‘हर सहूलत अपनी ज़ात से नई पेचीदगियों को जन्म देती है’
फ़रनूद आलम पाकिस्तान के पश्तून क़बाइली इलाक़े तूरगर से तअल्लुक़ रखते है। कराची में पले-बढ़े हैं। तालीम और पत्रकारिता के शोबे से जुड़े रहे हैं। इस वक़्त एक अंतरराष्ट्रीय इदारे के जनसंचार विभाग के लिए काम कर रहे हैं। साथ ही ‘इंडीपेन्डेन्ट उर्दू’ में कॉलम लिखते हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने काफ़ी समय से काम किया है और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की हालत, पाकिस्तानी रियासत की कट्टरता के ख़िलाफ़ और भारत से दोस्ती के हक़ में कई आर्टिकल्स लिख चुके हैं। उनसे यह इंटरव्यू करने का मक़सद यह था कि भारत में ‘नागरिकता संशोधन क़ानून’ बनने के बाद पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों को लेकर जो बहस चल पड़ी है, उसको बारीकी और गहराई के साथ समझा जाए। भारत की मौजूदा हुकूमत कितना सच बता रही है, और कितनी बात छुपा रही है, इसे ठीक से इस गुफ़्तगू के ज़रिए समझा जा सकता है।
तसनीफ़ हैदर
फ़रनूद भाई आदाब! साजिद रशीद ने अपनी एक कहानी मौत के लिए एक अपील में लिखा है कि एक देश का मज़लूम (पीड़ित) पता नहीं कैसे दूसरे मुल्क का ज़ालिम बन जाता है। भारत में मुस्लमानों के सेक्युलरिज़्म पर ज़ोर देने के रवैय्ये को क्या आप भी उनके दुनिया-भर में मौजूद तानाशाही रवैय्ये की हिमायत के कारण एक तरह का ढोंग समझते हैं?
फ़रनूद आलम
पिछले हफ़्ते यहाँ इस्लामाबाद की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में संवाद हुआ। शीर्षक था—‘इस्लाम और सेक्युलरिज़्म’। इसमें सेक्युलरिज़्म की नुमाइंदगी मेरे साथ हमारे उस्ताद हाशिर इब्न-ए-इरशाद कर रहे थे। दूसरी तरफ़ ‘जमाअत-ए-इस्लामी’ के दोस्त इस्लाम के राजनीतिक तंत्र का बचाव कर रहे थे। उनसे हाशिर साहब ने पूछा, ‘‘पाकिस्तान में आप इस्लामी निज़ाम पर इसरार (आग्रह) करते हैं, मगर पचास किलोमीटर के बाद हिंदुस्तान में आप सेक्युलरिज़्म के हामी हैं, क्यों? जवाब मुलाहिज़ा कीजिए :
‘‘हम इंडिया में सेक्युलरिज़्म के हक़ में इसलिए हैं कि वहाँ हम अभी ताक़त में नहीं हैं। जब हम ताक़त में आएँगे तो फिर वहाँ भी सेक्युलरिज़्म का ख़ातमा कर देंगे।’’
ये मिसाल मैंने अपनी इस बात की वज़ाहत में पेश की है कि जी हाँ, मैं इंडिया में मुसलमानों के सेक्युलरिज़्म के साथ लगाव को सेक्युलरिज़्म के कैंप में एक वक़्ती पनाह (आश्रय) समझता हूँ। ये वक़्ती पनाह उस दिन के लिए ली गई है, जिस दिन ये ग़लबा (प्रभुता) पा सकें और अपने मज़हब को नाफ़िज़ (लागू) कर सकें। राजनीतिक इस्लाम पर यक़ीन रखने वाले मुसलमानों की ये ख़्वाहिश दर-असल बीजेपी के वजूद का कारण भी बनती है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि आर.एस.एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने भी मुसलमानों की ग़लबे (प्रभुता) वाली नफ़सियात (साइकोलॉजी) से ही जन्म लिया है।
तसनीफ़ हैदर
इमरान ख़ान ने पार्लियामेंट में कहा था कि आर.एस.एस. मुसलमानों की दुश्मन है और इसलिए जिन्नाह का क़याम-ए-पाकिस्तान का फ़ैसला सही था। हालाँकि इतिहास की तरफ़ देखते रहने से शायद ज़्यादा फ़ायदा न हो, मगर आप उनकी इस बात से कितने सहमत हैं?
