आलेख ::
माज़ बिन बिलाल
मैं, एक भारतीय मुसलमान, इस संघ-संचालित भाजपा सरकार द्वारा भारतीय नागरिक प्रमाणित होने से इनकार करता हूँ।
जब ऐक्टिविस्ट हर्ष मंदर ने हाल में यह कहा कि हिंदुस्तानी मुसलमानों ने भारत को चुना है, जबकि और लोगों के पास कोई और चारा या विकल्प नहीं था, तो वह ग़लत नहीं थे, ना ही अँधेरे में तीर चला रहे थे—कम से कम मेरे परिवार और ख़ानदान के बारे में तो बिल्कुल नहीं। 1947 में बँटवारे के समय, मेरा परिवार लुधियाना में रहता था। बँटवारे के दंगों के दौरान, उन्होंने मुस्लिम पाकिस्तान को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष भारत को चुना।
मेरे पिता का जन्म भारतीय स्वतंत्रता से एक वर्ष पूर्व एक मौलवी ख़ानदान में हुआ। उनके दादा मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी, राजनीतिक पार्टी मजलिस-ए-अहरार के संस्थापक और तीसरे प्रमुख थे! पार्टी को हाल में ख़त्म हुई पंजाबी ख़िलाफ़त संगठन के कुछ नेताओं ने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की सरपरस्ती में संस्थापित किया था। उन्होंने लगातार मुस्लिम लीग और उसकी पाकिस्तान की माँग का विरोध किया।
1937 के प्रांतीय सभा चुनावों में, मजलिस-ए-अहरार को पंजाब, यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ और आधुनिक बिहार तक सफलता मिली। पंजाब और पड़ोसी क्षेत्रों में मुसलमानों और अन्य हाशिए के समूहों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए और अपने सामाजिक सक्रियता, राहत कार्य और ज़रूरतमंदों के लिए दान के बल पर, पार्टी ने अपनी जीत हासिल की। अहरार ने 1935 में पश्चिम में क्वेटा भूकंप और 1943 में पूरब में बंगाल के अकाल में काम किया।
पार्टी ने कश्मीरियों के सहयोग में डोगरा राजा के ख़िलाफ़ आंदोलन किया, जिसमें आंदोलन की ऊँचाई पर 34,000 अहरारी आंदोलनकारियों ने गिरफ़्तारी दी। यह शांतिपूर्ण विरोध अधिकांश रूप से गांधीवादी तरीक़ों के माध्यम से किया गया। मेरे परदादा, मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी ने अँग्रेज़ों के नमक कानून को तोड़ा, जिसके लिए वह पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्होंने एक साल की जेल काटी। गिरफ़्तारी से पहले, उन्होंने कांग्रेस की रैली में घोषणा की :
‘‘मैं ब्रिटिश सरकार को एक विदेशी सरकार मानता हूँ। मैं अँग्रेज़ों को खदेड़ना और हमारे देश के लिए आज़ादी जीतना अपना फ़र्ज़ मानता हूँ। इसके लिए, हमें जो भी सज़ा दी जाएगी, उसे ख़ुशी से क़ुबूल किया जाएगा। इसलिए यह सभी भारतीयों का कर्त्तव्य है कि वे ब्रिटिश सामान का बायकॉट करें और इस देश के चलाने को नामुमकिन बना दें।”
इसके बाद, सिविल नाफ़रमानी के अन्य कारनामों के लिए कई बार गिरफ़्तारी दी। उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ते हुए, कुल 14 साल जेल में बिताए। आज़ादी की लड़ाई में उन्होंने और उनके बेटों ने भगत सिंह जैसे और भी कई स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की! अहरार और मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी के इस इतिहास के अधिकांश भाग को तारा चंद की ‘हिस्ट्री ऑफ द फ़्रीडम मूवमेंट इन इंडिया’ (खंड III), आयशा जलाल की ‘सेल्फ़ एंड सॉवरेनटी’, समीना अवन की ‘पॉलिटिकल इस्लाम इन कॉलोनियल पंजाब : मजलिस-ए-अहरार : 1929-1949’, और अज़ीज़-उर-रहमान की ‘रईस-उल-अहर’ जैसी किताबों में पाया जा सकता है। इनके साथ-साथ हबीब-उर-रहमान के पत्राचार नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय में संग्रहीत हैं।
उनके बेटे मौलाना ख़लील-उर-रहमान लुधियानवी और मौलाना अज़ीज़-उर-रहमान लुधियानवी (मेरे दादा) ने भी कई साल जेल में गुजारे।
