आग़ा शाहिद अली की कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : अंचित

आगा शाहिद अली यादों के शाइर हैं और उनकी निजी यादें उनकी जमीन के इतिहास से मिलती-जुलती और उसमें डूबती-उतरती रहती हैं. अपनी कविताओं में वह हमेशा घर लौटने को बेचैन दिखाई देते लगते हैं. उनकी कविता दर्द की पड़ताल में अपना समय व्यतीत करती है और उनकी कविता में उस खास चीज की बहुतायत है जिसको ओरहान पामुक अपनी किताब ‘इस्तांबुल’ में ‘हुज़ुं’ कहते हैं.

उनका अनुवाद करते हुए उनके करीब जाना उनके ‘कॉम्प्लेक्स पोएटिक सिस्टम’ से भी रूबरू होना है और दर्द और शैली के अभूतपूर्व संयोजन से जूझना भी है. एक अनुवादक के लिए यह एक मुश्किल काम है.

Agha Shahid Ali new
आग़ा शाहिद अली | क्लिक : माइकल पॉल थॉमस

मैदानों के मौसम

कश्मीर में, जहां साल में
चार चिन्हित अलग-अलग मौसम होते हैं
अम्मी अपने लखनऊ के मैदानी इलाके में बीते बचपन की बात करती हैं
और उस मौसम की भी,
मानसून,
जब कृष्ण की बांसुरी
जमुना के किनारों पर सुनाई देती है.
वह बनारस के ठुमरी गायकों के पुराने रिकार्ड्स बजाया करती थीं—
सिद्धेश्वरी और रसूलन,
उनकी आवाजों में चाह होती,
जब भी बादल जमा होते,
उस अदृश्य, नीले भगवान के लिए. बिछोह
संभव नहीं है जब बारिशें आती हैं,
उनके हर गीत में यह होता था.
जब बच्चे दौड़ते थे गलियों में
अपनी अपनी उष्णता को भिंगोते हुए,
प्रेमियों के बीच
चिट्ठियां बदल ली जाती थीं.
हीर-रांझा और दूसरे कई किस्से,
उनका प्रेम, कुफ़्र.
और फिर सारी रात जलते हुए खुशबू की तरह
होता जवाब का इंतजार. अम्मी
हीर का दर्द गुनगुनाती थीं
पर मुझसे कभी नहीं कहा
कि क्या उन्होंने भी जैस्मिन की अगरबत्तियां
जलाईं जो, खाक होते हुए,
राख की छोटी मुलायम चोटियां
बनाती जाती हैं. मैं कल्पना करता था कि
हर चोटी उमस भरी हवा पर
लद जाती है.
अम्मी बस इतना कहती थीं :
मानसून कभी पहाड़ों को फांद कर
कश्मीर नहीं आता.

चांदनी चौक, दिल्ली

इस गर्मी के चौराहे को निगल जाओ
और फिर मानसून का इंतजार करो.
बारिश की सूइयां
जीभ पर पिघल जाती हैं. थोड़ी दूर
और जाओगे? सूखे की एक याद
जकड़ती है तुमको : तुम्हें याद आता है
भूखे शब्दों का स्वाद
और तुमने नमक के अक्षर चबाए थे.
क्या तुम इस शहर को पाक कर सकते हो
जो कटी हुई जीभ पर खून की तरह जज्ब होता है?

कश्मीर से आया ख़त

कश्मीर सिमट जाता है मेरे मेलबॉक्स में.
चार गुने छह का सुलझा हुआ मेरा घर.
मुझे साफ चीजों से प्यार था हमेशा. अब
मेरे हाथों में है आधा इंच हिमालय.
ये घर है. और ये सबसे करीब
जहां मैं हूं अपने घर से. जब मैं लौटूंगा,
ये रंग इतने बेहतरीन नहीं होंगे,
झेलम का पानी इतना साफ,
इतना गहरा नीला. मेरी मुहब्बत
इतनी जाहिर.
और मेरी याद धुंधली होगी थोड़ी
उसमे एक बड़ा नेगेटिव,
काला और सफेद, अभी भी पूरा रौशन नहीं.

***

अंचित हिंदी कवि-गद्यकार हैं. अंग्रेजी में भी लिखते हैं. पटना में रहते हैं. उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात की जा सकती है.

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