फ़रनूद आलम
इमरान ख़ान साहब ने ज़ाहिर है कि वही बात कही जो पाकिस्तान में पढ़ाई और समझाई गई है। मेरी राय में पाकिस्तान के मार्ग-निर्माताओं के कांग्रेस के साथ ख़राबी के पीछे राजनितिक कारण थे। मगर कांग्रेस के मुक़ाबले में अपना निज़ाम क़ायम करने के लिए मज़हबी बुनियादों को काम में लाया गया। कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग का झगड़ा जिस कैबिनेट मिशन प्लान के तहत हल हो गया था, वो भी मज़हबी नहीं बल्कि सियासी ही था।
अगर मुस्लिम लीग के दो क़ौमी नज़रिए (टू नेशन थ्योरी) वाले मुक़द्दमे को दरुस्त मान लिया जाए तो फिर एक नज़र पाकिस्तान के मार्ग-निर्माताओं पर भी डालनी होगी। एक के बाद एक लीडर का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रादेशिक बैकग्राउंड उठाकर देखा जाए तो यह समझना मुश्किल नहीं होता कि मुआमला यह नहीं था कि कोई मुसलमानों का शोषण कर रहा था। शोषण सिर्फ़ वही था जो पूरे भारत का, उसके हर रंग और नस्ल के आदमी का हो रहा था। सच यह है कि मज़हब जिनका मसअला नहीं था, वे मज़हब की बुनियाद पर अलगाव की तरफ़ चले गए। मज़हब के जो बड़े नुमाइंदे थे, वे संयुक्त भारत की हिमायत में खड़े हो गए।
तसनीफ़ हैदर
अब बात करते हैं, उस मसअले की जिस पर इन दिनों भारत में बहुत ज़्यादा ज़ोर है। हमारी सियासत में ये बात गर्म है कि पाकिस्तान अपने अल्पसंख्यकों ख़ास तौर पर हिंदुओं के साथ अच्छा सुलूक नहीं करता, और उन्हें भाग-भागकर भारत आना पड़ता है, इसके उलट वहाँ से आने वाले मुसलमान घुस-पैठिए होते हैं क्योंकि वे चोरी-छिपे और भारत को नुक़्सान पहुँचाने की नीयत से आते हैं। हम यहाँ अपने संविधान की सेक्युलर बुनियाद पर किसी क़ानून के बनते वक़्त मुसलमानों को उससे अलग रखने का विरोध कर रहे हैं, मगर क्या आप समझते हैं कि हक़ीक़त वही है, जो बी.जे.पी. (भारतीय जनता पार्टी) के ज़्यादा-तर नेता अपनी रैलियों और जलसों में कह रहे हैं?
