कविताएँ ::
रमण कुमार सिंह
संज्ञाशून्य
उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती
अपने नैहर के नाम से ही
पहचानी जाती हैं वे ससुराल में
या फलाने की बहू
अथवा फलाने की माँ के रूप में
जिस धरती पर लिया उन्होंने जन्म
जहाँ मिला उन्हें पहले पहल
एक प्यारा-सा नाम
वहाँ भी तो उन्हें अक्सर पुकारा जाता रहा
कभी किसी की बेटी तो
कभी किसी की बहन के रूप में
अपनी निजी पहचान खोकर
जीना कैसा लगता है
यह कोई उनके दिल से पूछे
लेकिन यह पूछने और
उनका जवाब सुनने का साहस
भला किसमें है
हमारे बाप-दादाओं में भी
शायद नहीं था यह साहस।
और अब तो पूरे नागरिक समाज से
उनका नाम छीनने की
शुरू हो गई है सांस्थानिक कोशिश
अंकों से ही होगी अब लोगों की पहचान
अंक ही होंगे जीवन का आधार
और एक दिन पूरी तरह से
संज्ञाशून्य बना दिए जाएँगे हम
मगर हैरानी देखिए कि
कहीं कोई बेचैनी नहीं है
मानो हमने अभी से मान लिया है
ख़ुद को संज्ञाशून्य।
बेटियाँ बनाती है अपरिचय के बीच पुल
जैसे धान के नन्हे पौधे
एक बार अपने जन्मस्थल से
उखाड़े जाने पर
रोपे जाते हैं दूसरी जगह
और फिर अपनी जड़ें जमाकर
लहलहा उठते हैं
वे अपनी देखभाल करने वाले
किसानों के चेहरे की चमक
और होंठों पर मुस्कान का कारण बनते हैं
वैसे ही बेटियाँ विदा की जाती हैं
एक घर से दूसरे घर
जहाँ जाना-पहचाना-सा कुछ नहीं होता
यहाँ तक कि कभी-कभी
आबोहवा भी बिल्कुल बदली हुई होती है
लेकिन अपरिचय के उस निर्जन में भी
बेटियाँ सीख लेती हैं जीने के जतन
नए घर-आँगन में तुलसी का एक पौधा देखकर भी
हरिया उठता है उनका मन
और वह उसकी नन्ही पत्ती से भी
जोड़ लेती हैं आस
संस्कार और मर्यादा के गझिन पर्दे से बोझिल
खिड़की के एक छोटे कोने से आती
रोशनी देखकर वह भर उठती हैं उम्मीद से
और शुरू करती हैं जीवन को
नए ढंग से रचने का अभ्यास
बेटियाँ एक घर से दूसरे घर जाती हैं
ताकि चलता रहे सृष्टि का चक्र अनवरत
इस तरह बेटियाँ
दो अपरिचित संसार के बीच
बनाती हैं परिचय के पुल
और दुनिया को
एक ज़िम्मेदार नागरिक की तरह
कुछ और सुंदर,
कुछ और बेहतर बनाने में जुट जाती हैं।
प्रेम के लिए जगह
उसके लिए नहीं थी कोई जगह इस देश में
जबकि बहुत सारी चीज़ें
इन दिनों देश में घर बनाती जा रही हैं
मसलन, नफ़रत, लालच और भ्रष्टाचार
देश अंतरिक्ष में छलाँगें मार रहा है
बुलेट ट्रेन के सपने देख रहा है
बड़ी-बड़ी बातें और बड़ी-बड़ी
योजनाएँ हैं देश के पास
मगर नहीं है इतनी-सी जगह
कि कोई प्रेमी निर्भय रह सके
गा सके प्रेम का गीत
जला सके प्रेम की ज्योति
अपनी प्रिया के सम्मान में
जाति और मज़हब के खाँचे में बँटे लोगों ने
उसे प्रेम करने की सज़ा दी मगर
जीने का अधिकार नहीं दिया
ढाई आखर का उसका प्रेम
किसी की नाक तो किसी की
मूँछ के लिए ख़तरा बन चुका था
इसलिए उसे इस दुनिया से ही
विदा कर दिया गया
नफ़रत के हरकारो!
चाहे कितनी भी नफ़रत फैला लो
कुछ बावरे हमेशा गाते रहेंगे
प्रेम के गीत और हवा में
तैरते रहेंगे प्रेम के क़िस्से
देवी-देवताओं के इस देश में
सिर्फ़ प्रेम के लिए ही जगह की तंगी नहीं है
बल्कि दया-धरम के लिए भी नहीं है जगह
मंदिरों-मठों-मस्जिदों में तो आज भी
रस्मी तौर पर जलाए जाते हैं दीये
मगर मन का अँधेरा क़ायम है सदियों से
ज़ाहिर है ऐसी अँधेर नगरी में
प्रेमियों का मारा जाना तय है!
रमण कुमार सिंह हिंदी-मैथिली कवि-लेखक-अनुवादक हैं। हिंदी में ‘बाघ दुहने का कौशल’ शीर्षक से उनकी कविताओं की एक किताब साल 2005 में प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त मैथिली में उनके दो कविता-संग्रह ‘फेरसँ हरियर’ और ‘दु:स्वप्नक बाद’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। वह पत्रकारिता से जुड़े हैं और कथेतर गद्य तथा ललित निंबंध के इलाक़े में भी सक्रिय हैं। उनसे kumarramansingh@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुत से पूर्व उन्होंने ‘सदानीरा’ के लिए ईरानी-कुर्दिश लेखक बेहरूज़ बूचानी के एक वक्तव्य का अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया था : यह केवल एक बुनियादी नारा नहीं है
बहुत सुंदर और मर्मस्पर्शी कविताएं। रमन कुमार जी को साधूवाद
देश के हालाते-बयाँ के साथ समाज के केन्द्रीय सरोकारों पर प्रश्न कविताओं को और भी उम्दा बना देता हैं।
कवि रमण कुमार सिंह को शुभकामनाएँ