बातें ::
संजय उपाध्याय
से
अमितेश कुमार
कुछ लोग चले गए हैं. हमें उनके बारे में बहुत कम पता है. वे क्या करते रहे, क्या करना चाहते रहे या वे जो करते रहे, उसे कैसे करते रहे… यहां कहना यह है कि अपनी बहुत सारी समकालीन प्रतिभाओं के प्रति हम अक्सर कृतघ्न और बेध्यानी में रहते हैं. उन्हें लेकर मौजूदा समाज में बेचैनियां कम हैं. रंगकर्म के समकालिक संसार में संजय उपाध्याय कुछ ऐसी ही प्रतिभा हैं. उनकी लोकप्रिय प्रस्तुतियों से इतर उनके संघर्ष और उनके निमार्ण के विषय में हमें बहुत कम जानकारी है.
दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित ‘भारत रंग महोत्सव’ (भारंगम) के उन्नीसवें संस्करण में मैंने सोचा कि मुझे संजय उपाध्याय से एक लंबी बात करनी चाहिए. वह इस दरमियान दिल्ली में मौजूद भी रहे. भारंगम में शामिल उनकी प्रस्तुति ‘आनंद रघुनंदन’ को पर्याप्त चर्चा मिली.
बहरहाल, संजय उपाध्याय ने बातचीत के लिए वक्त दिया और धीरे-धीरे इस प्रक्रिया में वह अपने संघर्ष, साहस और रचनात्मक-सफर को एक संगीतात्मक शैली में स्मरण करते चले गए. यह बातचीत अभी जारी है और अपने स्वरूप में पुस्तकाकार होने को विकल है. यह अलग बात है कि यहां इसे कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है कि यह मुकम्मल लगे. प्रश्नकर्ता ने अपने प्रश्न यहां बीच से हटा लिए हैं, केवल उत्तर रहने दिए हैं, यह सोचकर कि उत्तरों में प्रश्न पहचान लिए जाएंगे…
[ अमितेश कुमार ]
एक
मैं बचपन में गाता था.
लोकगीत गाता था, इसलिए गाता था कि मेरी मां संस्कार-गीत बहुत अच्छा गाती थी. उसे यह संस्कार मिला पिता जी और दादा जी से. दादा जी कीर्तनकार थे और पिता जी हमारे दादा जी के गाए हुए को विस्तार देते थे— लोकगीत में हारमोनियम बजाकर.
पिता जी हारमोनियम पर गाते रहते थे— कभी ‘विनय पत्रिका’ से, कभी कजरी या ठुमरी. इस तरह देखें तो संगीत एक तरह से मेरे डीएनए में आ गया.
बचपन में हम ननिहाल ज्यादा रहे— भोजपुर में. मेरा गांव मगह में है. मेरा बचपन का एक बड़ा हिस्सा ननिहाल में गुजरा. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि मैं मगही हूं. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मैंने मगही के लिए कुछ नहीं किया.
पिता जी की नौकरी तबादलों वाली थी और वह घूमते रहते थे— इस जगह से उस जगह, एक जिले से दूसरे जिले.
मां हमेशा ननिहाल जाती रहती थी और मैं मां के साथ ही ज्यादातर रहता था. मेरे ममेरे भाई जिस स्कूल में पढ़ते थे, वहीं मैं भी पढ़ने चला जाता था.
मेरी मां बहुत ही रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से थी. मेरे नाना संस्कृत के बड़े विद्वान थे. वह हमारे स्कूल के प्रिंसिपल हुआ करते थे. इसलिए हम चले जाते थे— स्कूल में ऐसे ही. नाना बुला लिया करते थे कि आओ तुम भी आ जाओ. उन दिनों डिस्ट्रिक्ट लेवल पर एक स्कूल कॉम्पिटिशन होता था. उसमें ही एक बार मैंने गाना गाया तो फर्स्ट आया. उसमें मैंने एक मगही गीत गाया था. इस गायन का पुरस्कार मुझे नगद राशि में मिला था. उस जमाने में यानी सत्तर के दशक में, मुझे सौ रुपए मिले थे. यह देखकर मेरे नाना यों ही मां से बोले, ‘‘देखिहS मुन्ना एक दिन आसमान में उड़ी.’’ एक तरह से उन्होंने मां को आशीर्वाद दिया, लेकिन दूसरी तरफ मामा लोग भी थे जो मां से कहते, “कुछ ना करी… फेल हो जाइ.’’
