीथ
मेरी भानजी के लिए उसके दाँत,
दाँत नहीं ‘टीथ’ हैं
सिर, सिर नहीं ‘हेड’ है
नाक उसके लिए ‘नोज़ू’ है
और आँखें उसकी ‘आइज़’ हैं
‘हैंड्स’ कहते ही वह अपने हाथ हवा में लहराने लगती है
और ‘चीक’ बोलते ही तर्जनी से अपने गालों की जैली में
गड्ढा कर लेती है वह
आज से कुछ बरस पहले
अक्सर मुझे माताओं-पिताओं से शिकायत रहती थी
कि अँग्रेज़ी की पूँछ पकड़कर क्यों दौड़ते रहते हैं वे
लेकिन कई वर्षों तक
हिंदी का ख़ाली पेट लेकर घूमने के बाद
मैं अँग्रेज़ी के ‘फुल स्टमक’ का हामी हो गया हूँ
अब मैं जैसे ही कहता हूँ अपनी ‘नीस’ को—‘स्टमक’
वह झबला उठाकर अपना पेट सहलाने लगती है
लेकिन जब भरा होता है उसका पेट
और नहीं पीना होता उसे दूध
तो दाएँ-बाएँ हिलाते हुए अपनी गर्दन ज़ोर से कहती है वह—
नहीं
उसने नहीं सीखा अँग्रेज़ी का ‘नो’
उसने हिंदी के ‘नहीं’ को अपनाया
अपनी भाषा में ‘नहीं’ कहना
उसे बचाए रखने की ‘हाँ’ का सुखद संकेत होता है।
मेरी दिशाएँ
कमलेश्वर की कहानी ‘खोई हुई दिशाएँ’ पढ़ने के बाद
मेरे दिशाएँ खो गई हैं
ठीक वैसे
जैसे चंदन की खोई थीं कनॉट प्लेस के बीच
जैसे बंटी की खोई थीं
जैसे खोई थीं मोहन राकेश के पाशी की
यूँ तो सभी दिशाओं के केंद्र में होता है घर
जहाँ मिलती हैं दिशाएँ एक दूसरे से
लेकिन मेरे घर की ओर जाती हुई हर दिशा
भटक जाती है ख़ुद अपना ही रास्ता
मेरे घर में वह सारी ख़ूबी थी जो ‘नई कहानी’ में हुआ करती थी
मेरे पिता मोहन राकेश की कहानियों के मर्द जैसे थे
लेकिन माँ उन कहानियों-सी नहीं थी
जिन्हें पढ़ा या लिखा गया है अभी तक
उन्हें देखकर हमेशा मेरे कानों में एक वाक्य गूँजता—
मनुष्य समाज में स्वतंत्र है समाज से नहीं…
यह सच है कि समय दिशाएँ बदलता है
और सच यह भी है कि जो सच है वही सच नहीं है
मेरे घर के दरवाज़े अब उस शहर के बीच खुलते हैं
जो सबको अजनबियों की तरह जानता है
जिसकी सहर में जलन और शाम में नमक है
जिसके दाँत परत्व को चबा कर टूट चुके हैं
और जिसके चेहरे पर अवसाद से अधिक कुछ नहीं लिखा
मैं हर दोराहे, तिराहे, हर चौराहे पर खोजता हूँ ऐसी दिशा
जहाँ मुझे मेरे होने का पता मिले
लेकिन हर राह की भुजाएँ ऐसी राहों को थामे हैं
जिन्हें अपने पते का भी नहीं पता
हम सब की दिशाएँ
कभी न कभी
कहीं न कहीं
खो जाती हैं
और हम ढूँढ़ते रहते हैं
वह ‘निर्मला’ जो पूछ ले—
क्या हुआ?
