कविताएँ ::
शिरीष कुमार मौर्य
भूमिका
मेरी बोली
और
मेरे पहाड़ पर लोगों में
बची है
रागात्मिका वृत्ति
इसीलिए
एक गीत बचा है यहाँ
जिसे हम
रितुरैण कहते हैं
रितुरैण यानी रितुरु्वैण यानी
किसी ख़ास ऋतु में फूटती रुलाई का गीत
और रितुरैण यानी ऋतु का पलटना
यों रूढ़ि है कि
चैत्र में मायके की याद
और भाई की प्रतीक्षा में
गाया जाए रितुरैण
रहा ऋतुओं का पलटना
तो वह रूढ़ि नहीं
विज्ञान है
मैं हिंदी का एक लगभग कवि
लिखता
और गाता हूँ
हर ऋतु में
हर आस
हर याद
और हर प्रतीक्षा में इन्हें
जैसे
क्रूरता के विरुद्ध मनुष्यता की आस में
चहुँओर से घेरते असाधारण के विरुद्ध
साधारण की याद में
अन्याय के बीच रहते अपने जनों के लिए
न्याय की प्रतीक्षा में
—
इसी रागात्मिका वृत्ति के सजग पहरुए
रामचंद्र शुक्ल
की स्मृति को
यह प्रस्तुति
सादर समर्पित…
—
हृदय का शिवालिक
(रितुरैण-७)
दराँतियों पर धार तो है
पर हेमंत ऋतु में घास से विहीन खल्वाट हैं पहाड़
शिवालिक की सुखद गर्मियाँ
गई ऋतुओं की बात है
दरअसल मैं अवसाद में न होता तो कहता
आगामी ऋतुओं की बात है
हेमंत ऋतु में पश्चिमी तट पर है समुद्री तूफ़ान
हेमंत ऋतु में भाबर के माथे पर कुछ बादल हैं
मै सोचता हूँ
क्या सचमुच हेमंत ऋतु में हेमंत ऋतु के अलावा
कुछ नहीं है
देखता हूँ
कुछ ही दूरी पर शिशिर खड़ा है
ठिठुरता
अब ये हम मनुष्यों पर है कि
उसे कुछ गर्म बनाएँ
मैदानों की ओर न देखें
हृदय के प्रिय शिवालिक पर ही
एक आग जलाएँ
फूलों के बारे में गाया जो
ऋतुगीत था
आग के बारे में गाएँगे जो
रितुरैण होगा।
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा और ऋतु कठिन शिशिर की
(रितुरैण-१०)
चौदह रात दूर है
पूरा चाँद
खेतों में बनी झोपड़ियों मे कितनी रात दूर है
हर आदमी के हिस्से में
एक पूरी रोटी
कोई बता सकता है क्या?
यहाँ आग है
सेंकने को कुछ नहीं अपनी निर्धन देहों के सिवा
पूरी रोटी
पूरा चाँद नहीं है
हाड़ कँपकँपाती ऋतु शिशिर के विरुद्ध
खिले हैं फूल लाल
—ऐसा कहने से
मैं प्रगतिशील हो सकता हूँ घनघोर
कठिन इस ऋतु शिशिर की
अगवानी में
खिले हैं फूल लाल-गुलाबी-पीले-श्वेत-केसरिया
कहने से ठहराया जा सकता हूँ
विकट परंपरावादी
फूलों के रंग और शब्दों के अर्थ भर पर
टिकी
इन दिनों प्रगतिशीलता
हिंदी समाज की
हमसे खो गए कुछ रंग
अपने ही
जो अपार प्रकृति ने दिए
हमको
हम भूल गए
शब्दों में अपने होने के
अभिप्राय रखना
ओ साथी
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा है
और कठिन ऋतु शिशिर की
इन दिनों
रितुरैण अगर गाऊँगा
प्रतिक्रयावादी कहाऊँगा
आत्मकथ्य
(रितुरैण-१३)
शिशिर की कठिनाइयों में
जन्मा मैं
सुना कि माँ के जीवन को ख़तरा था
उस रात
उन्हें एंबुलेंस में लिटा
पीछे अपनी लम्ब्रेटा पर चले थे पिता
सड़कों पर जगह-जगह कौड़ा तापते
लोगों के बीच से
ठिठुराती उस रात में
भय को पिछली सीट पर बिठाए
पसीने से भीगे
पिता जाते थे अस्पताल की ओर
आगे शिशिर की रात थी
लंबी
कहते हैं पिता—
सब आशंकाओं के पार
कुछ देर बाद
शिशिर की उस रात उन्होंने