मां मुझे लेकर रोती रहती थी कि पढ़ेगा नहीं तो क्या करेगा.
दो
गाना एक सिलसिले की तरह चलता रहा.
सातवीं कक्षा तक मैं इस तरफ काफी सक्रिय रहा. इसके बाद मैं पटना आ गया और अपने बड़े चाचा के साथ रहना शुरू किया. चाचा जी कभी एलिफिंस्टन सिनेमा में मैनेजर रह चुके थे. वह बहुत सामंती और रंगबाज किस्म के आदमी थे. वह कड़-कड़ नोट रखते थे. सफेद धोती पर वह सफेद ही कुरता पहनते थे. उनके साथ मैंने बहुत यात्राएं कीं. वह मुझे अपने बेटे की तरह मानते थे, क्योंकि उनको अपना कोई बेटा नहीं था. वह दो बेटियों के पिता थे.
बड़े चाचा बहुत शौकीन मनुष्य थे— बाईजी के नाचने पर नोट उड़ाने वाले. कभी-कभी बाईजी के साथ गाने के लिए वह मुझे भी स्टेज पर चढ़ा देते थे.
मैं खुलकर गाता था.
तीन
गाना आता हो तो वह जाता नहीं है.
मैं सातवीं क्लास के बाद पटना में विधिवत रहने लगा. यहां मुझे अपने एक और चाचा के साथ रहना पड़ता था. वह मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे.
मेरा एक और शौक था— फुटबॉल.
मैं काफी फुटबॉल खेलता था. मैं शहरी स्टाइल में खेलता था. सातवीं से दसवीं तक मैंने एक प्रोफेशनल की तरह फुटबॉल खेला. टी.के. घोष एकेडमी में मेरा एडमिशन हुआ, जिसमें कभी राजेंद्र प्रसाद भी पढ़े थे. उस समय नेतरहाट से प्रिंसिपल आए थे— शास्त्री जी. मैं जब दसवीं में पढ़ रहा था, तो उस समय हमारे स्कूल के एनुअल डे पर बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जगन्नाथ कौशल को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाना तय हुआ था, लेकिन कौशल जी ने एक शर्त रखी कि मुख्य अतिथि बनने वह तभी आएंगे, जब बच्चों से ‘कोणार्क’ नाटक करवाया जाएगा. एनुअल डे की तैयारी दो-तीन महीने पहले शुरू हो जाती थी. हमारे एक टीचर हुआ करते थे धनंजय नारायण सिन्हा— मेरे प्रथम गुरु. वह हमारे स्पोर्ट्स टीचर भी थे. मैं उनके काफी करीब था. एक बार फुटबॉल खेलते वक्त उन्होंने इंटरवल में ग्राउंड में ही मुझसे पूछा, ‘‘नाटक करोगे?’’
मैंने कहा, “कर लेंगे.”
उन्होंने कहा, ‘‘तुम गाते भी हो?’’
मैंने कहा, ‘‘हां.’’
उन्होंने कहा, “कल आ जाना.”
मैं कल पहुंचा तो देखा हॉल में बहुत से लड़के जमा है और रीडिंग कराई जा रही है. ‘कोणार्क’ हिंदी का बहुत क्लिष्ट नाटक है. नाना जी ने बचपन में तमाचे मार-मारकर संस्कृत के श्लोक मुझे याद कराए थे, तो जुबान मेरी साफ थी और मैं शुद्ध-शुद्ध पढ़ता भी था. मैंने स्पष्ट लेकिन संवेदनहीन रीडिंग दी और मुझे इस नाटक में विशु का रोल मिल गया. रिहर्सल होने लगीं. उसी समय मैट्रिक का एग्जाम भी था और घर में बहुत मार पड़ती थी, ‘‘मैट्रिक का इक्जाम है, कोर्स का इक्जाम है और तुम लगे नाटक करने.”
