आलेख ::
शुभनीत कौशिक
मेहनत और प्यार के धागे से बुने हुए शहर की दास्ताँ
दुर्गापूजा, फ़ुटबाल और रसगुल्ले से इतर भी एक कोलकाता है। प्रेम और श्रम के रस से सिक्त उसी कोलकाता की मर्मस्पर्शी कहानी है ‘आशा जावार माझे’ (लेबर ऑफ़ लव)। उस शहर की कहानी, जिसे रोज़ाना आम लोग अपने ख़ून-पसीने से रचते-गढ़ते हैं। इस संवादहीन फ़िल्म में एक शहर अपनी वैविध्यपूर्ण छवियों के साथ मुखर हो उठता है। अपनी समूची ऐंद्रियता और भौतिकता के साथ। फ़िल्म तीन मुख्य किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें से दो हैं—कोलकाता के पुराने इलाक़े की एक गली में रह रहा एक विवाहित युगल यानी ऋत्विक चक्रवर्ती और वासवदत्ता चटर्जी द्वारा निभाए गए किरदार। जबकि तीसरा किरदार है ख़ुद कोलकाता—अपने बहुआयामी अक्स और बहुरंगी तेवरों के साथ।
शहर की रोज़मर्रा ध्वनियों से रची एक सिंफ़नी है आदित्य विक्रम सेनगुप्ता की फ़िल्म ‘लेबर ऑफ़ लव’। ट्राम, ऑटो, फ़ैक्ट्री के साइरन की ध्वनि कमरे में चलते खटारा पंखे की आवाज़ में अंतर्गुंफित हो जाती है। पड़ोस के घर में चल रहे संगीत के रियाज़ को मानो संगत देती है—ठेलेवालों और फेरीवालों की आवाज़। टेलीफ़ोन की घंटी होड़ लगा लेती है, कूकती हुई कोयल से। झुंड में उड़ते हुए कबूतर नज़दीक ही गुजरती हुई रेल के डब्बों की धड़धड़ाती हुई आवाज़ से प्रतिस्पर्धा ठानते हैं। सैंडिल और चप्पलों की खटपट, घंटा-घड़ियालों और शंख की ध्वनियाँ। भिगोए हुए कपड़ों की फेनिल बुदबुद, तली जाती मछली का चुरचुरापन—ये सभी वे ध्वनियाँ हैं, जो ‘आशा जावार माझे’ में दर्शाए कोलकाता को रचती हैं।
यह फ़िल्म एक शहर के माध्यम से भीड़ से निविड़ एकांत तक, कोलाहल से चुप्पी तक का आख्यान रचती है। इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारों, राजनीतिक रैलियों के शोर से चहुँओर पसरी हुई नीरवता तक। एकांत, चुप्पी और नीरवता की इसी पृष्ठभूमि में नेपथ्य में हौले से उभरती हैं गीता दत्त, इंदुबाला देवी और संध्या मुखर्जी की सुमधुर आवाज़ें। ‘तुमि जे आमार’, ‘निशिरात बाँका चाँद आकाशे’, ‘उज्ज्वल एक झाँक पैरा’, ‘ओ घोरे एले मनोहर’ जैसे गीत भी रचते हैं इस शहर को। शहर का यह मर्मस्पर्शी आख्यान जब अपने आख़िरी पड़ाव पर रुकता है। तो उस्ताद बिस्मिलाह खान की शहनाई ‘राग तिलक कामोद’ में उस शहर की व्यथा-पीड़ा-संघर्ष-जिजीविषा को अपना स्नेह अर्पित करती है।
ध्वनियों-संगीत के प्रति अपने संवेदनशील बर्ताव के जरिए यह फ़िल्म दिग्गज फ़िल्म-निर्देशक आंद्रे तारकोवस्की की भी याद दिलाती है। तारकोवस्की का मानना था : ‘‘संगीत का प्रभावी इस्तेमाल दृश्य-छवियों के प्रभाव को और तीव्रता प्रदान करता है। साथ ही यह उन्हीं दृश्य-छवियों के परिपार्श्व में विचारों की एक समानांतर दुनिया भी दर्शकों के सामने खड़ी कर देता है।’’ संगीत के महत्त्व की चर्चा करते हुए तारकोवस्की ने कहा था कि लेखक-निर्देशक के जीवनानुभवों से रची हुई, फ़िल्माई जा रही दुनिया को संगीत गेयता (लिरिक) भी प्रदान करता है।
‘आशा जावार माझे’ के ध्वनियों के इस समृद्ध संसार के साथ ही जुड़ जाती है, शहर की ‘मैटेरियलिटी’ को उसके विभिन्न अक्सों में दर्शाती हुई फ़िल्म की दृश्य-योजना। कमरे में नि:शंक विचरती हुई बिल्ली, अलगनी पर सूखने को टँगे हुए कपड़े, अलसाई हुई देह पर थपकी देती हुई उँगलियाँ, सँकरी गलियाँ, भीगे हुए पैरों के छोड़े हुए क्षणिक पदचिह्न, देहरी पर रखी हुई चाभी, दरवाजे पर लटका हुआ पीतल का ताला, आस्था में झुके हुए सिर, पलंग के सिरहाने पर टिका हुआ सिर, प्रिंटिंग प्रेस और हैंडबेग का कारख़ाना, माछ बाज़ार, बिजली के तार और खंभे, उन पर बैठे हुए कौवे, अस्त होता हुआ सूर्य—ये सब मिलकर गढ़ते हैं उस शहर को, जो एक क्षण में जितना जाना हुआ है, दूसरे ही क्षण में उतना ही अजनबी बन जाता है। फ़िल्म के इस अद्भुत छायांकन का श्रेय जाता है—महेंद्र जे. शेट्टी और आदित्य विक्रम सेनगुप्ता को।