अपना एक अलग खिलता वसंत
देखा था
देखा था एनिस्थिया के असर से बाहर आता
उन्नीस बरस की माँ का मुस्कुराता चेहरा
हर शिशिर में अपने होने से जूझता
सोचता हूँ
मैं अब वृद्ध लेकिन और तेजस्वी हो चले
उस युगल का प्रेम हूँ
उम्मीद हूँ
स्वप्न हूँ
ख़ुशी हूँ
कैसी यह द्वाभा जीवन की
कि हर शिशिर में भरपूर खिलता
वसंत ही रहना है मुझे
और जो अपने भीतर का
रितुरैण है एक
टीसता
मस्तिष्क की सिकुड़ती धमनियों में
हृदय को
किसी भूचाल की तरह कँपाता
उसे गाना नहीं
चुपचाप सहना है मुझे
समास
(रितुरैण-१५)
कोहरे से ढँका बहुत गाढ़ा-सा
शिशिर है इस बार
और भीतर की आग के सँभाल में
मेरे हाथ
अब जलने लगे हैं
एक लहर मेरे दिल को कँपाती गुज़रती है
आप उसमें शीत जोड़ कर एक समास बना सकते हैं
यह जानते हुए भी
कि समकालीन समाज समासों से नहीं चलता
मैं ख़ुद एक नहीं
कई-कई समास रचता हूँ अपनी भाषा में
शीत के साथ युद्ध एक समास था अब नहीं है
सुरक्षित और निरापद है दुनिया
उपसर्गों और प्रत्ययों से काम चल जाता है
हम आजीवन कलप सकते हैं
मनुष्यता के लिए
मैं फ़िलहाल
अपने ही एक शिशिर में फँसा हूँ
जो लहर मेरे दिल को कँपाती है उसी के सहारे
अपने भीतर की आग में
लपट उठाने की कोशिश करता हुआ
मैं एक दिन
अपने ग्रीष्म में चला जाऊँगा
वसंत मध्य में रहेगा
मेरी रागमाला का प्रमुख राग
वह कभी रहा ही नहीं
मध्य में अचानक उसका खिल उठना
मेरी नहीं
उसकी नियति है
घर के बुख़ार में
(रितुरैण-१६)
गए दिनों की बातें
कभी आने वाले दिनों की बातें होंगी
मैं ग्रीष्म में मिलूँगा
वर्षा इस वर्ष कम होगी
शरद से मैं कभी आया था
हेमंत में मैं अभी रहा था
शिशिर मेरा घर है इन दिनों
वसंत को मैं सदा देखता रहा
बिना उसमें बसे
मेरे रितुरैण में
चैत्र मास
वसंत के अंत नहीं
ग्रीष्म के
आरंभ की तरह रहता है
ओ मेरी सुआ
इतना भर साथ देना
कि इस ग्रीष्म में मेरा रह पाना
रह पाने की तरह हो
जैसे कोई रहे
कुछ दिन अपनी ही किसी आँच में
बुख़ार में रह रहा है
न कहें लोग
रवायत
(रितुरैण-१७)
मैं ऋतु का नाम नहीं लूँगा
एक दु:ख कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं फूल का नाम नहीं लूँगा
एक रंग कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं दृश्य के ब्यौरों में नहीं जाऊँगा
आप देखना कि मैं कहाँ जा पाया हूँ
कहाँ नहीं
हिमालय की छाँव में
शिवालिक होना मैं जानता हूँ
उस ऋतु में
जब धसकते ढलानों से
मिट्टी और पत्थर गिरते हैं मकानों पर
एक कवि चाहता था
कि शिवालिक की छाँव में कहीं
घर बना ले
उस घर पर
जब ऋतुओं का मलबा गिरे
तो कोई नेता
मुआवज़ा लेकर न आए
कविता में लिखे हिसाब
गुज़री ऋतुओं के
तो चक्र में कहीं कोई टीसता हुआ
वसंत न फँस जाए
किसी भाई को पुकारे कोई बहन
तो उसके स्वर की नदी
रेता बजरी के व्यापारियों से
बची रहे
भरी रहे जल से
चैत में हिमालय का हिम भर नहीं गलता
ससुराल में स्त्रियों का दिल भी जलता है
मेरे शिवालिक पर
दरअसल मुझे महीने का नाम भी नहीं लेना था
पर रवायत है रितुरैण की
चैत का नाम ले लेना चाहिए।
शिशिर