लेकिन मुझे उस वक्त रिहर्सल में बहुत आनंद आने लगा था. पर पढ़ाई भी करते थे हम लोग. मैट्रिक में मेरी फर्स्ट डिवीजन आई और नाटक की भी खूब अच्छे से तैयारी हुई. धनंजय नारायण सिन्हा के निर्देशन में खूब मार-मारकर अभ्यास हुआ. पारसी थिएटर की उनकी पृष्ठभूमि थी. उनके पिता भी नाटक करते थे. परदे बनाना, क्राफ्ट-वर्क करना, मेकअप, कॉस्ट्यूम, सेट… सब में धनंजय बाबू दक्ष थे. तीन महीने तक वर्कशॉप जैसा माहौल रहा. प्रिंसिपल शास्त्री जी भी नाटक के प्रेमी आदमी थे, इसलिए उन्होंने भी हमें खूब सपोर्ट किया. इस प्रकार एक अच्छा नाटक तैयार हुआ और राज्यपाल उसे देखने आए और मुझे गोल्ड मेडल मिला. इस नाटक में मेरे अभिनय की बहुत तारीफ हुई और मैं अपने स्कूल का स्टार हो गया.
चार
मैं गाता था, इसलिए किरदार मिलने लगे.
मैं कॉलेज में आया तो फुटबॉल छूट गया और कीड़ा लग गया नाटक का. दिमाग इस कदर बंटा कि एक्टिंग का कीड़ा लग गया. मैं खोजने लगा कि ड्रामा कहां हो रहा है? मैं कॉलेज की ड्रामा सोसायटी में गया तो पता चला कि जावेद अख्तर वहां से एम.ए. कर रहे थे.
हुआ यों कि एन.एन. पांडेय ने जावेद अख्तर को बुलाया एक नाटक तैयार करने के लिए और उन्होंने ‘अंधेर नगरी’ तैयार कराया. उसमें मुझे गोवर्धन दास का रोल मिला. फिर पता चला कि जावेद अख्तर, परवेज अख्तर और तनवीर अख्तर ‘अनागत’ संस्था से जुड़े हैं. तब तक ‘गिनीपिग’ हो चुका था. इसमें परवेज अख्तर के निर्देशन में एन.एन. पाण्डेय ने मुख्य भूमिका की थी.
उन दिनों तनवीर अख्तर भी एक नुक्कड़ नाटक करा रहे थे— ‘जनता पागल हो गई है’. सबसे पहले नुक्कड़ नाटक पटना में सतीश आनंद ने किया था— ‘जुलूस’. इमरजेंसी के जमाने में एक तरफ जब कविता पाठ हो रहा है, लोग जेल जा रहे हैं, नागार्जुन जेल जा रहे हैं… उसी समय देखिए ‘जुलूस’ शुरू हो रहा है. इसके बाद एक लंबा गैप आया और फिर तनवीर अख्तर, परवेज अख्तर और जावेद अख्तर ने नुक्कड़ नाटक करने शुरू किए. इन लोगों ने भी सतीश आनंद से सीखा था. ‘जनता पागल हो गई है’ में मैंने पूंजीपति का रोल किया. इसके कई शो हुए थे.
पांच
नए लोगों की सोहबत में मेरी साफ जुबान और साफ हुई.
1980 से 1984 के बीच मैं ‘इप्टा’ में था. तब नुक्कड़ नाटक खूब होता था और उनमें मुख्य भूमिकाएं मैं ही करता था. मैं गायक भी था, एक्टर भी अच्छा था. ‘यंग और डायनेमिक’ भी था. हम लोगों ने उस जमाने में न जाने कितने नुक्कड़ नाटक किए. गांव-गांव, शहर-शहर, कहां-कहां नहीं गए.