आज़ादी के वक़्त और बँटवारे की हिंसा के बीच, मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी और उनके सात बेटों में से छह ने भारत को चुना, न कि पाकिस्तान को। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद और सरदार पटेल के कहने पर वे दिल्ली आए। मेरे दादा मौलाना अज़ीज़-उर-रहमान लुधियानवी ने 1951 में पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में एक सेक्युलर तालीमी इदारा या धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक संस्थान, तालीमी सामाजी मरकज़ की स्थापना की। इस संस्थान ने बच्चों को प्राथमिक स्तर तक पढ़ाया और वयस्क शिक्षा कक्षाएँ आयोजित कीं।
मेरे दादा की मृत्यु के बाद, मेरे पिता, बिलाल अहमद लुधियानवी ने स्कूल का नाम बदलकर अज़ीज़ मेमोरियल स्कूल कर दिया, और शिक्षा के माध्यम को अँग्रेज़ी में बदल दिया और स्कूल की गतिविधियों को जारी रखा। उनके निधन के बाद, मेरी माँ, अख़्तरी बेगम ने बागडोर सँभाली और प्राथमिक विद्यालय को एक प्रधानाध्यापिका के रूप में जारी रखा। इसके पूर्व छात्रों में हैदराबाद के मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के वर्तमान चांसलर और वाइस-चांसलर, फ़िरोज़ बख़्त अहमद और असलम परवेज़, राजनेता शाहिद सिद्दीक़ी और हारून यूसुफ़, और अध्यापकों, डॉक्टरों और वकीलों की एक फ़ेहरिस्त शामिल है।
मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने बी.ए., एम.ए. और एम.फ़िल. के लिए अध्ययन किया है और फिर ए.एच.आर.सी. द्वारा वित्त पोषित क्वीन्स यूनिवर्सिटी छात्रवृत्ति पर क्वीन यूनिवर्सिटी बेलफास्ट से पी-एचडी अर्जित की है। मुझे वेल्स में लेखन और अनुवाद में चार्ल्स वालेस फ़ैलोशिप भी मिली। मैं जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हूँ। कविताओं की एक किताब, ‘ग़ज़लनामा’, का लेखक हूँ और मैंने राम लाल भाटिया उर्फ़ फ़िक्र तौंस्वी की बँटवारे के दिनों की डायरी ‘छठा दरिया’ का अँग्रेज़ी अनुवाद ‘द सिक्सथ रिवर’ भी किया है। मैं संस्कृत और उर्दू साहित्य, दोस्ती की राजनीति, भारतीय भाषाओं में अनुवाद और अन्य पाठ्यक्रम पढ़ाता हूँ। मेरे कई पूर्व छात्र भारत और विदेश में सफल करियर बना रहे हैं, और कम से कम एक ने यूरोप में अध्ययन करने के लिए पूरी छात्रवृत्ति अर्जित की है।
अपने परिवार की तरह, मैं भारत में रहना पसंद करता हूँ, विदेश में नौकरी के प्रस्तावों को ठुकराता रहा हूँ। मैं भारत में पढ़ाता हूँ, एक इंस्टिट्यूट ऑफ़ एम्मिनेंस विश्वविद्यालय में युवाओं को शिक्षित करके राष्ट्र-निर्माण में योगदान देता रहा हूँ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाई जा रही इस सरकार को अपनी पहचान साबित करने से मैं इनकार करता हूँ। जैसा कि हम इसके इतिहास से जानते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं की भारत की स्वतंत्रता संग्राम में बहुत कम या कोई भूमिका नहीं रही। उन्होंने टू-नेशन थ्योरी या द्विराष्ट्र सिद्धांत को आगे बढ़ाया। अब वे अन्य भारतीयों की नागरिकता पर सवाल उठाने की हिम्मत करते हैं।
दूसरी तरफ़, मेरा परिवार और मैं, अनगिनत मुसलमानों की तरह, इस देश में घुले हुए हैं, और हमने इसके लिए अपना पसीना और ख़ून दोनों बहाया है। जब तथाकथित ‘वीर’ सावरकर सेलुलर जेल से अँग्रेज़ों को दया-याचिका भेज रहे थे, मेरे परदादा और उनके बेटे, और दसियों हज़ार मुसलमान, सभी धर्मों के अन्य भारतीयों के साथ देश भर के ब्रितानवी जेल की बर्बरता को दृढ़ता से झेल रहे थे। इन सबने भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई एक साथ भाईचारे और बंधुत्व से लड़ी।
