कविताएँ ::
मोहन राणा
शहमात
पलक झपकती है दुपहर के कोलाहल की शून्यता में,
एक अदृश्य सरक कर पास खड़ा हो जाता है
दम साधे सेंध लगाता मेरी दुश्चिंताओं के गर्भगृह में,
कानों पर हाथ लगाए
मोहरों को घूरते
मैं उठ कर खड़ा हो जाता हूँ प्यादे को बिसात पर बढ़ा कर
कहीं निकल पड़ने यहाँ से दूर,
टटोलते अपने भीतर कोई शब्द इस बाज़ी के लिए
दूर अपने आपसे जिसका कोई नाम न हो
शब्द जिसकी मात्रा कभी ग़लत नहीं
जिसका कोई दूसरा अर्थ न हो कभी मेरे और तुम्हारे लिए
जिसमें न उठे कभी हाँ न का सवाल
खेलघड़ी में चाभी भरते न बदलने पड़ें हमें नियम अपने संबंधों के व्याकरण के,
लुढ़के हुए प्यादे पैदा करते हैं उम्मीद अपने लिए
बिसात पर हारी हुई बाज़ी में,
बचा रहे एक घर करुणा के लिए शहमात के बाद भी।
कोई दिन
सुबह कोई स्वर देती और पेड़ एक झोंका
कि चल पड़ता बंद आँखों बाहर जो थमा,
मैं उसे क्या कहूँ
कोई दिन
आँख खुलते ही।
ईश्वर की अपनी धरती
वे जगहें अनोखी बताई जाती हैं
और मैं किसी को सुनाता जैसे मैंने सुना
उसी अनोखे संसार की कहानी फिर से
और कहता तुम्हें भी देखना चाहिए ईश्वर की अपनी उस धरती को
अलेप्पी से निकले आधा दिन बीता
केट्टुवल्लम में कभी चावल और मसालों की जगह
अब ढोह रहा है नाविक मुझ जैसों को
जिन्हें किसी घर पर नहीं जाना
पर चकित होना दुपहर की छाया में उसे देख
मैं कैसे उसे भूल गया
जलगलियों के अचल हरे रंग पर मुग्ध,
सो जाना चाहता हूँ मैं नारियल की झुकी छाया में।
रतजगा
धूल में गिरे को उठाने वाला हरकारा हूँ
अप्रेषित लिफ़ाफ़ा
जिसमें दुनिया के संदेश हैं,
मन के कलरव में रतजगा
जाने कब से खोज रहा हूँ
पाने का पता ख़ुद ही लिख कर।
कहानियाँ कई इसकी
भीगते हुए दिन के साथ
तुम अकेली हो सड़क के पार
पूरा उस पार तुम्हारे साथ है और
अपने पलटून पुल के साथ मेरा अगोचर अतीत भी वहाँ चुपचाप
अपनी परछाईं पर झुका,
जिसे अभी घटना बाक़ी है
रेत हो गई नदी में पानी की वापसी तक
उस पार सब कुछ जो इस ओर भी है फिर भी नहीं मेरे साथ
मकान, इमारतें, खिड़कियाँ, दरवाज़े, बाज़ार की हड़बड़ी
अपभ्रंश बोलियों में लज्जा के लिए अनुनय करते प्यासे कवि
बिजली के खंभों के सहारे झुके हुए पेड़
थके चौराहों की बत्तियाँ
गूगल के नक़्शों में लगातार अपडेट होती मनुष्यों की बनाई घरेलू सीमाएँ
पते और उन तक पहुँचते रास्ते
बीच में अवसाद नदी उसमें गिरते नाले
मेरे कंधे पर टँगा सामान का बोझ भी मेरा नहीं
फिर भी कंधे दुखी और मैं झुका जा रहा हूँ
अपनी सिमटती परछाईं को जैसे ज़मीन से समेटते
नज़दीक आती दूरियों पर मुड़ कर पीछे देखते,
कुछ लुढ़क कर जाता मेरे हाथों से छिटक
पर मैं हँसते हुए बढ़ जाना चाहता हूँ—
वर्तमान का आश्चर्य छोड़,
महीना एक पर कहानियाँ कई इसकी
ज़ेबरा क्रॉसिंग पर घड़ी देखने का समय नहीं।
अधिक मास
आस्था को सिलता मैं पैबंद हूँ
भूली हुई परंपरा की कतरन याद करवाता,
ख़ुद को ही पढ़ता और लिखता