‘दामुल’ फिल्म उन्हीं दिनों बन रही थी. इस फिल्म से जुड़ने के लिए पूरा पटना रंगमंच चला गया था— ‘इप्टा’ छोड़कर. मुझे ‘इप्टा’ में स्पेस नहीं मिल रहा था तो मैं भी ‘दामुल’ में काम करने चला गया. मुझे प्रकाश झा से मिलकर बहुत अच्छा लगा. मैं उन्हें असिस्ट करने लगा.
इधर ‘इप्टा’ ने ‘स्पार्टाकस’ उठाया हुआ था. उसकी रीडिंग चल रही थी.
इसके बाद कुछ विवादों और मतभेदों की वजह से मैंने ‘इप्टा’ से दूरी बना ली. उन दिनों मैं यूनिवर्सिटी की सांस्कृतिक गतिविधि में भी लगा हुआ था. ‘दामुल’ की शूटिंग खत्म होने के बाद मुझे एक चिठ्ठी मिली. मुझ पर केंद्रित एक मीटिंग हुई थी कि बगैर संगठन को बताए आप सिनेमा करने क्यों चले गए? उन दिनों ‘इप्टा’ के लिए सिनेमा करना अपराध था. कटाक्ष किया जाता कि अरे सिनेमा करेंगे, हीरो बनेंगे… यह ‘कारण बताओ नोटिस’ टाइप मामला था. मैंने लेटर पढ़ा और कहा कि जाना ही नहीं है और न कोई जवाब देना है. तब ‘इप्टा’ वालों ने किया यह कि पटना में जितनी भी संस्थाएं थीं उनको मेरे खिलाफ लिख दिया कि ये लोग ब्लैक लिस्टेड हैं, इन्हें किसी संस्था में न रखा जाए.
छह
मैंने गानों पर खूब जमकर काम किया.
मैं एम.ए. में दरंभगा हाउस आ गया था. यहां तीन महीने लगकर मैंने सर्वेश्वरदयाल सक्सेना कृत नाटक ‘बकरी’ तैयार किया. सत्तर-पचहत्तर लोगों को साथ लेकर मैंने ‘बकरी’ किया. इसमें नौटंकी थी, लोकप्रिय तत्व थे, गाने थे. मैंने इसके गानों पर खूब जमकर मेहनत की. अपनी सारी प्रतिभा मैंने इसमें उड़ेल दी. इसे देखने के लिए दर्शक टूट पड़े थे. नाटक के चार शो थे, लेकिन आठ शो करने पड़े. चारों दिन कालिदास रंगालय हाउसफुल रहा. सभी शोज में जितने लोग इसके अंदर थे, उतने ही बाहर. इस नाटक की चर्चा में अखबारबाजी भी खूब हुई. मुझे लोगों ने हाथों-हाथ लिया. मैं एक उभरते हुए रंग-निर्देशक के रूप स्वीकार्य हो गया. ‘बकरी’ के एक महीने के अंदर ही दुबारा चार शो और करने पड़े. एक साल में इसके बीस-पच्चीस शो हुए. सब के सब टिकट वाले. हुजूम था उस समय हमारे साथ. मैंने इसका फायदा उठाया.
‘इप्टा’ मेरे निकलने के बाद टूट गया, लेकिन मैं बराबर नाटक करता रहा जो बेहद सफल रहे. इससे मेरा उत्साह बढ़ा. मेरे पास ‘बिदेसिया’ की स्क्रिप्ट उसी समय आई. मैं ‘इप्टा’ के जमाने में ही इसे करना चाहता था, लेकिन मुझे हतोत्साहित किया गया कि क्या है, लौंडा नाच है, नौटंकी है. एन.एन. पांडेय से पूछने गए तो उन्होंने भी हतोत्साहित किया.
सात
‘बिदेसिया’ पढ़कर सारा संगीत याद आने लगा.
