कविताएँ ::
शिरीष कुमार मौर्य
राग पूरबी-18
मिट्टी
सिर्फ़ मिट्टी नहीं होती
उसकी
कई परतें होती हैं
मन की तरह
जनता
जिन्हें मिट्टी का ढेर
दिखती है
वे सोचते हैं
बारिश होगी ये ढेर
फैल जाएगा
कुछ वक़्त बाद
नज़र भी नहीं आएगा
मिट्टी का जो मन है
उसे ढेर समझने वाले समझ पाते
तो दुनिया में
कुछ तरतीब होती
बारिश आई
पूरब की
धारासार बारिश
मिट्टी फैली
परत दर परत गई
निचले
इलाक़ों में
उन्हें
उठाती हुई
मुझे वह
अनन्य उस राग की तरह
लगी
अपनी ही परतों में
तरतीबवार
करवटें
बदलता है जो
जैसे
जनता का मन
बनाता है
मिट्टी का एक घर
बहुत बड़ा
बच्चे जन्मते हैं
वहाँ
और मिट्टी उठती है
हमारे
बुज़ुर्गों
की
राग पूरबी-19
परिंदों को
आसमान की ज़रूरत है
पतंगों को भी
कभी-कभी
चींटियों को भी
इंसानों
और उनकी उड़न मशीनों ने
जितना
आसमान घेर लिया
उतना आसमान काला पड़ गया
हमेशा को
कोई आफ़ताब उसे
दुबारा
रोशन नहीं कर पाएगा
और
ग़रीबों के ख़्वाबों का जो
एक आसमान हुआ
करता था
उसमें उनके ज़िंदा बच रहने की
हसरतों तक को
चर गए कुछ लोग
मेरे सिर पे हर वक़्त
फड़फड़ाने की विकट आवाज़
आती है
मेरे बालों में रिसता है
क़त्ल हुए
ख़्वाबों का ख़ून
मैं न ग़रीबों में हूँ
न क़ातिलों में
और शाइरों में भी
कहाँ
मशरिक़ी शाइरी का
मैं एक
ख़्वाब भर हूँ
जो अपने आसमान में ख़ूब ऊँचा
उड़ता है
और क़त्ल होने से
पहले ही
जा छुपता है
मग़रिब के किसी घोंसले में
राग पूरबी-20
चिड़ियाँ एक जीवन में
कितनी बार
जन्म दे सकती हैं?
एक चींटी
कितनी बार
मसली जा सकती है?
एक कुत्ता
कितनी बार दुतकारा
जा सकता है?
एक बिल्ली
कितनी बार रसोई से
खदेड़ी जा सकती है?
एक ही सितम कितनी बार हो
कि आदमी
हारे पर बचा रहे
फिर फिर हार जाने को?
ऐसे ही कई-कई
सवालों से
गूँजता है मग़रिब
और मशरिक़ की जानिब से
न जवाब आते हैं
न बारिश
तो हम कहते हैं अकाल के
दिन हैं
ऐसे मौसम में
चिड़ियाँ
चींटियों पर झपटती हैं
बिल्लियाँ चिड़ियों पर
बिल्लियों पर
झपटते हैं कुत्ते
इन्हीं दिनों की ख़ातिर
हर किसी मुल्क में
एक आईन हुआ करता है
इन्हीं दिनों
उसे कहीं छुपा दिया जाता है
और काईद1क़बीले का सरदार या मुखिया। कहता है—
सब ओर सब कुछ सब तरह से
दुरुस्त है
मुल्क में इन दिनों
राग पूरबी-21
तेईस सौ साल पहले यवन
बाईस सौ साल पहले शक न आए होते
तो हिन्दोस्तान कैसा होता?
दो हज़ार साल पहले कुषाण
यहाँ क्या करते थे?
सोलह सौ बरस पहले हूणों ने
बारह सौ बरस पहले मुसलमानों ने
आख़िर क्या करना चाहा
इस मुल्क का?
पुर्तगाली फ़्रांसीसी और अँग्रेज़ न आए होते
तो क्या होता हमारा?
