कविता-पंक्तियाँ ::
नवीन सागर
मैं जब मरूँगा
मरना मेरे लिए वही होगा जिससे
बचने के लिए मैंने
जीवन भर इतनी हत्याएँ कीं।
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पेड़ चाहता है
बहुत सारे पेड़ों के बीच का पेड़
होना।
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मैंने बोले आज पचासों झूठ
सिर्फ़ एक सच बोला
शायद झूठ से ऊबकर कि
मैं ऊब गया हूँ।
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सुंदरता!
कितना बड़ा कारण है
हम बचेंगे अगर!
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अरे!
सब कुछ समझ से परे
कोई क्या करे!
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जन्म चाहिए
हर चीज़ को एक और
जन्म चाहिए।
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जो तुम्हें कहीं से बुला रहे हैं
उन्हें नहीं पता वे कहाँ हैं।
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तुम्हें अचरज होगा
मैं अगर पेड़ों और फूलों के पीछे
अपना ही सूर्यास्त हूँ।
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मेरे और मेरे बीच से दोनों तरफ़ की
दूरियों का क़रीब गुज़रता है।
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बातों में होते हैं हम जितना
उतने से कई गुना
कहीं और होते हैं।
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मैं उसे प्यार करता
यदि वह
ख़ुद वह होती
मैं अपना हृदय खोल देता
यदि वह
अपने भीतर खुल जाती।
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नहीं कुछ किया
स्वीकार किया
इस तरह चलता-चलता
गया दृश्य में
उसे कितनी दूर से देखता हुआ!
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वास्तविकता वास्तविक नहीं है!
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अपना अभिनय इतना अच्छा करता हूँ
कि हूबहू लगता हूँ।
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ख़ामोशी का जाना भी एक आवाज़ है।
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अपने भूले रहने की याद में
जीवन अच्छा लगता है।
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हम अपने बारे में इतना कम
और इतना अधिक जानते हैं कि
प्रेम ही बचता है प्रार्थना की राख में।
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अकेली एक लहर पूरे समुद्र की जगह बचती है
जब हम भूल जाते हैं जीना।
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अनंत अपनी मृत्यु में रहते हैं इतने धुँधले
कि हमारी झलक में बार-बार जन्म लेते हैं संसार!
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ऐसे में किस-किसको
बुलाता
जब ख़ुद नहीं था!
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शब्द अपने भीतर निःशब्द
डूब रहा है
यह संपूर्ण की ख़ामोशी है।
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जब
कोई अर्थ नहीं रह जाता व्यर्थ का
दुनिया में बहुत कुछ होता रहता है।
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गिरने से बार-बार
मैं टूटा-फूटा
निकाले जाने से मैं इकदम अपने बाहर हुआ।
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सूरज नहीं चाँद तारे संगीत चित्र भी नहीं
कविता से भी सुंदर लगता है मनुष्य।
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जिसने मुझे मारा
उसे सब देना
मृत्यु न देना।
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इस शहर में
जिनके मकान हैं वे अगर
उनको मकानों में न रहने दें
जिनके नहीं है
बहुत कम लोग मकानों में रह जाएँगे।
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मेरे न होने से
मेरा होना बना है।
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मैं अपनी परछाईं में से
निकला हूँ
अपने सपने में से
आया हूँ सुबह-सुबह
संसार में!
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हत्या का विचार
होती हुई हत्या देखने की लालसा में छिपा है।
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अकेला एक कायर सबको मार सकता है।
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कैसे हम बचे रहते हैं
और हमारा विश्वास बचा रहता है
कि हम बचे रहेंगे।
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ऐसी हमारी ज़िंदगी
ऐसी हमारी प्यास है
हम सोचते हैं कोई क्या कहेगा।
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एक उम्र होती है प्यारी
जब हम पैसे को लात मारते हैं
फिर पता नहीं चलता कब
आह भरते हैं और कहते हैं
पैसे ने मार डाला।
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तुम चीज़ों से अलग होते हो
जब उन्हें देखते हो!
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किसे मार दूँ
मारा किससे जाऊँ।
आह! जीवन बचे रहने की कला है।
नवीन सागर की यहाँ प्रस्तुत कविता-पंक्तियाँ उनके तीन कविता-संग्रहों—’नींद से लंबी रात’ (आधार प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1996), ‘जब ख़ुद नहीं था’ (कवि प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2001), ‘हर घर से ग़ायब'(सूर्य प्रकाशन मंदिर, प्रथम संस्करण : 2006)—से चुनी गई हैं। नवीन सागर से और परिचय के लिए देखें : प्रतीक्षा में बहुत आशाएँ होती हैं