मैंने जब ‘बिदेसिया’ पढ़ा तो जैसे बचपन का सीखा हुआ सारा संगीत मेरे भीतर गूंजने लगा. मुझे लगा कि मुझे ‘बिदेसिया’ करना ही करना है. यह सन् 85 की बात है. 1986 में मैंने खूब मन लगाकर इसे तैयार किया— अवधि तीन घंटे जिसमें एक घंटे का मध्यांतर. इसे हम जब भी करते थे, यह हाऊसफुल हो जाता था. मैं इसमें सूत्रधार बनता था और सारा पूर्वरंग अकेले करता था. अब तो इसे मैंने दो अभिनेताओं के बीच बांट दिया है.
इस बीच मेरा एम.ए. हो गया. अब क्या? घर की तरफ से दबाव बढ़ने लगा. पिता कहने लगे कि तुम्हारी उम्र में मैं कमाने लगा था, तुम बताओ कि तुम अब क्या करोगे? नाटक-नौटंकी कब तक चलेगा.
यह सब तब था जब मेरा नाम हो गया था पटना में.
आठ
समय गुजरता रहा, मैं भी और मेरा संगीत भी.
मैं दिल्ली आ गया. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का छात्र हो गया. यहां आने के बाद मैं थोड़ा कलावादी हो गया और रूपवाद के प्रति भी आकर्षित हुआ.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में जब डिप्लोमा प्रोडक्शन करने की बारी आई, तब उन दिनों ‘हंस’ में सृंजय की कहानी ‘कॉमरेड का कोट’ आई थी. मैं ‘हंस’ का पाठक था. ‘कॉमरेड का कोट’ पढ़कर मुझे लगा कि यह अपनी चीज है. इस कहानी में कम्युनिस्ट पार्टी में बिखराव की बात थी. इस कहानी को प्ले करने की मैंने सृंजय से अनुमति ली. इसे ड्रामाटाइज्ड किया हमारे ही बैच के अभिराम भड़कमकर ने. अभिराम आज मराठी के बड़े नाटककार हैं. उन्होंने इस प्रस्तुति में अभिनय भी किया. इस प्रस्तुति पर प्रतिक्रिया यह हुई कि लोगों ने कहा यह डिप्लोमा प्रोडक्शन नहीं है, रेपर्टरी का प्रोडक्शन है. इस प्रस्तुति में मैंने मंच पर पूरा गांव बसाया था, पुआल बिछा दिया था. बैरी जॉन वगैरह बाहर से जितने बड़े लोग आए थे, सब पुआल पर बैठकर नाटक देख रहे थे.
नौ
संगीत मेरे नजदीक एक वृत्त बना रहा था.
जब सब लोग मुंबई जा रहे थे, मैं पटना आ गया. मुझे पटना इसलिए लौटना पड़ा, क्योंकि मेरे पिता बहुत अशक्त हो गए थे.
पटना लौटकर मैंने ब्रेख्त का नाटक ‘खड़िया का घेरा’ शुरू किया. कालिदास रंगालय में जितने भी परदे थे, मैंने सब नुचवा दिए. कालिदास रंगालय के मंच को मैंने नग्न कर दिया— पीछे की दीवाल तक को, जहां कबाड़ रखा रहता था. मैंने कबाड़ को हटवाकर ग्रीन रूम की गतिविधि दिखाई कि प्रस्तुति के दरमियान वहां क्या हो रहा है. लाइटिंग का स्रोत मैंने स्टेज पर ही रखा, ताकि कहां-क्या हो रहा है सब दिखे.
‘खड़िया का घेरा’ हुआ और पिता नहीं रहे. वह प्री-मैच्योर एज में ही गुजर गए— नौकरी में रहते हुए. उनकी जगह अनुकंपा के आधार पर मुझे कलेक्ट्रियट में क्लर्क की नौकरी मिल गई और मेरे विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे, लेकिन जब मैं पटना लौट रहा था तभी मैंने सोच लिया था कि मुझे सिर्फ नाटक करना है. यह अलग बात है कि किस तरह करना है, इस पर अभी और सोचना था.
