वक्तव्य ::
बेहरूज़ बूचानी
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रमण कुमार सिंह
बेहरूज़ बूचानी ईरानी-कुर्दिश लेखक, फिल्मकार, पत्रकार हैं; जिन्हें छह वर्ष तक मानुस द्वीप पर कैद में रखा गया, वहीं उन्होंने उपन्यास लिखा और उन्हें ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा ‘विक्टोरियन प्रीमियर साहित्यिक पुरस्कार’ देकर सम्मानित किया गया। यह स्वीकृति भाषण उन्होंने मानुस जेल से ही वीडियो लिंक के ज़रिए 31 जनवरी 2019 को दिया था। यहाँ इस प्रस्तुति में अँग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद के लिए इसे द गार्जियन से साभार लिया गया है।
छह वर्ष पहले जब मैं क्रिसमस आइलैंड पहुँचा, तो मुझे एक आव्रजन अधिकारी ने बुलाकर कहा कि मुझे मानुस द्वीप पर भेजा जा रहा है, जो प्रशांत महासागर के बीच स्थित है। मैंने उन्हें बताया कि मैं एक लेखक हूँ। वह व्यक्ति मुझ पर हँसा और गार्ड को आदेश दिया कि मुझे मानुस द्वीप पर भेजा जाए। मैंने वर्षों तक उस छवि को अपने दिमाग़ में रखा, यहाँ तक कि उपन्यास लिखते वक़्त भी और पुरस्कार स्वीकृति का यह भाषण लिखते वक़्त भी। यह अपमानजनक कृत्य था।
जब मैं मानुस आया, तो मैंने अपनी एक और छवि गढ़ी। मैंने एक सुदूर जेल में एक उपन्यासकार की कल्पना की। कभी-कभी मैं जेल की बाड़ के बग़ल में अर्धनग्न होकर काम कर सकता था और कल्पना कर सकता था कि उपन्यासकार उस स्थान पर बंद है। यह छवि विस्मयकारी थी। वर्षों तक मैंने उस छवि को अपने ज़ेहन में बनाए रखा। यहाँ तक कि जब मुझे खाना लेने के लिए लंबी क़तारों में इंतज़ार करने के लिए मजबूर किया गया, या अन्य अपमानजनक क्षणों को सहन करने के दौरान भी।
इस छवि ने हमेशा मेरी गरिमा को बनाए रखने और एक इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में मेरी मदद की। वास्तव में मैंने इस छवि को सिस्टम (व्यवस्था) द्वारा बनाई गई छवि के विरोध में गढ़ा। उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ वर्षों के संघर्ष के बाद, जिसने हमारी व्यक्तिगत पहचान को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया, मुझे ख़ुशी है कि हम इस क्षण (सम्मानित होने के क्षण) तक पहुँचे हैं। यह साबित करता है कि शब्दों में अब भी अमानवीय व्यवस्थाओं और संरचनाओं को चुनौती देने की शक्ति है। मैंने हमेशा कहा है कि मैं शब्दों और साहित्य में विश्वास करता हूँ। मेरा मानना है कि साहित्य में परिवर्तन और सत्ता की संरचनाओं को चुनौती देने की क्षमता है। साहित्य के पास हमें स्वतंत्रता देने की शक्ति है। हाँ, यह सच है।
मैं वर्षों से जेल में क़ैद हूँ, लेकिन इस दौरान मेरा मस्तिष्क हमेशा शब्दों को रचता रहा और वे शब्द मुझे सीमाओं से पार ले गए, मुझे विदेशी धरती और अज्ञात स्थानों पर ले गए। वाक़ई मेरा मानना है कि शब्द इस जेल और इसकी बाड़ों से बेहद शक्तिशाली हैं।
यह केवल एक बुनियादी नारा नहीं है। मैं कोई आदर्शवादी नहीं हूँ। मैं यहाँ कोई आदर्शवादी विचार पेश नहीं कर रहा हूँ। ये शब्द उस व्यक्ति के हैं, जिसे लगभग छह वर्षों से इस द्वीप पर बंदी बनाकर रखा गया है। एक ऐसे व्यक्ति के, जो यहाँ असाधारण त्रासदी का गवाह रहा है। ये शब्द मुझे आज रात वहाँ आपके साथ उपस्थित होने की अनुमति देते हैं।
विनम्रता के साथ मैं यह कहना चाहूँगा कि यह पुरस्कार एक जीत है। यह केवल हमारी विजय नहीं है, बल्कि साहित्य और कला और सबसे बढ़कर मानवता की जीत है। मानवीय गरिमा के लिए यह मानवता की जीत है। यह उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ जीत है, जिसने हमें कभी मनुष्य नहीं समझा। यह एक ऐसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जीत है, जिसने हमारी संख्या घटा दी है।
यह एक ख़ूबसूरत क्षण है। आइए, आज की रात हम सब साहित्य की शक्ति का आनंद उठाएँ।
रमण कुमार सिंह हिंदी-मैथिली कवि-लेखक-अनुवादक हैं। ‘बाघ दुहने का कौशल’ शीर्षक से उनकी कविताओं की एक किताब साल 2005 में प्रकाशित हो चुकी है। उनसे kumarramansingh@gmail.com पर बात की जा सकती है।