फ़रनूद आलम
ये बात तो दरुस्त है कि पाकिस्तान ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए एक महफ़ूज़ मुल्क नहीं है। इसकी बुनियादी वजह ये है कि पाकिस्तान के आईन (संविधान) और निसाब (पाठ्यक्रम) की ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में राय अच्छी नहीं है। क़ानूनी तौर पर ग़ैर-मुस्लिम की शहरी हैसियत दूसरे दर्जे की है। उन्हें अपने मज़हब का प्रचार करने की इजाज़त नहीं। हस्सास (संवेदनशील) सरकारी ओहदों पर वे नहीं आ सकते। वोट भी उन्हें दूसरे दर्जे के शहरी की हैसियत से देना पड़ता है। ख़ाकरूब (सफ़ाईकर्मी) के लिए सरकारी असामियों का ऐलान होता है तो विज्ञापनों में साफ़-साफ़ लिखा जाता है कि सफ़ाई के कामों के लिए हिंदू और ईसाई शहरियों को प्राथमिकता दी जाएगी। जब आईन (संविधान) का अपने नागरिकों से मुताल्लिक़ ये रवैया हो तो बहुसंख्यक शहरियों को हौसला मिलता है कि वह अल्पसंख्यकों का घेराव करें।
पाकिस्तान में सिंध वह जगह है, जहाँ हिंदू बड़ी तादाद में आबाद हैं। पिछले वर्षों में उनकी और ईसाइयों की आबादी में भारी फ़र्क़ आया है। इसकी वजह ज़ाहिर है कि फ़ैमिली-प्लैनिंग तो नहीं है। इसकी वजह यह है कि हिंदू इंडिया चले गए और ईसाइयों ने दूसरे देशों में असाइलम ले लिया है।
यह कहना कि पाकिस्तान से मुसलमान भारत में तख़रीब-कारी (आतंकवाद) के लिए दाख़िल होते हैं, ये मुझे इंडिया के कट्टरपंथी राजनितिक ग्रुप्स का प्रोपेगंडा लगता है। इस बात से तो इत्तिफ़ाक़ किया जा सकता है कि कुछ जिहादी तंज़ीमें इंडिया में शर-पसंदी (आतंकवाद) के इरादे रखती हैं, मगर इस बात से इत्तिफ़ाक़ नहीं किया जा सकता कि यहाँ से मुसलमान वहाँ नागरिकता हासिल करने जाते हैं और फिर वहाँ आतंकवाद का हिस्सा बन जाते हैं। यह बात नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे हथकंडों को ताक़त देने में मदद दे सकती हैं, मगर ये सच्चाई नहीं है।
तसनीफ़ हैदर
पाकिस्तान में अहमदिया और शिया मस्लकों के मानने वालों की हालत भी पतली है। कभी जुलूसों पर हमला, कभी उनके मज़हबी मुक़ामात पर। हाल ही में हमने एक ख़ातून सरकारी अफ़सर का एक वीडियो देखा, जिसमें अहमदियों की वकालत करने के जुर्म में उन्हें बुरी तरह रुस्वा किया जा रहा था। क्या आपके इल्म में उनकी कोई ऐसी आबादी है, जिसने दूसरे देशों के साथ साथ नागरिकता के लिए ही भारत का रुख़ भी किया हो और क्या उन्हें पाकिस्तानी संविधान की तरफ़ से अल्पसंख्यक भी क़रार दिया जा है?
फ़रनूद आलम
अहमदियों का मसअला दूसरे ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मुक़ाबले में ज़्यादा संगीन है। उन्हें संविधान ने ग़ैर-मुस्लिम क़रार दिया हुआ है। उन पर लागू होने वाली पाबंदियाँ तुलनात्मक रूप से ज़्यादा हैं। शियों के हवाले से आईन कोई राय नहीं देता, मगर रियासत (स्टेट) का सुलूक उनके साथ भी कुछ अच्छा नहीं है। पाकिस्तान के मज़हबी कट्टरपंथों का उनके काफ़िर होने पर तक़रीबन वैसा ही इत्तिफ़ाक़ पाया जाता है जो अहमदियों के हवाले से पाया जाता है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि उनका अक़ीदा रियासत के अक़ीदे (धार्मिक श्रद्धा) से मेल नहीं खाता। उनके अक़ीदे की नुमाइंदा रियासत ईरान है, ये बात दरुस्त है कि पाकिस्तान में मुक़ीम वो अहमदी जिनके अज़ीज़ इंडिया में पाए जाते हैं, उन्होंने दूसरे देशों के मुक़ाबले में इंडिया जाने को प्राथमिकता दी। इसकी एक वजह तो ये है कि अहमदियों का मज़हबी ऐतबार से सदर-मुक़ाम इंडिया ही है। दूसरा, इंडियन डीप स्टेट को पाकिस्तान में उन तबक़ात (वर्गों) की सरपरस्ती में दिलचस्पी रही है जो यहाँ की डीप स्टेट के जब्र (ज़ुल्म) का शिकार हैं।
तसनीफ़ हैदर
नागरिकता संशोधन क़ानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से मुसलमानों को यहाँ न आने देने के बयान पर बी.जे.पी. का ज़ोर इसलिए है क्योंकि इन देशों की रियासत इस्लामी है और वहाँ उन पर मज़हब की बुनियाद पर कोई ज़ुल्म नहीं हो सकता। उनकी ये बात कहाँ तक आपको दरुस्त मालूम होती है?