***
आप कविता क्यों लिखते हैं? यह सवाल बहुत रूढ़ और सामान्य है, लेकिन उस कवि से जिसकी कविताएँ पहली बार प्रकाशित हो रही हों, उसके संदर्भ में बहुत जायज़ भी है। एक कवि से यह ज़रूर पूछा ही जाना चाहिए कि जब करने को इतने सारे काम पड़े हैं, तब आख़िर वह कविताएँ क्यों लिखता है या कुछ और न होकर वह कवि ही क्यों हो गया…। जहाँ तक यहाँ प्रस्तुत कविताओं के कवि का प्रश्न है, वह लगभग एक दशक से तमाम कामों और नाकामियों के बीच बराबर अपनी डायरियों में कविताएँ लिखता रहा है, लेकिन प्रकाशन के प्रसंग में वह बेहद संकोची है। अपने केंद्र में ही बने रहना उसका स्वभाव है। यह संकोच और स्वभाव ‘कुछ और कविताएँ’ की भूमिका में व्यक्त शमशेर बहादुर सिंह के संकोच और स्वभाव की याद दिलाते हैं। इस सिलसिले में शमशेर कहते हैं, ‘‘कला कैलेंडर की चीज़ नहीं है। वह कलाकार की अपनी बहुत निजी चीज़ है। जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी निजी है, उतनी ही कालांतर में वह औरों की भी हो सकती है—अगर वह सच्ची है, कला-पक्ष और भाव-पक्ष दोनों ओर से। वह ‘अपने-आप’ प्रकाशित होगी। और कवि के लिए वह सदैव कहीं न कहीं प्रकाशित है—अगर वह सच्ची कला है, पुष्ट कला है।’’ इसके आगे वह जो कहते हैं, वह तो इस दौर में और भी ग़ौरतलब है, ‘‘प्रकाशन-प्रदर्शन औसत-अक्षम कलाकार को खा जाता है।’’ बहरहाल, शब्दकोशों में संकोच और उससे बनने वाले शब्दों के ठीक बाद संक्रमण शब्द मिलता है। एक रोज़ साहित्य अकादेमी के लॉन की हरी घास पर कुछ देर बैठकर अंजुम शर्मा की डायरी से कुछ कविताएँ सुनने का अवसर ‘सदानीरा’ के संपादक को मिला, इस संयोग का निष्कर्ष यह प्रस्तुति है—संकोच के बाद संक्रमण सरीखी। अंजुम की तालीम दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई है। उनके कुछ लेख-टिप्पणियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। ऑल इंडिया रेडियो के लिए उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण साहित्यकारों संग वार्ताएँ की हैं। उनसे artistanjum@gmail.com पर बात की जा सकती है। कवि की तस्वीरें अच्युत सिंह सौजन्य से।
बहुत उम्दा, ख़ास कर शहर, और कंधे की imagery इतनी सजीव है, जेम्स जॉयसी ने बहुत लिखा है कन्धों, हाथों और कोहनियों के बारे में, ये वैसा ही लगा।
शुभकामनाएं
बहुत उम्दा कविताएं । ‘ शिवालिक की तरह हर संघर्ष ‘ का सामना करते रहिये दोस्त ख़ुद- ब-ख़ुद पहचान जाएंगे कि ‘कुछ और’ होने से बेहतर है एक कवि होना ।
अंजुम शर्मा को शुभकामनाएं ।
बहुत उम्दा कविताएं । ‘शिवालिक की तरह हर संघर्ष’ का सामना करते रहिए दोस्त ख़ुद-ब-ख़ुद पहचान जाएंगे कि ‘कुछ और’ होने बेहतर है एक कवि होना ।
शुभकामनाएं अंजुम शर्मा को ।
Bahut achhi lagi kavitain padh kar. Roz marra ki zindagi se prerit lagi mujhe. Excellent.
Bahut sundar kavitayen. Anjum behad samvedanshil aur sambhavnashil kavi hain aur ek umda insan bhi hain. Sadaneera ko aur Anjum ji ko hardik badhai.
Pranjal Dhar
बहुत ख़ूबसूरत कविताएँ प्रिय अंजुम !! दर्द,प्रेम एवं संवेदनाएँ -वो भी असल जीवन की-सबकुछ है आपकी कविताओं में !! आगे बढ़ते रहिए,चमकते रहिए,बहुत बधाई और शुभकामनाएँ 😍
बहुत शानदार कवितायेँ
अंजुम!
मैं यह जानता रहा हूँ
कि तुममें बहुत कुछ है
जिसे जानना शेष रह जाता है
तुम्हे बहुत जानने के बाद भी
क्योंकि तुम अपने शब्दों की तरह
सदा परिचित से लगते हो
मगर तुम्हारा मन
तुम्हारी कविताओं सा
अपनी तहों में
मेरे जान पाने से कहीं अधिक
भीतर समाए होता है।
Ek se badhkar ek kavita…badhai kavi mahoday😄
All poems touch the heart….so real…. Baya kandha , daswi ka jaare, barah ghanta …all such vivid portrayal ….keep it up Anjum
These poems are not only graceful, sensitive, but also reveal the poet’s mature sensibility. I found them quite varied and subtle in exploring a range of moods as well as subjects. I thoroughly enjoyed reading your poems, Anjum Bhai.
आपकी कविताओं में वैचारिक परिपक्वता कमाल की है,जो पाठक को विषय पर चिंतन-मंथन की करने के लिए प्रेरित करती हैं।
आपकी कविताएं सच मे प्रभावोत्पादक हैं।
आपसे मुखातिब होने के अवसर जल्द ही मिले,ऐसी आशा करता हूँ।
बहुत अच्छी कविताएं है। मन बार बार पढ़ने का करता है। लेखक को ढेर सारी शुभकामनाएं,। वो भी ‘ कांधे’ पे।
bahut acchi bro
बहुत अच्छी कविताएं है। मन बार बार पढ़ने का करता है। लेखक को ढेर सारी शुभकामनाएं,। वो भी ‘ कांधे’ पे।
बहुत अच्छी कविताएं और सदानीरा की इन कविताओं खे पीछे की खोज की कथा बहुत प्रेरक लगी।कवि और सदानीरा को बधाई।