ये बड़े तवारीख़ी सवाल हैं
साहब
मैं तो
सिर्फ़ इतना सोच पाता हूँ
कि चार सौ बरस पहले
अमरूद न आया होता
तो क्या होता
मेरी इस चटोरी ज़बान का
जो बल्लीमारान और दारागंज में
एक साथ
भटकती फिरती है
जिसे
दिल्ली से रब्त है
और
इलाहाबाद से प्यार
राग पूरबी-22
एक कामचलाऊ दुनिया
बख़्शी गई थी हमें
उसी में अंजाम दिए जाने थे
ज़िंदगी के सभी आमाल
कुछ फ़ैसले
उम्मीद की तरह
हाशिए पर रख दिए
गए थे
कुछ ख़ुशियाँ
जो ख़्वाब सरीखी थीं
तामीर से पहले ही टूट
गई थीं
अपनी रातों में
हम तिलमिला कर उठते थे
और टटोलते थे
कई रोज़ से लापता
अपना सिरहाना
जान का
कोई अमान न था
और बोलनी थी
इंसाफ़ की बात
पिछले कई बरसों से
लाखों लोग अपना एक चेहरा
चुनते थे
और फिर उस पर
पछताते थे
दुआओं से चलता था
मुल्क
उसे आईन से चलना था
इस सबके बावजूद
जम्हूरियत से बेहतर कोई निज़ाम न था
दुनिया में
इसी एक आस पर
यह मुल्क पूरबी
आज भी अपनी डगालों और टहनियों में
कोशिश भर
फूलता और फलता है
राग पूरबी-23
मकड़ियों ने जाल बुना
इंसानों के घरों के
हर कोने में वे रहना चाहती थीं
हर चीज़ को
ढाँपना चाहती थीं
अपने रेशम से
उनका रेशम बेहद चिपकदार
हमारे कुछ
काम का नहीं था
पुराने वक़्तों में
जब इंसानों के पास कपास
ज़्यादा था
ख़ुदा भी कुछ ज़्यादा था
रेशम के कीड़े तब ख़ामोश
सोते थे शहतूतों पर
वे सिर्फ़ पत्तियाँ चरते थे
बैंगनी वह फल
इंसानों के लिए छोड़ते थे
बाद में
इंसानों ने उनके अत्फ़ाल तक का
ख़ाना और सब रेशम
लूट लिया
इंसानों ने जो बुना हज़ारों बरस में
इस दुनिया के इर्द-गिर्द
मकड़ियों के जाल से भी ज़्यादा
घृणित
और मज़बूत है
मैं गिरगिट की तरह
सिर उठा-उठा इशारा करता हूँ
ऐसे हर जाल की तरफ़
हे रसूल
क़ाबे से दूर इस पूरब में
मैं भी
एक न एक दिन मार दिया जाऊँगा
पत्थर से
ज़िंदगी की आख़िरी धूप सेंकते
किसी बेगुनाह
पुराने गिरगिट की तरह
राग पूरबी-24
प्रिय कवि येहूदा आमीखाई को याद करते
चरवाहे
जिसे खोजते रहे मग़रिबी
पहाड़ों पर
वह मज़हब नहीं दो वक़्त की
रोटी थी
फ़िलिस्तीन और इज़राइल
सईद और आमीखाई
दो चरवाहे
दोनों ने अपनी बकरियाँ खोईं
पहाड़ों पर
और अपने बेटे भी
दो चरवाहे
दोनों के पास प्यास ज़्यादा थी
और पानी बहुत कम
दो चरवाहे
दोनों अपनी पथरीली ख़ुश्क
ज़मीनों पर
सोते और दफ़्न होते रहे
और उन औरतों का
तो मैंने अभी ज़िक्र ही नहीं
किया
जो लापता हो गईं उनकी इस
दुनिया में
उन बेबस बकरियों की तरह
जिनके चरवाहे चाँदनी रातों में
मुँह ढाँपे
एक नामुमकिन
जन्नत का ख़्वाब देखते थे
किसे मालूम
जो ज़िबह होती रहीं सैकड़ों बरस से
उन पहाड़ों पर
वे सिर्फ़
बकरियाँ ही थीं?