‘आशा जावार माझे’ आम लोगों के रोज़मर्रा अनुभवों के जरिए रोज़-ब-रोज़ रचे जाते कोलकाता को दर्शाती है। इतिहासकार मिशेल द शेर्तु ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘वॉकिंग इन द सिटी’ में ठीक ही लिखा था : ‘‘किसी शहर में पैदल चलते हुए आम लोग ही उस शहर को, उससे जुड़े अनुभवों को बुनियादी रूप से रचते हैं। पसीने से लथपथ अपनी देह से आम लोग वह नगरीय text (अर्बन text) लिखते हैं, जिसे भले ही वे न पढ़ पाएँ, लेकिन जिसके बग़ैर शहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’’
वर्ष 2007-09 के दौरान आई आर्थिक मंदी की पृष्ठभूमि में बनाई गई इस फ़िल्म में राजनीतिक-आर्थिक संकट के दरमियान एक विवाहित युगल के गरिमापूर्ण संघर्ष को दर्शाया गया है। फ़िल्म की शुरुआत ही नौकरियों में छँटनी की एक ख़बर से होती है। असंतोष, चिंता और आजीविका पर मँडराते संकट के काले बादलों के बीच यह फ़िल्म एक युगल के प्रेम, मानवीय गरिमा और स्नेह से भरे संबंधों के ज़रिए उम्मीद बँधाती है, जिजीविषा जगाती है। यह सब कुछ करते हुए फ़िल्म प्रेम-प्रदर्शन के लिए कोई विराट आयोजन नहीं करती, कोई भूमिका नहीं बाँधती, बल्कि दैनंदिन जीवन के छोटे-मोटे कामों के जरिए ही विवाहित युगल के बीच गहरे प्रेमभाव को दर्शा देती है। तुरपाई के लिए रस्सी पर टँगी हुई फटी पतलून भी इसका हिस्सा बन जाती है।
इसी क्रम में फ़िल्म प्रतीक्षा का आख्यान भी रचती है, जो उसे अपेक्षित लय प्रदान करती है। फ़िल्मों में लय (रिद्म) की भूमिका पर तारकोवस्की ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘स्कल्पटिंग इन टाइम’ में लिखा था : ‘‘फ़िल्म छवियों का सबसे प्रभावशाली अंग होती है, उसकी लय (रिद्म)। जो हरेक फ़्रेम में समय की धारा को अभिव्यक्त करती है। सिनेमा में लय, फ़्रेम में दृश्यात्मक रूप से दर्ज की जा रहे किसी वस्तु के जीवन-क्रम के जरिए संप्रेषित की जाती है।’’ लय के ज़रिए ही, तारकोवस्की के अनुसार, एक फ़िल्म-निर्देशक अपनी वैयक्तिकता और विशिष्टता को प्रकट करता है। लय के माध्यम से ही वह अपनी कला-कृति (फ़िल्म) को अपनी विशिष्ट शैली प्रदान करता है, उस पर अपनी वैयक्तिक छाप छोड़ता है, जो उसे दूसरों से अलग बनाती है।
‘आशा जावार माझे’ में समय भी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराता है—कभी शहर के बीचोबीच स्थित क्लॉकटावर के ज़रिए, तो कभी फ़ैक्ट्री में बजते साइरन के माध्यम से और कभी स्नेह की गर्माहट से भरे आत्मीय क्षणों में कलाई पर बँधी घड़ी पर अचानक पड़ती निगाह के ज़रिए। समय मोबाइल पर सेट अलार्म के बजने के साथ भी उपस्थित हो जाता है। फ़िल्म शहर के ऐसे इलाक़ों का चक्कर काटती है, जहाँ समय की धारा रुक-सी गई प्रतीत होती है। समय फिर भी वहाँ मौजूद है। अपनी अनुपस्थिति में उपस्थित। कहना न होगा कि समय की यह प्रस्तुति फ़िल्म का आंगिक हिस्सा बनकर सामने आती है।