फ़रनूद आलम
यहाँ पर मैं ये कहना चाहूँगा कि बी.जे.पी. एक दिलचस्प विरोधाभास का शिकार हो गई है, इसलिए मुआमलात सँभालना उसके लिए काफ़ी मुश्किल होता चला जा रहा है। मसलन, असम में आबाद बंगाली नागरिकों के ख़िलाफ़ उन्होंने एन.आर.सी. का इस्तिमाल किया तो उनका ख़याल था कि हम बंगाल के मुसलमानों को अस्वीकार कर देंगे। मगर जब क़दम उठाया तो उन्हें एहसास हुआ कि जो झरलो हमने फेरा है, इसकी ज़द में मुसलमान कम और हिंदू ज़्यादा आ गए हैं। इसका हल उन्हें यह नज़र आया कि एन.आर.सी. का दायरा मुल्क भर में फैला दिया जाए तो सही मायनों में मुसलमान रगड़े में आ जाएँगे। नतीजा यह हुआ कि इंडिया के मुस्लिम शहरी छोड़िए, हिंदू भी रहने दीजिए, ख़ुद बी.जे.पी. का वोटर ही हैरान-ओ-परेशान होकर बाहर निकल आया।
बी.जे.पी. की ये ख़्वाहिश भी है कि मुस्लिम आबादी को धकेला जाए और कहा जाए कि ये घुस-पैठिए हमारी जड़ें खोखली कर रहे हैं। मगर यही ज़हनियत ख़ास तौर से पाकिस्तान में ज़ुल्म का शिकार रहने वाले मुस्लिम आबादी की आवाज़ भी बनना चाहते हैं। अंदाज़ा इससे लगा लीजिए कि पिछले समय में तारिक़ फ़तह को इंडिया में खुलकर खेलने दिया गया, यहाँ तक कि सरकारी टी.वी. पर उसको लॉन्च किया गया। आजकल वहाँ की स्क्रीनों पर अलताफ़ हुसैन (एक पाकिस्तानी नेता) छाए हुए हैं। ये पाकिस्तान का ख़ात्मा भी चाहते हैं और पाकिस्तान को क़ायम भी रखना चाहते हैं। ये उनका मुसलसल चला आने वाला एक ऐसा अंदरूनी राजनीतिक विरोधाभास है, जिसने एक दिन वो नतीजे देने ही थे जो आज इंडिया की सड़कों पर देखे जा रहे हैं। इंडियन राजनेताओं का कहना कि इन तीन देशों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ (मज़हब की बुनियाद पर) ज़ुल्म नहीं होते, ख़ुद बी.जे.पी. जैसी ज़हनियत को सोचना चाहिए कि क्या ये बात उनके आज तक के बयानों से मेल खाती है?