राग पूरबी-25
तेज़ बहते हुए पानी में
आवाज़ पत्थरों और हवाओं की
वजह से थी
मैं अपनी पूरबी में
हहराना कहता था उसे
पेड़ों में आवाज़
पत्तों और तेज़ चल रही हवाओं की
वजह से थी
पेड़ भी हहराते थे
जहाँ भी हवा थी
वहाँ हहराना था
कभी-कभी
हहराने की आवाज़ डरा देती थी
दुःख भी हहराते थे
लेकिन मैं
उनसे डरता न था
उनमें
बुरे वक़्तों की ताक़तवर
हवाएँ थी
और अच्छे वक़्तों की छीजती-सी
उम्मीद
आज
मैं दो ज़बानों और चार बोलियों में
बात करता हूँ
अपने दुखों की तरह हहराते हुए
तो सोचता हूँ
कि कोई ज़बान
कोई बोली तो समझेगा
निज़ाम
निज़ाम ख़ुद आवाम से
बाईस ज़बानों और अड़तीस बोलियों में
बाढ़ पर आई
नदियों की तरह हहराते हुए
बात करता है
पर समझता
उनमें से एक को भी नहीं है
राग पूरबी-26
मशरिक़ में
कुछ ज़मीनें अभागी थीं
कि उनकी फ़स्लें
जोतने बोने वालों का पेट
नहीं भरती थीं
मग़रिब में
कुछ लफ़्ज़ अभागे थे
कि बीच राह में ही
गिर पड़ते थे उनके मानी
जुनूब में एक आदमी
अभागा
मंडी में झाड़न बटोरता
रोज़ मर जाता
और अगले रोज़ फिर
आता था
अपनी झाड़ू लिए
शुमाल में
बारिशें होतीं तो एक पहाड़
थोड़ा और ढह जाता
एक गाँव थोड़ा और कट जाता
दुनियादारी से
इस सबके बीच
मेरे माथे का
कुछ उजाला कम हो जाता
—इस एक इंतज़ार में
मेरे चौतरफ़ा मुझे घेर कर
बैठी रही दुनिया
इस
ज़ुल्मत में भी
जो भरपूर जीता रहा
कभी
कम नहीं पड़ेगा
उसके हिस्से का
उजाला
अगले वक़्तों में कभी
उसके
न होने की आग
लोगों के
होने की आग से भी कहीं ज़्यादा
देर तक
दहकती रहेगी
सभी को बताती हुई
कि आख़िर में
सभी को रहना तो उसी संसार में है
जहाँ आग, पानी और ख़ुश्बू
साथ-साथ रहते हैं
अब यह आप पर है
कि आप वहाँ
कितनी आग कितने पानी
और कितनी ख़ुशबू के
साथ रहेंगे
राग पूरबी-27
दुनिया में
गुलाबों पर क़लम लगाने वाले लोगों के मुल्क
कब कुल्हाड़ी बनाने वालों के
मुल्क बन गए
पता ही नहीं चला
सबसे बड़ी मुश्किल तो
गुलाबों की थी
बीज से लगाने पर वे फूल नहीं पाते थे ठीक से
उनमें रंगों की इफ़रात
क़लमकारी की देन थी
वे बर्बरों, ब्योपारियों और मुसाफ़िरों के साथ
ख़्वाहिश की किसी मट्टी में दबी
छोटी-छोटी
ठूँठ टहनियों की तरह आए
और ग़ैरमुल्कों में
पनपकर बेइंतिहा महक उठे
अपनी ज़मीनों से दूर
उनकी ख़ुशबू
ख़ुदा के आशियाने की ख़ुशबू थी
अच्छा लगता है
जब कभी-कभार
मैं किसी मंदिर में चढ़ा देखता हूँ उन्हें
हालाँकि मंदिरों में उन्हें चढ़ाए जाने की
रवायत कम है
क़लम लगाने वाले वे हाथ सलामत रहें
और सलामत रहें ऐसी रवायात
जिनमें
क़त्ल-ओ-ग़ारत की
बदबू नहीं
गुलाबों की ख़ुशबू आती है
आह
मेरे फ़राख़दिल गुड़हलों के साथ खिले
ये सुर्ख़ गुलाब
कुल्हाड़ियों के शहंशाह
जब दफ़्न होंगे
उनकी क़ब्र पर भी एक गुलाब
मुस्कुराएगा
एक गुड़हल उनके सिरहाने
धरा जाएगा।
राग पूरबी-28
अरावली किसका है?
इस मशरिक़ी मुल्क के
इस मग़रिबी पहाड़ी सिलसिले का
अस्ल मालिक
आख़िर कौन है?