(रितुरैण-१८)
शिशिर में
बूढ़े और बीमार पक्षी मर जाते हैं
नई कोंपलें
झुलस जाती हैं पाले से
शिशिर में
शुरुआत और अख़ीर दोनों को
सँभालना होता है
शिशिर की क्रूरता
ग्रीष्म में बेहतर समझी और समझाई
जा सकती है
इसे इस तरह समझिए कि
जब किसी भी तरह
घर नहीं बना पातीं अपने उत्तरजीवन के
ससुराली शिविर को
चैत में
विकट कलपते हृदय से
स्त्रियाँ गाती हैं
मायके के शिशिर को
ओ मेरी सुआ
(रितुरैण-१९)
शिशिर आए तो
चोट-चपेट में टूटी
दर्द के मलबे में दबी
अपनी अस्थियों को समेटूँ
और धूप में तपाऊँ
कोई पूछे
तो बताऊँ हड़िके तता रहा हूँ यार घाम में
ऐेसा ही हो शिशिर का विस्तार
जीवन के
बचे-खुचे वर्षों तक
हो
पर ज़्यादा कुहरा न हो
अस्थियों को धूप का ताप मिले
दिल को
आस बँधे चैत की
ग्रीष्म का
आकाश मिले खुला
इच्छाओं को वन-सुग्गों-सी
सामूहिक उड़ान मिले
गा पाऊँ
रितुरैण अपने किसी दर्द का
छटपटाता रहे जीवन सदा
इन्हीं विलक्षण लक्षणाओं से बिंधा
ओ मेरी सुआ
पहले भीतर से दहूँ
(रितुरैण-२०)
शिशिर के बीच
उम्र
अचानक बहुत-सी बीत जाती है
मेरी
कुछ शीत में
कुछ प्रतीक्षा में
मैं ढलता हूँ
पश्चिम में समय से पहले ही
लुढ़क जाता है
सूरज का गोला
और ऋतुओं से ज़्यादा
इस ऋतु में
वह लाल होता है
लिखने के बहुत देर बाद तक
गीली रहती है रोशनाई
वार्षिक चक्र में
ऐसी ऋतु एक बार आती है
जीवन चक्र में
वह आ सकती है
अनगिन बार
मैं जवान रहते-रहते
अब थकने लगा हूँ
इस शिशिर में
मेरी देह
प्रार्थना करती है
—मेरी आत्मा तक पहुँचे ऋतु
शीत की
मुझे कुछ बुढ़ापा दे
कनपटियों पर केश हों कुछ और श्वेत
चेहरे पर दाग़ हों
भीतर से दहने के
इस तरह
जो गरिमा
शिशिर
अभी मुझे देगा
उसे ही तो
गाएगी
मेरी आत्मा
चैत में
ईश्वर की तरह प्रेम
(रितुरैण-२२)
किसी ऋतु के
न आने की पीड़ा
और उस ऋतु में
चले जाने की
विकट आवश्यकता के होने से
आदमी पर्वत उठा लेता है
कानी उंगुली पर
निज बालक को
पालता हो जैसे
ऋतुओं के निकट सान्निध्य में
एक अंधा भक्त कवि
ईश्वर को पालता है ऐेसे
मैंने ईश्वर को नहीं
ईश्वर की तरह
प्रेम को बसाना चाहा है
अपने भीतर
और चहुँओर जो कीच मचा है
मेरी देह जो लिथड़ी है
समकालीन प्रसंगों में
किसी आने वाली ऋतु में धुल जाएगी
किसी आने वाली ऋतु में जल होगा
सिर्फ़ मेरे लिए
किसी आने वाली ऋतु में अग्नि होगी
सिर्फ़ मेरे लिए
रितुरैण होगा
सिर्फ़ मेरे लिए
जिसे
एक स्त्री उम्र भर गाएगी
घुघूती का बासना
(रितुरैण-२३)
नायाब रिश्ते कमाए
और
ख़राब कविताएँ लिखीं
गौरव के बीच
अचानक शर्मिंदगी मिली
पाले से झुलसी दूब पर
ठिठकी हुई
ऋतु मिली
शिशिर की
भोर हुई जीवन की
शीत में लिपटी
कोहरे के पार जो दिखाई दी
धुँधली-सी
मेरी आत्मा थी
जो आवाज़ थी मेरे पीछे
बुदबुदाहट सरीख़ी
रितुरैण था
किसी और ऋतु में
जिसे किसी ने गाया था
बहुत टूट कर
बिखर कर
वह मेरे पीछे आया था
अब भी सुनाई देता है
मद्घम
जैसे बाँज की डाल पर
घुघूती का बासना
वन-सुग्गा
(रितुरैण-२५)
पूर्णिमा से ठीक पहले का चाँद है
आकाश में
पौष का अंत
कल माघ होगा
शिवालिक से देखो तो
