गुंजन श्री की कविताएँ ::
मैथिली से अनुवाद : अजित आज़ाद

गुंजन श्री

माँ

आज तक कहाँ किया
कभी मुँह अपना मलिन
साबे की रस्सी जैसी माँ की तकलीफ़ें
और पिता की बेरोज़गारी
एक-दूसरे से लिपटी रही हमेशा
एक गहरी आत्मीयता के साथ
ऐसे जैसे दोनों के बिना
दोनों का निर्वाह कठिन

धूपदानी की कहकती आग में पड़े सरड़ से
उठते ख़ुशबूदार धुएँ-सी माँ मेरी
किए रही हमारे परिवार की जलवायु सुगंधित
लेकिन जानता हूँ मैं कि वह
भीतर ही भीतर जलते-जलते कैसे होती रही शेष

गर्म दूध और हल्दी से
स्वास्थ्य ठीक करने वाली मेरी माँ
फाँकती रहती है आजकल
भूजे की मानिंद दवाइयाँ
जबकि उसकी ही उम्र की
उसकी सखियों की तरह के कुछ लोग
इस देश के एक विराट महानगर में
अलस्सुबह रनिंग-शू पहन
रन-रन करती-सी मिलते हैं मुझे
रोज़ की मेरी मॉर्निंग वॉक के दौरान प्रायः
हरीतिमा से सजी-भरी मेरी कॉलोनी के पार्क में

उसकी उपस्थिति का भान मात्र ही
करता रहता है ऊर्जस्वित
उसकी ही ऊर्जा से अरजा गया मैं और मेरा भविष्य
इस विकट महानगरीय जीवन जीने के दौरान
अपने कमरे की एकजनियाँ खाट पर
अतीत को याद करते विचारता है एकांत में—
‘माँ—समाजवादी पिता और साम्यवादी पुत्र के बीच—
करती रही है अनंतकाल से रक्षा
इस देश के ढनमनाए पर लोकतांत्रिक घर को।’

ऐसा क्यों करते थे वे

इस शताब्दी के माथे पर
अपनी सारी ऊर्जा को साक्षी रख
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
करना चाहते थे वे एक हस्ताक्षर
जिसे देखकर कहा जा सके कि
ये पुरखा थे हमारे
जिन्होंने नहीं की स्वीकार कभी
क्षत-विक्षत नीति कोई राजनीति की

अपने घाव की तरह ही लगता रहा उन्हें आजीवन
उस देश का रिसता घाव
जिसे खोंचाड़ते रहे
इस दुनिया के एक बड़े मालिक

निसदिन गाते रहे वे अपनी पराती में
उन सारे लोगों को
जिन्होंने जीने का हियाव हारा नहीं कभी

उन्हें याद आते
उठते-बैठते-लड़ते
वे दीप्त लोग
जो आजीवन रहे संघर्षरत
लोगों के लिए

आदतन जब कभी निकल जाता मुँह से—
दुनिया को कुछ लोग और देश
कर रहे हैं बलत्कृत बार-बार
और फिर स्वयं को सँभालने के
निष्फल प्रयास में
झक-झक करता उनका ललाट
हो जाता नितुआन

फिर वे कच्ची नींद में
किसी कवि की एक पंक्ति
चिल्लाते थे ख़ूब ज़ोर से—
‘इस जीने से अच्छा है लड़ना
और लड़ते-लड़ते शेष हो जाना’

ऐसा क्यों करते थे वे?

यक्ष-प्रश्न

जैसे क्षत-विक्षत हुई अकेली
सूने खेतों में पाकड़ की छाया
जैसे चहबच्चे के मोहार पर
ठहाके लगाती खिली वैजयंती
और फिर इन दोनों का
ग़ायब हो जाना देखते ही देखते

इन दोनों ने
कैसे अपनाया तुम्हारा रास्ता
यह आज भी है यक्ष-प्रश्न
मेरे लिए!