अरावली किसका है?
इसके दर्रो में मशहूर थी हल्दीघाटी
ख़ूँ से लबरेज रही बरसों
ज़रख़ेज़ न हो पाई
ख़ूनी दर्रे अरावली के
किसके हैं?
ख़ून से हरा नहीं
भूरा लाल होता है ज़मीनों का रंग
ये बात किसान जानते थे
सुल्तान नहीं
अरावली की तलहटियों में
ज्वार, बाजरा, मकई की फ़सलें
किसकी हैं?
गुज़िश्ता बहत्तर साला सरकारों की
बुनियाद में दफ़्न वोट किसके हैं?
अरावली की पसलियों में घुसा हुआ
चाक़ू किसका है?
सदर जब सोते हैं
उन्हें
मकई के खेतों में झगड़ते
गीदड़ों की
आवाज़ नहीं आती?
तशद्दुद जब चलता है
अपने बनाए बियाबानों में
गैंडों की तरह
तो उसे दिखाई बहुत कम देता है
और सुनाई बहुत तेज़
अरावली हिन्दोस्तान का
सबसे पुराना पहाड़ है
जिसमें अब मट्टी और चट्टानें कम
आवाज़ें ज़्यादा हैं
जो फेफड़ा है अरावली का
उस इदारे के बारे में
मैं कुछ नहीं कहूँगा उसके अंदर
अभी ताज़ा ख़ून बहा है
झगड़े
जो दर्रों से बाहर अरावली के
माथे पर सज रहे हैं
इन दिनों
और मुहब्बत
जिसमें डूबा ये शाइर
एक पहाड़ की पसलियों से
चाक़ू निकालने की
मुसलसल कोशिश में है
उन तमाम
कोशिशों के ऊपर एक आवाज़
आती है
अरावली किसका है?
अब
शुमाल के शाइर को क्या
अख़्तियार
कि वो मुल्क के मग़रिबी इदारों
या पहाड़ों के
मसलों में दख़लंदाज़ी करे?
उसे चाहिए कि अपनी ही
किसी शुमाली झील में डूब मरे?
राग पूरबी-29
मग़रिब से बढ़ते चले आते थे
लश्कर
और पहुँच कर ठगे-से रह जाते थे
देखते चौंककर
प्रीत का दारउलख़िलाफ़ा
मशरिक़ में था
यहाँ असलहों के साथ आकर भी
आख़िर को
निहत्था ही रह जाता था आदमी
बेपीर-ओ-बेहिस आप रह ही नहीं सकते थे
मशरिक़ में
आपको मुब्तला कर लेती थी ये
ज़रख़ेज़ सरज़मीं
मैं एक सुल्तान का मक़बरा देखता हूँ
जिसके अज़दाद
मग़रिबी थे
उसे मशरिक़ी मट्टी में पनाह मिली
और पाता हूँ
इस्लाम से भी कहीं पुराने लोग
मग़रिब में थे
और पुराणों से भी बहुत पुराना
एक दिल मशरिक़ में
उस दिल में जो फाँक-सी
तवारीख़ ने बनाई है
उसमें शाइरी की चंद किताबें रख दूँ
इतना भर इक ख़्वाब पुरबिया
मेरा है।
राग पूरबी-30
हम पुरबिया
उजड़े बाग़ीचों वाले लोग थे
घरों में गमले सजाते थे
मशरिक़ी नदियों की याद
हमारी देहरी पर कराहती थी
मग़रिबी सहरा की रेत
हमारी वीरानी में पनाह माँगती थी
एक फूल हमारी नींदों में
मुरझाता था
तो बाहर दुनिया में
हज़ार फूल खिल जाते थे
हम रोते थे
हम गाते थे
हम रोते-रोते गाते थे
हम रोते थे कि
कार-ए-नौहागरी मंसूब था
हम पर
हम गाते थे
कि हमारा अपना कोई
नौहाख़्वाँ न था
इस
ख़याल-ए-मशरिक़-ओ-मग़रिब में हम
ख़ुद दास्तान थे अपनी
और दूर-दूर तक कोई
अहल-ए-दास्ताँ न था
राग पूरबी-31
एक भुगता हुआ कल
हमारे पीछे है