तसनीफ़ हैदर
आपने तारिक़ फ़तह का ज़िक्र किया। वह ख़ुद भी बड़े पैराडॉक्स का शिकार हैं। मिसाल के तौर पर वो कहते हैं कि करीना कपूर को इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि उन्होंने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा, जो कि हज़ारों हिंदुओं का क़ातिल है, मगर ख़ुद उनका नाम तारिक़ बिन ज़ियाद के नाम पर है, जो कि इस्लामी जंगी तारीख़ का एक बड़ा नाम है और जिसने अल-अंदलुस में इस्लाम की फ़तह का परचम भी लहराया। क्या उसने हज़ारों ईसाइयों को मौत के घाट नहीं उतारा होगा। हिंदुओं के क़ातिल के नाम पर नाम रखने वाले को शर्म दिलाना और ईसाइयों के क़ातिल के नाम पर अपना नाम क़ायम रखना, क्या ये खुला विरोधाभास और बचकाना बात नहीं? आपके ख़याल में क्या तारिक़ फ़तह भारत की मज़हबी सियासत की चपेट में ढंग की बातों से जान-बूझकर मुँह मोड़ लेते हैं या उनका मक़सद सिर्फ़ पाकिस्तान और मुसलमानों का अपमान करके अपनी अना को सुकून पहुँचाना है?
फ़रनूद आलम
मैं इस बात से मुकम्मल इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ कि तारिक़ फ़तह विरोधाभास का एक संग्रह हैं। सामने की बात यह है कि वह प्रतिक्रिया के मनोविज्ञान के शिकार हैं। उनकी बातों में दलील कम और तज़लील (अपमान) की ख़्वाहिश ज़्यादा होती है। वह जब मुसलमानों के हवाले से भी राय देते हैं तो उनके अवचेतन मन में कहीं पाकिस्तान ही रक्खा होता है। उनकी इसी सोच का फ़ायदा उठाकर इंडिया ने उन्हें उनकी हैसियत से कहीं बढ़कर अहमियत दी। अब विरोधाभास ये है कि इंडिया ऐसे लोगों की सरपरस्ती भी चाहता है, मगर जो क़ानून वहाँ लागू किए जाते हैं तो इ में ये एलिमेंट्स भी कुचले जाते हैं। ये इंडिया की वर्तमान हुकूमत के लिए एक चैलेंज बना हुआ है कि अपनी इन दोनों ख़्वाहिशों के बीच किस तरह से संतुलन पैदा किया जाए। इंडिया में अगर एक ज़हनियत यह समझती है कि पाकिस्तान में मुसलमानों पर ज़ुल्म नहीं होता, तो क्या इंडिया इस हक़ीक़त का इनकार करेगा कि तारिक़ फ़तह तो छोड़िए, शिया उस्ताद, अहमदी शहरी और रियासती के बयानिए (वर्णन) से अलग नुक़्ता-ए-नज़र रखने वाले मज़हबी स्कॉलर जावेद अहमद ग़ामदी भी इस मुल्क में नहीं रह सकते हैं।
तसनीफ़ हैदर
क्या आप समझते हैं कि भारत में इस तरह की बातों से हिंद-ओ-पाक के बीच मौजूद ख़लीज (फ़ासला) और बढ़ेगी और भविष्य में कोई भयानक जंग भी हमारे सरों पर मुसल्लत की जा सकती है? पाकिस्तान में नागरिकता संशोधन क़ानून को बुद्धिजीवी तबक़ा कैसे देखता है?
फ़रनूद आलम
मेरी राय में इंडिया और पाकिस्तान के बीच जंग का कोई इमकान तो नहीं है, अलबत्ता जंग के इमकान को ज़ाहिर करते रहना पाकिस्तानी रियासत और इंडियन हुकूमत के हक़ में है। यहाँ मैंने जान-बूझकर पाकिस्तान के लिए रियासत और इंडिया के लिए हुकूमत का लफ़्ज़ इस्तिमाल किया है। जिस तरह पिछला इलेक्शन बी.जे.पी. ने भारत-पाक झगड़े पर लड़ा है, अगला इलेक्शन वह एन.आर.सी. और सी.ए.ए. पर लड़ना चाहती है। पाकिस्तान में स्टेट पावर की बालादस्ती का जवाज़ ही इंडिया से नफ़रत है। इंडिया में मोदी सरकार की भड़काऊ पॉलिसी पाकिस्तान में राजकीय उच्च-वर्ग को अपने पैर मज़बूत करने में मदद देती है। उनके लिए आसान होता है कि वो अपने नागरिकों को बताएँ कि देखो इंडिया की तरफ़ से ख़तरे बढ़ गए हैं। बाक़ी पाकिस्तान के तरक़्क़ी-पसंद (प्रोग्रेसिव) दानिश्वर बेशक इंडियन हुकूमत के हालिया कामों की मुख़ालिफ़त कर रही है। साथ ही ये बुद्धिजीवी अपने मुल्क की रूढ़िवादी अवाम की तरफ़ से तंज़ और ताने का भी शिकार है। उनसे कहा जाता है कि आप तो कहते थे कि इंडिया सेक्युलर है, अब बताइए ना यह कैसे सेक्युलर है?
