कविता ::
शिखर गोयल
तीन मूर्ति लाइब्रेरी
एक
नेहरू कभी घूमते थे यहाँ,
मौलाना, प्रसाद, पटेल
बाद दफ़्तर के सब
आते थे साथ पीने चाय, सुलगाने तम्बाकू
इंदिरा ने राजीव और संजय को
इन्ही बेंचों पर बैठा कर रटाए थे हिज्जे और पहाड़े
ऐसा क्यारी में गुड़ाई करता माली कहता है
इस फ़ुरसत के काल्पनिक राष्ट्रीय इतिहास से अनजान
बाहर एक मोर सिर झुकाए टहलता है अकेला
और अंदर पढ़ाई से ऊबा एक प्रोफ़ेसर
डेस्क पर ख़र्राटे मार कर सोता है!
दो
जी देखो, आज-कल तो काम कम है
कुछ साल पहले फ़ॉरेन के रिसर्चवाले बहुत आते थे
दोनों मशीनों पर हाथ रुकते नहीं थे जी मेरे और इसके
और अब आप ख़ुद ही देख लो
एक का तो मुँह सूख गया,
केवल एक ही मशीन चालू है
ये पूरी किताब हो जाएगी, सरदार जी?
आप जी पाँच बजे तक आ जाओ!
नहीं वो लिखा था न कि पूरी किताब करते नहीं, केवल चैप्टर…
करेंगे नहीं तो चलेगी कैसे ये, सरजी
टेंशन न लो, तीन बज रहा है
आप पाँच तक आ जाओ
मैंने कहा कि पूछ लूँ एक दफ़ा,
अच्छा प्लीज… स्पाइरल भी कर देना इसकी!
सॉरी सरजी, स्पाइरल नहीं होता यहाँ
ब्राउन लिफ़ाफ़े में बढ़िया से स्टेपल करके देंगे आपको!
तीन
फ़ोटोकॉपी के ख़र्चों से परेशान,
मामूली स्टाइपेंड पर जीते जूनियर शोधकर्ता
कभी उतारते हैं किताब के ज़रूरी हिस्से हाथ से कॉपी पर
कभी लाइब्रेरियन से छिप कर, खींच लेते हैं फ़ोन के कैमरे से तस्वीरें
और कभी जब कोई देख नहीं रहा होता,
सर्दी के दिनों में, जैकेट में दाब कर अक्सर,
टपा लाते है पूरी की पूरी की किताब!
शिखर गोयल की कविताएँ कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह इन दिनों सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग सोसाइटीज, नई दिल्ली में शोधकार्य कर रहे हैं। उनसे shikhargoel402@gmail.com पर बात की जा सकती है।