दराज़ों में तहों में दबा कहीं एक अनुवाद,
बची रहे उनमें हमारी मुलाक़ातों में अचकचाहट
मैं खोजूँगा पिछली बार की तरह
पन्नों में सूखती फुनगियों में रह गई छायाओं में कोई मतलब
उस संसार में कोई कभी गया नहीं रंगों को जगाने
किसी ने जाना नहीं उसे अपने व्यक्तिगत लुकाए-छुपाए
देखने एक झलक कनख भर
जब भी मौक़ा मिले हर वसंत की तरह अभूतपूर्व
दूर ही रहूँगा दूरियों के नक़्शों से भी अलग
जानते हुए बहुत लंबा है यह अचीन्हा अधिक मास,
कि तुम डर जाओगी बन जाओगी मछली
रोशनी की पहुँच से दूर,
बन जाओगी तितली हवा में लुप्त,
पास नहीं आऊँगा, किसी जगह मैं तुम्हें बंद नहीं कर रहा
दरारों की दीवारों को जोड़ता
तुम्हें सहेजने के लिए बना नहीं रहा कोई आला,
खोलो अपनी हथेली मैं रखना चाहता हूँ कोई आश्चर्य उस पर
बंद तो करो आँखें ताकि देख सकूँ उनका सपना
ताकि भूल जाऊँ बीते भविष्य को
रख देता दूँ उस परकटे नीड़ को दरारों के बीच
उनींदा विहंग उड़ेगा वहाँ से कभी
जहाँ छायादार पेड़ झूमेगा हवा को सँभालता,
समय के थपेड़ों से बनी झुक से लटकी इच्छाओं में
बेघर दिशाओं को संकेत करता
अधर उम्मीदों से जूझता अभिशप्त,
सताता टूटी नींद में पूछता पहचाना मुझे!
अगर मैं खोल दूँ अपने हाथ फैला
क्या मिल जाएँगे मुझे दो पंख आकाश के लिए।
घर
धन्य धरती है जिसकी करुणा अक्षत
धन्य समुंदर जिसका नमक फीका नहीं होता
धन्य आकाश जो रहता हमेशा मेरे साथ हर जगह दिन रात
धन्य वे बीज जो पतझर को नहीं भूलते
धन्य वे शब्द भूलते नहीं जो चौखट पर कभी बाट लगाते दुख
उसकी स्मृति को
धन्य उस विचार पहिए पर टँकी छवियाँ
जो बन जाती टॉकीज़,
आकाशगंगा के छोर चुपचाप परिक्रमा में
धन्य यह साँस,
मैं कैसे भूल सकता हूँ घर
और कोने पर धारे1उत्तराखंड में पहाड़ों में किसी-किसी स्थान पर पानी के स्रोत फूट जाते हैं। इन्हें स्थानीय भाषा में धारे कहा जाता है। का पानी।
पहचान
धीरे धीरे चलती है इंतज़ार की घड़ी
और समय भागता है खिड़की पर टँगे भाषा के कुम्लाहे परदों में
दीवारों पर रोशनी के छद्म रूपों में
छलाँग लगाता इस डाल से उस डाल पर,
मन के अबूझमाड़ में हम खेलते लुका-छुपी
जन्म चुना इसमें यह चेहरा मेरे लिए
नाम किसी और का दिया
उसे याद रखना मेरा काम
आजीवन लड़ाई
दुनिया घटती है चलती है दिन-रात
भय के कोलाहल में घूमती,
इससे पहले कोई देख ले
चुपचाप मैं कानों को ढाँप दूँ
कि सुन लूँ उसकी गुनगुनाहट।
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साल 1964 में दिल्ली में जन्मे मोहन राणा सुपरिचित हिंदी कवि हैं। उनके ‘जगह’ (1994), ‘जैसे जनम कोई दरवाजा’ (1997), ‘सुबह की डाक’ (2002), ‘इस छोर पर’ (2003), ‘पत्थर हो जाएगी नदी’ (2007), ‘धूप के अँधेरे में’ (2008), ‘रेत का पुल’(2012), ‘शेष अनेक’ (2016) शीर्षक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वह इंग्लैंड में रहते हैं। उनसे letters2mohan@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।