पटना में प्रेमचंद रंगशाला के पीछे नंदनगर नाम की एक कॉलोनी है. अंग्रेजों ने उसे ब्लैक लिस्टेड और क्रिमिनल बेल्ट घोषित किया था. इस जगह जरायमपेशा लोग बहुत थे. मुझे इस इलाके ने बहुत आकर्षित किया. मैंने सोचा कि इनके बीच घुसकर काम किया जाए. मैंने वहां से तीस बच्चे सेलेक्ट किए, उनके अभिभावकों से बात की और उनके साथ ‘अंधेर नगरी’ किया. इन बच्चों को लेकर मैंने नुक्कड़ों पर, इसके 500 से ज्यादा शो किए. इसके शो दिल्ली में भी हुए.
ब.व. कारंत इस प्रस्तुति को जब प्रेमचंद रंगशाला में देखने आए तो नाटक शुरू होते ही लाइट चली गई. पता नहीं क्या था कि हमारे नाटक के कुछ प्रॉप्स बचे हुए थे. उनमें ढेर सारी मोमबत्तियां थीं. सारे बच्चों ने इन मोमबत्तियों को जलाया और उन्हें हाथ में लेकर एक सर्किल में खड़े हो गए. इस प्रकाश में ही हमारी ‘अंधेर नगरी’ देखी कारंत जी ने. कारंत जी इतने खुश हुए… इतने खुश हुए कि बोले मैं फ्रेश हो गया. मैं आना तो नहीं चाहता था, लेकिन मैं फ्रेश हो गया.
दस
मेरे संगीत को सोहबतों ने भाषा दी.
फ्रीलांसिंग की जिंदगी थी और मैं कभी मध्य प्रदेश, कभी छत्तीसगढ़ में भटकता रहा, कभी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के विस्तार कार्यक्रम में चला गया, कभी किसी के नाटक में संगीत दे दिया. देश के जितने भी बड़े निर्देशक हैं, उनके नाटकों में मैंने संगीत दिया है. भानु भारती, बंशी कौल, रॉबिन दास, देवेंद्र राज अंकुर, रामगोपाल बजाज, बैरी जॉन, सत्यदेव दुबे जिसने भी कह दिया उसके साथ काम किया. यों मेरा काम भी चल रहा था.
मैंने संगीत को लेकर जो कुछ सीखा था बचपन में उसे कारंत जी, पंचानन पाठक, मोहन उप्रेती, भास्कर चंद्रावरकर की सोहबत में भाषा प्रदान की— संगीत की एक ऐसी भाषा जो रंगभाषा हो सकती है.
मैंने खुद को संगीत के जरिए तोड़ा. मैं वृत्तांत को संगीत में कहना चाहता था, लेकिन मेरे ऊपर मुहर लगने लगी कि मैं तो संगीतकार हूं. मेरे संगीत की वजह से मेरे निर्देशक को एक साजिश के तहत खारिज करने की कोशिश होने लगी. यह होता ही है कि आपको टैग किया जाता है, ब्रांड किया जाता है. ‘बिदेसिया’ और मेरी दूसरी संगीतप्रधान प्रस्तुतियों की वजह से मुझे संगीतकार कहने वालों को सुविधा भी मिली, और मुझे सिर्फ संगीत-निर्देशक बनाए रखने की कवायद होने लगी. मेरे पास इस प्रकार के ऑफर आने लगे कि मेरे लिए म्यूजिक कर दो संजय… मेरे लिए म्यूजिक कर दो… लेकिन जिस तरह आज इसे समझ रहा हूं, तब समझ में नहीं आता था. बहुत बाद में लगा कि अरे इस तरह से तो मुझे म्यूजिशियन बना देंगे ये लोग. तब मैंने यह कहकर इंकार करना शुरू किया कि मुझे संगीत नहीं आता. भानु भारती को मना किया, रॉबिन दास को मना किया कि नहीं मुझे संगीत नहीं आता.
ग्यारह
मेरे पास संगीत की ही भाषा है.