भारत के इस धर्मनिरपेक्ष विचार की भावना के लिए, मैं सी.ए.ए. यानी नागरिकता संशोधन क़ानून को स्वीकार करने से इनकार करता हूँ; क्यूँकि यह म्यांमार के रोहिंग्या (जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के सबसे सताए गए अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी है) और श्रीलंकाई तमिलों और अन्यथा शरणार्थियों को शरण के योग्य नहीं मानता। इस प्रकार यह क़ानून धर्मनिरपेक्ष न होने के कारण असंवैधानिक है।
मैं नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को भी स्वीकार करने से इनकार करता हूँ, जो मेरे जैसे लोगों को बार-बार हमारी पहचान और नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर करता है।
संयुक्त रूप से, NRC-CAA या एन.आर.सी-सी.ए.ए. मुसलमानों को नागरिकता से बाहर छोड़ने के लिए एक भेदभावपूर्ण छलनी है, जिसकी तरफ़ भाजपा और उसके गृहमंत्री अमित शाह ने अपने ट्विटर हैंडल के माध्यम से और अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बार-बार इशारा किया है। मैं अपने भारत में इस तरह के क़ानून को स्वीकार नहीं कर सकता, जो एक धर्मनिरपेक्ष भूमि है, जिसे मेरे पूर्वजों और मैंने चुना है।
और इसलिए, मैं 15 दिसंबर को जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के ख़िलाफ़ क्रूर पुलिस कार्रवाई के बाद से किए गए कई नागरिक अधिकारों के विरोध में अहिंसक प्रदर्शनों का हिस्सा रहा हूँ। अपने दादा-परदादा की तरह, मैं ज़ुल्म और अत्याचार स्वीकार करने से इनकार करता हूँ , और सपने देखता हूँ एक ऐसे भारत के जो उत्पीड़न से मुक्त हो, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो, अहिंसक विरोध करने का अधिकार हो, समान नागरिकता हो, जहाँ लोगों को डीमोनेटाइज़ेशन या नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के लिए लगातार लाइनों में न लगना पड़े और जहाँ क़ानूनी काग़ज़ी कार्यवाही को हथियार का रूप न दे दिया गया हो। मैं ऐसे भारत का सपना देखता हूँ, जहाँ पर्याप्त नौकरियाँ और अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ हों।
ऐसे भारत के लिए मैं शांतिपूर्वक विरोध करता हूँ—अन्य मुस्लिमों, हिंदू, सिख, ईसाई, दलित और अन्य सभी आस्तिक व नास्तिक नागरिकों के साथ, जो उस भारत की आस रखते हैं; जहाँ जैसे टैगोर ने कहा था कि मन भय के बिना हो… मैं विरोध करता हूँ। और इस अहिंसक विरोध में, मैं अपील करता हूँ कि भारतीय एक-दूसरे के साथ एकजुटता से खड़े हों, किसी भी समूह को अलग-थलग न होने दें, क्योंकि फ़ासीवादी शासन किसी समूह के विरुद्ध ही सबसे क्रूर होता है। हमें दोस्ती और एकजुटता की राजनीति की आवश्यकता है, जो सीमित भाईचारे से बहुत विशाल है। यह मैत्री है जो बौद्ध धर्म में अति महत्त्वपूर्ण है, जिसे बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने अंतिम दिनों में संवैधानिक भाईचारे या फ़्रटर्निटी से भी बढ़कर बताया था।
मेरी नागरिकता साबित करना इतना कठिन कार्य नहीं है, क्योंकि भारत का इतिहास मेरे परिवार के संघर्षों का गवाह है और मैं नागरिक समाज का एक शिक्षित सदस्य हूँ, लेकिन मैं यह दावा करता हूँ कि उन सभी भारतीयों के साथ एकजुटता साबित करने के लिए, जिनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं है, मैं भी एन.आर. सी. में कोई भी दस्तावेज़ जमा नहीं कराऊँगा। मुझे उम्मीद है कि भारत के सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक नागरिक भी ऐसा ही करेंगे।
यह लेख मूल रूप में अँग्रेज़ी में scroll.in पर पूर्व प्रकाशित। यहाँ प्रस्तुत हिंदी अनुवाद लेखक के ही सौजन्य से। माज़ बिन बिलाल दिल्ली में रहते हैं। उनसे maaz.bilal@gmail.com पर बात की जा सकती है।