तसनीफ़ हैदर
पाकिस्तान ने हाल ही में सिख यात्रियों के लिए करतारपुर कॉरिडोर खोला गया है। एक जगह मैंने पढ़ा कि भविष्य में वहाँ जल्द ही हिंदू यात्रियों के लिए शारदा पीठ कॉरिडोर खुलने की बात भी चल रही है। इसके ही साथ-साथ जो चार सौ मंदिर गिराए गए थे, उनको वापस आबाद करने का वादा भी हालिया पाकिस्तानी सरकार ने किया है। ये सब ज़मीनी सतह पर किस हद तक मुम्किन है और अगर ऐसा हुआ तो क्या आप उसे हिंद-ओ-पाक के बीच बेहतर सियासी रिश्तों की शुरुआत मानेंगे?
फ़रनूद आलम
करतारपुर बॉर्डर का खुलना इंडिया से ज़्यादा पाकिस्तान में एक सवाल बना हुआ है, जैसे कि पिछले दिनों पाकिस्तान में विपक्ष ने विरोध का सिलसिला शुरू किया तो सरकार की तरफ़ से कहा गया कि ये विरोध का वक़्त नहीं क्योंकि देश की सरहदों पर इंडिया की तरफ़ से ख़तरे दरपेश हैं । इस पर विपक्षी लीडरों ने कहा, अगर ख़तरे दरपेश हैं तो आप करतारपुर बॉर्डर क्यों खोल रहे हैं? इसी तरह पश्तून इलाक़ों के सियासी रहनुमाओं ने कहा, जब हम पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच तोरख़म और चमन बॉर्डर खोलने का मुतालिबा करते हैं तो रियासत हमें अफ़ग़ान और इंडियन इंटेलिजेंस का एजेंट कहती है। लेकिन अब रियासत ख़ुद करतारपुर बॉर्डर खोल रही है तो सब ठीक है? कुछ समय पहले अफ़ग़ान राजनेताओं ने ये बात कहना शुरू कर दी थी कि हम पूर्व फ़ाटा, यानी अफ़ग़ान बॉर्डर के क़रीब के पश्तून इलाक़ों से तअल्लुक़ रखने वाले पश्तूनों के लिए फ़्री वीज़ा कॉरिडोर बनाएँगे। ये बात उन्होंने पश्तूनों के फ़ायदे को नज़र में रखते हुए कम और पाकिस्तान को चुटकी काटने के लिए ज़्यादा कही थी। करतारपुर के क़िस्से को भी मैं इसी पहलू से देखता हूँ।
बाक़ी रही बात मंदिरों की बहाली की, तो ख़ुदा करे कि ऐसा हो। मगर यह शायद अपने ख़ुलूस (प्रेम) का रस्मी इज़हार है। सच ये है कि जब पूर्व वज़ीर-ए-आज़म नवाज़ शरीफ़ ने कराची में दीवाली के मौक़े पर हिंदुओं के जश्न में शिरकत की तो उन्हें यहाँ कटघरे में खड़ा कर दिया गया था। दूसरा ये कि पाकिस्तान में कुछ मंदिर तो ऐसे हैं, जहाँ अब मस्जिदें तामीर हो चुकी हैं, उनकी बहाली तो यहाँ तीसरी वर्ल्ड वॉर को दावत देने वाली बात होगी। रियासत के बयानिए पर अवाम ख़ुलूस से अमल कर रही है। रियासत अगर अब अपने ही कहे से वापसी का रास्ता इख़्तियार करेगी तो कटघरे में खड़ी हो जाएगी। अगर ये रिस्क लेने की सलाहियत रियासत में है तो इससे बड़ी ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है।
तसनीफ़ हैदर
बहैसियत एक पाकिस्तानी सेक्युलर शहरी, आपने रियासत के थोपे गए मज़हबी ज़ुल्म को बहुत क़रीब से देखा और झेला है। मगर अब इंडिया भी इसी रास्ते की तरफ़ बढ़ रहा है। ये चाहे प्रतिक्रिया ही हो, मगर इस जानिब बढ़ने से आपकी राय में क्या भारत अपना ज़बरदस्त नुक़्सान करने के रास्ते पर नहीं है?
