शरद जोशी के कुछ उद्धरण ::
हिंदी में लेखक होने का अर्थ है, निरंतर उन जगहों द्वारा घूरे जाना, जो आपको अपराधी समझती हैं। साहित्य में या महज़ जीवन जीने के लिए आप कुछ कीजिए, वे निगाहें आपको लगातार एहसास देंगी कि आप ग़लत हैं, घोर स्वार्थी हैं, हल्के हैं आदि।
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लेखक के रूप में आप यात्री बनें, तो यह तैयारी मन में कर लेते हैं कि यात्रा कठिन होगी, मंज़िल अनिश्चित और अनजानी है, सुख केवल चलने और चलते रहने भर का है।
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सँकरे रास्ते और तंगदिल लोगों के आक्रामक समूहों से जूझते हुए चलने का प्रयत्न करना, साहित्य में जीना है।
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हिंदी में लेखक का आस-पास बहुत भयावना और निर्मम होता है। वह हमला न भी करे, उसे बचाव की लड़ाई लड़नी ही पड़ती है।
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यहाँ (हिंदी में) केवल आरोप लगते हैं और निर्णय दिए जाते हैं। बल्कि आरोप ही अंतिम निर्णय होते हैं।
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(हिंदी में) ‘आत्मकथ्य’ केवल एक शब्द भर है। यहाँ आत्मा को शक से देखा जाता है और कथ्य पर कोई भरोसा नहीं करता।
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अक्सर हिंदी का ईमानदार लेखक भ्रम और उत्तेजना के बीच की ज़िंदगी जीता है।
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हिंदी में लिखने का अर्थ निरंतर प्रहारों से सिर बचाना है, बेशर्मी से।
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मेरा क़सूर यह है कि लोग मुझे पढ़ते हैं।
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हिंदी में पठनीय साहित्य, साहित्य नहीं होता। वह कुछ भ्रष्ट और सतही-सी चीज़ होता है।
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हिंदी में लोकप्रिय होना अपराध है। मैं पुराना अपराधी हूँ।
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लिखने के लिए मुझे कुछ नहीं चाहिए। थोड़ी-सी धूप, ठंडी हवा, बढ़िया काग़ज़ और एक ऐसी क़लम, जो बीच में न रुके। एकाध चाय। मैं आपको एक सुंदर रचना देने का वादा करता हूँ। पर इस धूप की गारंटी नहीं है हिंदी में। कितनी बार, कितने घर, कितने कमरे, कितने आँगन बदलता हुआ मैं आज भी अपने जीवन को लेकर अनिश्चित हूँ। इस भाषा में केवल हत्याकांड होते हैं। यहाँ जीवन जीने की साफ़-सुथरी स्थिति नहीं मिलती। और मैं चूँकि व्यंग्य लिखता हूँ, इसलिए मेरे लिए तो ऐसी स्थिति मिलने का प्रश्न ही नहीं है।
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लिखना पूर्वजन्म का कोई दंड झेलना है। इसे निरंतर झेले बिना इससे मुक्ति नहीं। मैं झेल रहा हूँ। पर मुझसे कहा जाए कि इस जन्म में भी आप पाप कर रहे हैं, तो यह मुझे स्वीकार नहीं।
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मैं अब महज़ लेखक हूँ। शेष जीवन भी रहूँगा। मैं कर्तव्यवश, जीवन जीने के लिए, एक आदमी की तरह, जो अपने समाज और देश के सुख-दुख में बतौर नागरिक हिस्सेदारी करता है, रोटी कमाता है, बीमारी सहता है। हँसता है, मिलता है, मज़े लेता है, यात्राएँ करता है, बातें करता है, यह जानते हुए कि ऐसा ही करते हुए उसे जल्दी या देर से कभी मर जाना है, वह रोज़ अख़बार पढ़े बिना नहीं रहता, अपने गुण-दोष के साथ जीता है।
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मैं हिंदी साहित्य की दुनिया का नागरिक क़तई नहीं हूँ। उसे उन्हीं चरणों में पड़ी रहने दो, जहाँ वह पड़ी है। वही शायद उसका लक्ष्य था। दरबारों से निकली और दरबारों में घुस गई। मैं अपने फ़ुटपाथों पर चला हूँ। मैं उसकी स्थिति बदलने के लिए भी कुछ नहीं करूँगा, क्योंकि मुझसे बेहतर प्रज्ञा के सजग, सचेत, समझदार और कमिटेड क़िस्म के लोग उसे दरबार में ले जाने लगे हैं। मैं उनसे पराजित हूँ।
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शरद जोशी (21 मई 1931–5 सितंबर 1991) हिंदी के सुचर्चित साहित्यकार-व्यंग्यकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी पुस्तक ‘झरता नीम : शाश्वत थीम’ (वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1997) में संकलित आत्मकथ्य ‘काहे की आत्मा और कैसा कथ्य’ से चुने गए हैं।