तराई में भरा झाग दिखता है धुँध का
कुछ ऊपर चंद्रमा
अपनी कलाओं से कुछ ऊबा हुआ-सा
मेरा घर
उसी झाग में कहीं है
न जाने किस
बुलबुले के नीचे
वह गर्म साँस छोड़ता है
तो झाग में
कुछ हलचल होती है
मेरे आँगन में जल रही थोड़ी-सी आग
शीत के उठान पर
मेरी देह के लिए ज़रूरी है
किसी ऐसी ही ऋतु में
कभी कोई ऐसा ही दिन होगा
जब मुझे
बहुत सारी आग की ज़रूरत होगी
किसी जलधारा के ऊपर
मेरा बिछौना होगा
यह लिखते हुए
मैं किसी अवसाद में न मान लिया जाऊँ
प्रमाद में ज़रूर हो सकता हूँ
जीवन को कभी अचानक
और किसी चीज़ की नहीं
प्रमाद की ज़रूरत होती है
जहाँ जीवन की अंतिम अग्नि जलती है
ठीक उसी के नीचे
जीवन की अंतिम जलधारा भी सोती है
जीवन के किसी माघ मास में
अग्नि जलेगी
अभी से कोशिश करूँगा तो उसके नीचे की
जलधारा भी साफ़ रहेगी
जैसे रहते हैं वन-सुग्गे
मैं भी चैत्र मास के किसी रितुरैण में रहूँगा
ऋतुओं के साक्ष्य में ही कहीं
कभी दहूँगा
कभी बहूँगा
आना-जाना
(रितुरैण-२७)
वसंत तू आना
मुझसे हाथ भर मिला कर गुज़र जाना
वसंत तू आना
पर क्या करूँ
मुझे जितना जल्दी हो सके
है ग्रीष्म में जाना
तू आना
तो घरवालों से बतियाना
मैं कुछ दूर
अपने प्रिय ग्रीष्म में रहूँगा
पंचमी मनाना
मनाना मेरे कवि-पुरखे का जनमबार
तू कभी भी आ सकता है
जैसे शिशिर के बीच पड़ोस के जंगल से
माथे पर मद का वसंत लिए घूम रहे
जंगली हाथी के
चिंघाड़ने की आवाज़ आती है
कुछ दोस्त कहते हैं
वसंत अब दो हज़ार उन्नीस में आएगा
जैसा वसंत वे चाहते हैं
उसे एक कवि ने कभी भड़ुआ वसंत कहा था
मैं उनका ऐतबार नहीं करता
मैं तो तेरा भी ऐतबार नहीं करता
मैं ऐतबार करता हूँ
उस ऋतु का
जब गरमी से पपड़ाए खेतों में
पानी की क्यारियाँ बना
धान की पौध डालते हैं मेरे जन
जब एक गहरे अवसाद के बावजूद
डालों पर फल पकते हैं
हमें मिठास से भरते हैं
सुग्गे मारते हैं चोंच
तो मौसम
और दहकता है
मेरी देह से
टपकता रक्त भी
सोंधा महकता है
उस ऋतु का रितुरैण कोई नहीं
रचता है
उसी को रचते
एक दिन मेरी देह
अगले किसी शिशिर में
राख बनेगी
अगले किसी शिशिर की कोहरे से भरी
हवाओ
उसे तुम गाना
इस तरह
कि कोई सुन न पाए
न जान पाए आख़िरी चोंच मार गए
सुग्गे का उड़ जाना।
***
शिरीष कुमार मौर्य हिंदी के सुपरिचित कवियों में से एक हैं। वह कविता और आलोचना की दुनिया में लगातार सुदीर्घ और उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। वह दूर के राही हैं और अपने बहुत सारे वरिष्ठों और साथियों की तुलना में रुके और चुके नहीं हैं। वह कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल (उत्तराखंड) में प्राध्यापक हैं। उनसे shirish.mourya@gmail.com पर बात की जा सकती है। यहाँ प्रस्तुत कविता-शृंखला ‘सदानीरा’ के आग्रह पर प्रकाशन के लिए उन्होंने इस पत्र के साथ भेजी है :
प्रिय अविनाश,
विलंब हुआ पर भेज रहा हूँ। यह ‘रितुरैण’ नाम से पूरी सीरीज़ कह लो या किताब ही है—77 कविताओं की, उसमें से कुछ तुम्हारे सामने हैं अब। भूमिका सबसे पहले दे दी है।
तुम्हारा
शिरीष