प्रकाश झा से जुड़ाव की वजह से सिनेमा में जाने की सोचता तो था, लेकिन हमारे बैच के जितने लोग सिनेमा की तरफ गए, उसमें से एक-दो को छोड़कर सब लोग वही कर रहे हैं, जो मैं कर रहा हूं. स्टारडम कहीं भी संभव है. थिएटर में भी स्टारडम मिल सकता है. अगर ढंग से काम करें तो आप जो कर रहे हैं, आपको उसमें ही स्टारडम मिल सकता है.
इस बीच मेरे खिलाफ पटना में ‘संजय बनाम इप्टा’ होने लगा. मेरे नाटकों के खिलाफ अखबारबाजियां होने लगीं कि संजय उपाध्याय पॉपुलर ड्रामा करता है. दिल्ली में रंजीत कपूर पॉपुलर ड्रामा करते हैं और पटना में संजय. मैं बोलता था कि हां मैं पॉपुलर ड्रामा करता हूं और करूंगा, लेकिन मेरे पास उतने तर्क नहीं हुआ करते थे या उस तरह की भाषा नहीं हुआ करती थी कि मैं खड़े होकर अपने पक्ष में कोई बौद्धिक बहस कर सकूं.
बारह
महाप्राण भी बहुत अच्छा गाते थे.
मैंने कविता-मंचन की ओर भी काम करना शुरू किया. पटना में कविता के मंचन पर सबसे पहले काम मैंने किया. आलोकधन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ को सबसे पहले मैंने मंचित किया. आलोकधन्वा उन दिनों ही असीमा से मिले थे. असीमा ‘भागी हुई लड़कियां’ में अभिनय करने आती थी, बाद में वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आई. इस दरमियान ही आलोकधन्वा और असीमा के बीच प्रेम शुरू हुआ और ‘भागी हुई लड़कियां’ बंद.
निराला मेरे प्रिय कवि हैं, इसलिए मैंने ‘सरोज स्मृति’ को भी मंचित किया. निराला में तोड़-फोड़ बहुत है. शिल्प के स्तर पर वह मुझे टैगोर वगैरह से बहुत आगे लगते हैं. उनका जीवन-संघर्ष भी मुझे बेहद अपील करता है. निराला गाते भी बहुत अच्छा थे. उनका संगीत की तरफ से आना भी मुझे बहुत प्रभावित करता रहा है. उनकी पत्नी मनोहरा देवी भी बहुत सुंदर गाती थीं.
तेरह
संगीत मुझसे कभी छूटा नहीं.
मैं देखने में सुदर्शन था. मैं एक्टिंग भी कर लेता था. लेकिन मुझे अभिनेता बनना है, यह मुझे कभी नहीं लगा. मेरी मां चाहती थी कि मैं एक्टर बनूं, सिनेमा-उनेमा में जाऊं. पर मैं सदा से एक निर्देशक ही बनना चाहता था, एक ऐसा निर्देशक जिसके पास संगीत की भाषा हो.
चौदह
संगीत मेरे लिए एक सफर सरीखा है.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आने से पहले मुझे लगता था कि मैंने बहुत काम किया है. यहां आने के बाद मुझे लगा कि यह मेरा भ्रम है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आपको एक माहौल मिलता है, एक रंग-संस्कार मिलता है, एक नई दृष्टि मिलती है. इससे आप आत्मावलोकन करते हैं और आपका कस्बाई-बोध टूटता है.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में बनने की प्रक्रिया कुछ इस तरह की है कि सुबह से शाम तक आपको सिर्फ थिएटर की दुनिया में ही रहना है. रात-रात भर जागकर काम करना मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में ही सीखा. दो-दो बजे रात तक जागकर हॉस्टल में प्रोजेक्ट बना रहे हैं, फिर पराठे खाने ‘आईटीओ’ जा रहे हैं, फिर थोड़ा सोकर सुबह-सुबह क्लास करने जा रहे हैं. इस इनवायरमेंट में आपका पर्सपेक्टिव पूरी तरह बदल जाता है. आपके सोचने का ढंग बदल जाता है. जब रामगोपाल बजाज सामने खड़ा करके कह रहे हैं कि बात करो और हम लोग घंटों बात कर रहे हैं. रीता गांगुली चिड़ियाघर लेकर जा रही हैं और कह रही हैं कि बंदरों से बात करो और उन्हें आब्जर्व करो. शेर को देखो, उसे भी आब्जर्व करो. सब कुछ को देखो और सब कुछ को आब्जर्व करो और परफॉर्म करो. यह सब कुछ मेरे लिए बहुत नवीन था. इस नवीनता ने मेरे नजरिए को बदलकर रख दिया.