और एक नामालूम कल
हमारे आगे
हम
जो आज की बसासतों में
रोशनी करने निकले थे
अब हमारी रोशनी बस्तियों को
जलाने लगी है
हमें न मशाल जलाने की
तमीज़ थी
न उठाने की
हमें तो
अपने मुल्क का अँधेरा भी
ठीक-ठीक
समझ नहीं आता था
जिन्होंने
हमें उजाले बख़्शे
वे हनेरों के
ब्योपारी निकले
अश्क़
जो धुँए के कारण निकलते थे
और जो उमड़ते थे
दिल में चंद ज़ख़्मों के
टीसने से
उनमें फ़र्क़ न कर पाना
मग़रिब-ओ-मशरिक़ की नहीं
इंसानियत के
मरकज़े की हार है
जिसमें हारने वाले
बख़ूबी
जानते हैं
कि वो
एक पसमांदा रोशनी के हाथ
अपनी ज़रख़ेज़
ज़मीनों का सौदा कर बैठे हैं
यानी
जन्नत के ख़्वाबों के हाथ
दुनिया में
अपनी बेहद ज़रूरी कुछ
नींदों का।
राग पूरबी-32
मशरिक़ में एक ईश्वर था अब नहीं रहा
मग़रिब में एक अल्लाह को लोग कब का दफ़्न कर आए
एक फूल दुःख की लपट में
मेरी आत्मा की तरह झुलस गया है
एक रिश्ता
अंतिम अग्नि में
मेरी देह की तरह जल रहा है
एक कवि मेरी तरह मर गया था
यहाँ अब
सिर्फ़ एक नागरिक बचा है
एक शहर आज दिल्ली की तरह ढह रहा है
कल वहाँ
सिर्फ़ एक रजधानी बचेगी
कुछ लोग अब भी दुनिया में
मेरा पता पूछेंगे
जबकि मुझको मेरे मुहल्ले में ही कोई
जानता नहीं है
मतदान के बाद अँगुली पर लगी स्याही भी
इतनी जल्दी नहीं मिटती
जितनी जल्दी मेरा ख़याल मिट जाता है
रोज़
किसी न किसी पड़ोस में ढाढ़स बँधाने गया मैं
मरा हुआ बैठा रहता हूँ
चटाई पर
और मेरा हाल पूछती रहती है
सामने पड़ी मृत देह
जिस पर एक अदद लकड़ी
या एक मुट्ठी मट्टी डालना
मुझ पर
फ़र्ज़ बताया गया है
राग पूरबी-33
ये मैदान-ए-जंग नहीं
जम्हूरियत का
उमस भरा इलाक़ा है
यहाँ गिरने के बाद
हर किसी से
उठा भी नहीं जाता है
कभी
शहंशाह गिरता है
धड़ाम
और कभी
गिरती है आवाम
बहुत बरस बाद आती है
उसके
गिरने की आवाज़
तब तलक
हम देखते रहते हैं
चुपचाप
आईन की ओर
रस्ता बना रही
दीमकों का
बेआवाज़ चलना
राग पूरबी-34
नींदों में
थकान उतारी हमने
दिमाग़ पर बोझ
और दिल में दर्द इतना था
कि ख़्वाब
हासिल हुए
ख़्वाबों में
एक ख़ुशी तामीर की हमने
और उसे सुबहों तक
बचा नहीं पाए
एक
बहुत उजली सुबह में
हमने पाया
कि चार ही क़दम दूर
फिर एक
अँधेरा खड़ा है
हम अँधेरा छाते ही
सो जाने वाले लोग थे
और हमसे उम्मीद थी
कि इस मुल्क-ए-अज़ीम में
एक अफ़सुर्दा2उदास। जम्हूरियत के
हम
निगहबान बनेंगे।
शिरीष कुमार मौर्य सुचर्चित हिंदी कवि-आलोचक और अनुवादक हैं। यहाँ प्रस्तुत सत्रह कविताएँ उनकी ‘राग पूरबी’ कविता-शृंखला के अंतर्गत हैं। इस शृंखला की प्रारंभिक सत्रह कविताएँ कवि-लेखक अरुण देव संपादित ई-पत्रिका ‘समालोचन’ पर प्रकाशित हो चुकी हैं, उन्हें यहाँ पढ़ें : राग पूरबी