समय ने, घड़ियों ने—घंटे, मिनट और सेकंड की पूरी परिकल्पना ने—आधुनिक समय में हमारे रोज़मर्रा के जीवन को किस तरह प्रभावित किया है, इस संदर्भ में कई दशक पहले ब्रिटिश इतिहासकार ई.पी. थॉम्पसन ने एक बेहतरीन लेख लिखा था। ई.पी. थॉम्पसन ने दर्शाया कि औद्योगिक पूँजीवाद ने श्रम-विभाजन, श्रमिकों पर नियंत्रण, श्रम-क़ानूनों और घंटों, घड़ियों, स्कूलों और धर्मोपदेशों के ज़रिए कैसे श्रमिकों के दैनंदिन व्यवहारों को पूँजीवादी हितों के अनुरूप ढाला और कैसे समयबद्ध अनुशासन को आम लोगों पर थोपने में सफलता हासिल की। इस पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया में आराम और मनोरंजन के क्षणों, खेलकूद और मेले जैसी सामूहिक गतिविधियों पर रोक लगाने, उन्हें कम-से-कम करने की भी भरपूर कोशिश की गई। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1967 में प्रकाशित हुए थॉम्पसन के उस विचारोत्तेजक लेख का शीर्षक ही है : ‘टाईम, वर्क-डिसीप्लिन एंड इंडस्ट्रियल कैपिटलिज़्म’।
आदित्य विक्रम सेनगुप्ता अपने एक साक्षात्कार में बताते हैं कि शहर में एक विवाहित युगल के रोज़मर्रा के जीवन को इस तरह दर्शाने की प्रेरणा पहले-पहल उन्हें इतालवी कहानीकार और उपन्यासकार इतालो काल्विनो की कहानी ‘द एडवेंचर ऑफ़ ए मैरिड कपल’ पढ़ते हुए मिली। काल्विनो की वह कहानी एक ऐसे विवाहित युगल की कहानी है, जो एक ही फ़ैक्ट्री में अलग-अलग शिफ़्ट में काम करते हैं। इस वजह से वे एक-दूसरे के साथ समय नहीं बिता पाते। उनके मिलन का क्षण सीमित है, क्षणिक है। लेकिन जुदाई के लंबे क्षणों में भी वे मिलन की स्मृतियों की गर्माहट से अपने को सांत्वना देते हैं।
कोलकाता को लेकर जब आदित्य विक्रम सेनगुप्ता ने यह फ़िल्म बनाने की परियोजना को मूर्त रूप देना शुरू किया, तब इस शहर से जुड़ी हुई बचपन की स्मृतियाँ उनके ज़ेहन में एक-एक कर उभरने लगीं। आदित्य विक्रम सेनगुप्ता इस शहर से जुड़ी ध्वनियों और छवियों की अपनी बचपन की स्मृतियों को वर्तमान में गूँथकर कोलकाता को दर्शकों के सामने रखते हैं। जिसमें कोलकाता एक नूतन स्वरूप में उभरकर सामने आता है, अपनी समूची चित्रमयता के साथ जिसमें अलग-अलग ध्वनियाँ हैं, छवियाँ हैं, आते-जाते मनोवेग हैं और शहर की बनावट-संरचना की जटिलताएँ भी शामिल हैं। अदित्य कहते हैं कि उनकी कोशिश रही है कि वह इस फ़िल्म में भरपूर विवरण-सूचनाएँ दें, ध्वनि और छवियों से एक समृद्ध संसार रच दें। लेकिन उस दृश्य-श्रव्य संसार की व्याख्या, उसे अर्थवत्ता प्रदान करने का काम वह अपने सुधि-सहृदय दर्शकों पर ही छोड़ देना चाहते हैं।
उल्लेखनीय है कि स्मृतियों और समय के गहरे अंतर्संबंध की चर्चा करते हुए तारकोवस्की ने अपनी विचारोत्तेजक किताब ‘स्कल्पटिंग इन टाइम’ में लिखा था कि समय और स्मृतियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। उनके अनुसार, ‘समय और स्मृतियाँ अंतर्गुंफित होती हैं। इतना तो स्पष्ट है कि समय की धारणा के बग़ैर स्मृतियाँ भी अस्तित्व में नहीं रह सकतीं। लेकिन स्मृतियाँ ख़ुद में इतनी जटिल परिघटना हैं और हमारे जीवन को इतने विविध रूपों में प्रभावित करती हैं कि हम चाहकर भी उस पूरी प्रक्रिया को उसकी समग्रता में पारिभाषित या दर्ज नहीं कर सकते।’ अकारण नहीं कि तारकोवस्की का मानना था कि पात्रों, रंग-सज्जा, संपादन और संगीत के बग़ैर भी फ़िल्म बनाई जा सकती है, लेकिन समय के प्रवाह को दर्शाए बग़ैर फ़िल्म का निर्माण असंभव है।
शुभनीत कौशिक हिंदी लेखक हैं। इतिहास, राजनीति, कला और साहित्य संबंधी उनके लेख प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों पर प्रकाशित हो चुके हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : नेहरू का सिनेमा प्रेम