लोकनाथ यशवंत की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
मुसीबत
रहता हूँ श्रम का प्रतीक कहलाने वाले ‘विश्वकर्मा’ नगर में
इन दिनों काफी तकलीफ़ में हूँ
निकट ही खड़ी हो गई मस्जिद
देर-अबेर भोपूँ की तीखी आवाज़ में
शुरू हो जाती है अज़ान
बेहद नाज़ुक है धर्म का मुद्दा
इसलिए डेसिबल की मर्यादा पर मुँह खोलें
सवाल ही नहीं पैदा होता
पिछवाड़े के मंदिर में
अलस्सुबह ही प्रार्थना के सुर चीख़ते हैं स्पीकर पर
दाएँ ओर की बसावट में
सरकारी नौकरी में जीवन सड़ा चुके अवकाशप्राप्त
अलापते हैं वंदना ज़ोर-ज़ोर से ध्वनिक्षेपक पर।
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क़ैद हो चुका है मेरा एकांत पेड़ की खोल में
कुपोषित बालक की मानिंद विचार-प्रक्रिया
तोड़ रही है दम
इस कोलाहल में खीझ से भर चला हूँ मैं
भाग गई शांति हरे जंगल में।
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कहते हैं मुझसे प्यार करने वाले मित्र
वहीं पर ठीक हो तुम
हमारे यहाँ गुरुबानी भी होती है साथ में
चर्च का घंटानाद भी
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धर्म तो आया था शांति की गुहार लिए
यह क्या हो गया?
कुलबुलाहट
मेरी जाति से अज्ञात होने से
बेहद बैचैन था वह
लेता रहा कई आड़े-टेढ़े मोड़
फिर पूछ ही लिया उसने ननिहाल के बारे में
नहीं जान पाया अधिक कुछ
फिर जानना चाहा उसने
मेरी बस्ती के बारे में
नहीं लगा हाथ कुछ भी
पत्नी के ननिहाल तक पहुँचा
वहाँ पर भी असहाय ही रहा वह
बच्चों के नाम भी पूछ डाले
बड़े का ‘मुक्तछंद’ छोटे का ‘समुद्र’ सुनकर
किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाया
फिर छेड़ा उसने आरक्षण का ख़ास मुद्दा
मेरा सपाट चेहरा देखकर सकपका गया
आगे वह आदरणीय महान व्यक्तियों पर उतर आया
मैं चुप रहा
फिर इंसानों में भेद करने वाले धर्म की दुहाई देते हुए
खंगाला उसने मेरा धर्म
छूटते ही कहा मैंने उससे :
किसी भी धर्म को रखता हूँ मैं कानों तक
नहीं जाने देता हूँ दिमाग़ में..
तो भीतर तक छटपटा गया वह
चातुर्वर्ण में कहाँ समाता हूँ मैं
इसे लेकर कुलबुलाहट से भर गया वह
उछाल मारने लगा उसका रक्तचाप और
शुगर की मात्रा भी घटने लगी तेज़ी से
आख़िर में बौखलाकर किया उसने सवाल
किस कोटे के अंतर्गत पाई थी तुमने नौकरी
कहा मैंने उससे—कलाकार के।
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कुछ कीड़ें जीते हैं गंदगी में
वहीं पर रेंगते हैं
और मर जाते हैं वहीं पर।
माँ कौसरबानो का स्वप्न
दुनिया की हर माँ
देखती है एक स्वप्न
कोख में पल रहे बालक के महान होने का
मेरी आँखों में भी उतर आया था स्वप्न
कभी सत्य में उतर आए जो…
इस जग को ख़ूबसूरत बनाएगा मेरा बच्चा
होगा वह दया का विराट समंदर
भर देगा करुणा
हर एक की नस-नस में
विनाश कर देगा युद्ध का
रोक लगाएगा अस्त्रों के निर्माण पर
रखेगा अंकुश रक्षा-विभाग पर
नहीं होगी सेना में कोई भर्ती
संगीन की जगह खिल उठेगा
फूलों का बग़ीचा इस धरती पर
ख़ुशहाल होगा हर एक का जीवन विज्ञान से
रखेगा कोई सिंद्धात आइंस्टाइन से भी आगे जाकर
ज्ञात आकाश-गंगाओं के आगे खोज लेगा नई आकाश-गंगाओं को
ईजाद करेगा नई दवाएँ मधुमेह, हृदयाघात, फ़ालिज, कैंसर की
सुलझाएगा मस्तिष्क की गुत्थियों के हर एक तार को
निष्कासित कर देगा सारी बीमारियों को
सम्मान भर देगा शोषित-वंचित जनसमूह में
इंसानों को बाँटने वाले का वीर्य कर देगा ग़ायब
हर एक को देगा आश्रय
कुपोषितों को खिलाएगा पौष्टिक आहार
न्यायालय को अर्थ देगा, न्याय की व्यवस्था
किसी भी धर्म को होने न देगा मनुष्य से बड़ा
अभिव्यक्ति के लिए आविष्कार करेगा वह भाषा का लिपि के साथ
हर एक कान को वरदान प्राप्त होगा संभ्रांत संगीत का
रंगों की नई बुनावट से रूखी आँखों में भर देगा ताज़गी
पाषाण को कुरेद कर बनाएगा सुघड़
अमन की वजह बनेगा वह
उजास भर देगा सब दिशाओं में
निस्संदेह बना देगा वह इस धरती को सुंदर…
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अचानक उन्मादियों की भीड़ घुसी घर में
बालों को खींचकर घसीटा उन्होंने आँगन में
कोख फाड़कर बाहर निकाला शिशु को
और कर दिया ॐ स्वाहा अग्नि में।
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फिर से वंचित हो गया जग एक तारणहार से।
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लोकनाथ यशवंत (जन्म : 1956) सुपरिचित मराठी कवि हैं। उनके मराठी में आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। वह दलित आंदोलन से भी संबद्ध रहे हैं। सुनीता डागा मराठी लेखिका-अनुवादक हैं। वह मराठी-राजस्थानी-हिंदी से परस्पर और नियमित अनुवाद के इलाक़े में सक्रिय हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व उनके अनुवाद में ‘सदानीरा’ पर मराठी कवि श्रीधर नांदेडकर और मंगेश नारायणराव काले की कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
अनुवाद तो बखुबीसें किया है सुनीताजीने ….और कविता तो व्यवस्थाकीं शिखरको उखाडेने जा रही है!
मै हरदम मराठीमें पढ़ता हू ..लोकनाथ यशवंत को !