नमामि गंगे

कैसे उसरता है
निपत्ता कर देना किसी को
गुलाबी आँखों के ठमके
मगर अथाह पानी में

मंदाकिनी-सी धीर-गंभीर
ब्रह्मपुत्र-सा चकबिदोर लगाते
कावेरी-सी खलखल हँसती
जीवन-सी प्रवाहित तुम्हारी आँखें
गमगम करती गंगा-सी लगती है मुझे
जो मानती नहीं हैं कभी
‘क्लीन’ गंगा का अधोमंत्र भी…!

था क्या वह…?

तृप्ति के बाद भी एक प्यास है
जो तृप्त होने के ठीक बाद उपजती है
कहीं बहुत भीतर मन के
गहरे लोग प्रायः जानते हैं पचाना
पर सामान्य लोगों से पच नहीं पाता है
व्यक्त हो जाता है वह
थोड़ा गहिकी नज़र से देखने के बाद
मगर अपने में जो अव्यक्त है उसका क्या
वह कहाँ हो व्यक्त

व्यक्त और अव्यक्त के बीच खोजते उसको
उलझते रहते हैं लोग

क्या था वह
वह था क्या अंततः?

जुगाड़

वह जानता था
कि उसके बूते नहीं है जा सकना
मगर हुआ फिर
जा सकता है

इसी गुनधुन में कितने ही वर्षों तक
खेपता रहा समय

फलतः पहुँच गया वहाँ वह
जहाँ नहीं रहना चाहिए था उसे

यह कैसे होता है दोस्त?

हथेली पर समय

हथेली पर समय को रखने वाले
इस कालखंड के पास
समय नहीं बचा है इतना
कि आकर बिलमे उस जगह
जिस जगह से लगभग मिटा दिया गया है
यात्राओं के साक्षी होने को विकल
एक पैर का निशान
वह निशान
जिसमे शामिल होकर नितुआन है
कितनी ही शताब्दियों से अनवरत चलते चले जाने की
सामान्य-सी दिखने वाली
एक असामान्य यात्रा

यह यात्रा किसकी है
मेरी या तुम्हारी

कहाँ की है यह यात्रा
यहाँ की या वहाँ की

कौन है यात्रा में
समय के साथ मैं या फिर
मेरे साथ समय

तुम्हें क्या लगता है भाई
कौन है किसकी हथेली पर?

जनता

नितुआन हुए चारों ओर के बीच
कभी-कभार हाक देने का
सुर-सार करता

सूखे होंठों के बीच से
अचानक-सी निकलती चीत्कार को
रोकने-छेकने में परेशान

निष्प्राण हुई आवाज़ में
बुझे हुए से बुत्ते की ताकाहेरी में
अपने को बिलहता-बहटारता

यह कौन है मेरी ही तरह भाई?

किसान की आत्महत्या के बाद

रात सोने से पहले
सुनने में आया—
‘आटा गूँदते वक़्त
अचानक से निकल आया रक्त
हटाने के घनेरों प्रयास के बीच
नहीं हो सका अलग
अंत में गुँद ही गया’

अखियास किया

सच में
रोटी आज रक्तिम थी

ऐसा क्यों हुआ आज

भाई?

नानी

कितने ही रागों-उपरागों के बावजूद
बिलहती रहीं चुपचाप
अपना सारा संचित धन
मेरे सारे मामा के भरण-पोषण में

मगर
मामा सारे
भरित-पोषित होने के बाद
हो गए अलग

मगर
कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा इससे
बस इतना भर हुआ परिवर्तन कि
पहले खिलाती थी पंचटकिया टॉफ़ी
और अब चरिअनियाँ लेमनचूस
चुपचाप, मामा सबों से छुपाकर
मेरे सारे ममेरों को

मगर
ऐसे कितने दिन खिलाती
बुढ़िया पिलसिम में
रुपए कितनी देती ही है सरकार?

गुंजन श्री (जन्म : 1993) मैथिली की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि हैं। उनसे gunjansir@gmail.com पर बात की जा सकती है। अजित आज़ाद मैथिली कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे lelhakajitazad@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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