फ़रनूद आलम
भारत को याद रखना चाहिए कि वह अब तक इसलिए कामयाब रहा है कि उसने आज तक बड़ी आर्थिक ताक़तों के साथ अर्थ-व्यवस्था, अतिक्रम, आई.टी., साइंस और आर्ट में मुक़ाबला किया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश तक से इसलिए पीछे रहा कि उसने मुक़ाबले के लिए मज़हब का मैदान चुना। भारत की बद-क़िस्मती है कि वह अब दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़तों से मुक़ाबला करने की बजाय पाकिस्तान से मज़हबी मैदान में मुक़ाबला करना चाहता है। अगर भारत समझता है कि इस मैदान में तरक़्क़ी का कोई इमकान है तो फिर उसे पाकिस्तान के हालात ज़रूर देख लेने चाहिए। मज़हबी सियासत दरअसल ज्ञान पर धार्मिक श्रद्धा की ठेकेदारी क़ायम करने की एक कोशिश होती है। ज्ञान और न्याय पर धर्म की ठेकेदारी क़ायम हो जाएगी तो फिर आपका इन्फ़िरास्ट्रक्चर, ह्यूमन रिसोर्सेज़, यूनिवर्सिटीज़, आर्थिक मंसूबे कुछ भी फ़ायदा नहीं दे सकते। हर सहूलत अपनी ज़ात से नई पेचीदगियों को जन्म देती है।
तसनीफ़ हैदर
आपके ख़याल में हिंदुस्तानी मुसलमानों को ऐसे क्या क़दम उठाने चाहिए, जिनसे मुस्लिम नफ़रत या इस्लामोफोबिया की बुनियाद पर यहाँ की किसी भी सियासी पार्टी को उनके ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा करने का मौक़ा न मिल सके; और क्या आप समझते हैं कि भारतीय मुसलमान ऐसा कर सकेंगे?
फ़रनूद आलम
इंडिया के मुसलमानों को अक़ीदे (धार्मिक श्रद्धा) की बुनियाद पर प्रभुता की सोच वाले लिटरेचर से जान छुड़ानी होगी। उनका ईमान अपने लिटरेचर और धार्मिक टेक्स्ट पर है। मगर उनका तक़ाज़ा सेक्युलरिज़्म है। उनको मानना होगा कि सच वो है जिसका वो तक़ाज़ा कर रहे हैं। वो नहीं है जिसकी वो ख़्वाहिश रखते हैं। इस वैचारिक विरोधाभास से वो जब तक नहीं निकलेंगे, उनके ख़िलाफ़ होने वाला हर प्रोपेगंडा बा-असर और कामयाब रहेगा।तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर समय-समय पर शाया उनकी नज़्मों और नस्र को उनके ही लिप्यंतरण/अनुवाद में पढ़ने के लिए यहाँ देखें : तसनीफ़ हैदर