इस माहौल से मैंने बहुत कुछ सीखा— अध्यापकों से सीखा, अपने साथियों से सीखा. तीसरे वर्ष में सबसे ज्यादा सीखने का मौका मिला. एक टूर में हम कारंत जी के साथ मैसूर में थे. कारंत जी हमको लंच के बाद सोने को बोलते थे और उसके बाद कहते शाम चार बजे आइए और अभ्यास कीजिए. यह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नहीं होता था, लेकिन यहां यह अनिवार्य था कि लंच कीजिए, आराम कीजिए और फिर चार बजे आइए.
संगीत को लेकर मैंने सबसे ज्यादा कारंत जी से ही सीखा. यह कारंत जी का ही प्रयोग था कि संगीत में मुक्त-छंद की कविता को बांधा जाए. जब ‘नल दमयंती’ का प्रोडक्शन हो रहा था, तब उन्होंने मुझे एक हारमोनियम दिया कि संजय आप… वह मुझे ‘तुम’ नहीं बोलते थे, ‘आप’ ही बोलते थे. वह बोले, ‘‘देखिए, संजय मैं गाना कंपोज करता हूं और भूल जाता हूं. इसलिए कंपोजीशन आपको याद रखनी है. मैं जितने भी गाने बना रहा हूं, सब भूलता भी जा रहा हूं.’’
इस प्रक्रिया ने मुझे याद रखना सिखाया— धुनों को.
मैं लगातार सीख रहा था. एकांत में भी अभ्यास मेरी आदत बन गई थी. उस समय मोबाइल तो था नहीं कि रिकार्ड कर लेते. मेरे लिए सीखना और सीखे हुए को याद रखना ही एकमात्र विकल्प था. मैं तो बिल्कुल मात्रा वाला व्यक्ति था, लेकिन ऐसी भी रचनाएं जो मात्रा में नहीं हैं यानी अतुकांत है, उन्हें कैसे कंपोज किया जाए यह जानना मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक था. मैं मेलोडी और प्रैक्टिकल चीजों से अवगत था, लेकिन इस तरह से गाने बन जाते हैं और अच्छे भी लगते हैं, यह इससे पहले नहीं देखा था. स्वर-योजना और स्वर-प्रभाव यह सब मुझे यहां सीखने को मिला. यहां यह मैंने पहली बार सुना कि रंग-संगीत में गाना कंपोज करना है और साउंड की भी फीलिंग और प्लानिंग होती है. आगे यह भी सीखा कि कैसे आर्केस्ट्रेशन होता है. वेस्टर्न हो, क्लासिकल हो, सिंफनी हो… सब तरह के संगीत को मुझे जानने का मौका मिला और समझने का भी. मोहन उप्रेती का संगीत मुझे सामान्य लगता था. वह किसी न किसी राग में डालकर रागिनी निकाल लिया करते थे, लेकिन कारंत जी का संगीत न किसी राग पर आधारित है, न रागिनी पर. ऐसा लगता था कि वह बोल रहे हैं, गा नहीं रहे.
इस प्रकार यों हुआ कि मैं संगीत में और संगीत मुझमें चलने लगा…
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संजय उपाध्याय देश के प्रतिष्ठित रंगकर्मियों में से एक हैं और अमितेश कुमार बेहद दृष्टिवान रंग-समीक्षक हैं. संजय उपाध्याय से sanjay.upadhyay.nkm1988@gmail.com पर और अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर बात की जा सकती है. ये बातें ‘सदानीरा’ के 17वें अंक में पूर्व-प्रकाशित हैं. इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज नागेंद्र सिंह राठौर के सौजन्य से.