आख़िरी बातचीत ::
आग्नेय और अविनाश मिश्र

आग्नेय (1935-2023)

आग्नेय जी को गए दो-तीन रोज़ हो गए। इस बीच उनकी दी हुई चीज़ें ढूँढ़ता रहा हूँ। किताबें (उनकी और दूसरों की), कुछ सफ़ेद पन्ने (जिन पर काली स्याही से उन्होंने अपनी कविताएँ, अपनी प्रिय कविताओं के अनुवाद उतारे थे), कुछ छोटी-छोटी पुर्ज़ियाँ (जिन पर परेशान करने वाली बातें लिखी थीं), उनकी अप्रकाशित पुस्तकों की पांडुलिपियाँ, ‘सदानीरा’ (जिसके उन्होंने अपने संस्थापन-संपादन में 16 अंक निकाले और मैंने कुछ अतिथि संपादक-मित्रों के साथ मिलकर 13) और उनका आशीर्वाद, स्नेह, भरोसा और उनके सारे संदेश… मुझे मेरे कुछ महीने पहले स्थानांतरित हुए अध्ययन-कक्ष में सब कुछ मिल गया है।

आग्नेय (यहाँ से जी छूटता है) अपनी मृत्यु के समय बिल्कुल अकेले थे। उनका कोई भी दूर या पास का परिचित उनके पास नहीं था। वह 26 मई 2022 से भोपाल के अपने घर और वस्तुओं-परिचितों से दूर होकर गुड़गाँव स्थित मैक्स के ‘अंतरा केयर होम’ में रह रहे थे। वह अपने स्वास्थ्यगत व्यवहार की वजह से चाहते नहीं थे कि इसकी सूचना बहुत ज़्यादा सार्वजनिक हो। वह ज़्यादा देर बात नहीं कर पाते थे। वह कभी-कभी परिचितों को पहचान भी नहीं पाते थे। इस समयांतराल में मैं कभी-कभी उनके पास प्रसंग-अप्रसंगवश जाता रहा। उनके लिए जीना दुरूह होता जा रहा था, लेकिन जीवन उनसे छूट नहीं रहा था। इस बीच उन्होंने एक बार एक तरह से जीने को सबसे बड़ी यातना मानते हुए कहा कि रोज़ मरने के लिए उठता हूँ, सब कुछ मरने के लिए करता हूँ; लेकिन मृत्यु आती नहीं! आपकी इच्छाएँ ही आपको सबसे ज़्यादा तड़पाती हैं। प्रेम में व्यक्ति सबसे अधिक तड़पता है, जबकि नफ़रत में तड़पता नहीं; कर गुज़रता है। वह जीवन से प्रेम करने वाले मनुष्य थे।

मृत्यु साक्ष्य बन जाती है
तुम्हारे प्रेम की
जो तुम अपने जीवन में
उसके सामने
कभी साबित नहीं कर सके—
तुम उसे प्रेम करते हो

गई 13 अप्रैल को उन्होंने मुझे एक मैसेज किया : come urgently

मैं 10 रोज़ बाद पहुँच पाया…

उनके सुपुत्र सीमांत आगामी 3 सितंबर को अमेरिका से उनके पास आने वाले थे, पर आग्नेय 26 अगस्त को चले गए :

मेरे चारों ओर
मीठे पानी से भरे जलाशय और सरोवर हैं
इठलाती सरिताएँ बह रही हैं
जंगल के भीतर-भीतर
पहाड़ियों से गर्जन करते जल-प्रपात गिर रहे हैं
इन सबके बीच मैं प्यासा खड़ा हूँ
बादलों से एक बूँद गिरने की प्रतीक्षा में।

वह भूलने लगे थे।

एक रोज़ उन्होंने पूछा : ‘तीसरी’ क़सम’ किसकी फ़िल्म है?

एक रोज़ उन्होंने पूछा : मुझे कौन-कौन से सम्मान मिले हैं। मैंने बताया तो कहने लगे कि वह जो एक किसी संस्कृत कवि के नाम पर मिला था, वह कौन-सा था?

उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा,
कालो हययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।

— भवभूति

एक रोज़ उन्होंने पूछा : तुम किस पत्रिका का संपादन करते हो और पहले कहाँ-कहाँ काम कर चुके हो?

जुगनू है तुम्हारी स्मृति
बुझती है जगमग करती है
एक और स्मृति है तुम्हारी
जो न कभी बुझती है
और न जगमग करती है
भभकती रहती है निरंतर
दिन-रात के सारे प्रहरों में

…अपनी स्मृति से उनका यह संघर्ष ज़्यादा पुराना नहीं, हाल ही का था। भोपाल छूटने से पूर्व तक उनको सब कुछ याद था। वह इस स्मृति के लिए लड़ते-झगड़ते रहते थे। वह एकदम नई तकनीक के आदमी थे—बदलते हुए संसार के साथ चलने वाले, कुछ भी उन्हें डराता नहीं था—मनुष्य के पतन के सिवा। वह बहुत कुछ से चिढ़े हुए रहते थे, और उन्हें पसंद करते थे जिनसे चिढ़ने वाले बहुत होते थे। मेरे बारे में उन्होंने एक बार कहा कि तुम्हें कोई भी प्यार नहीं करता है। मैंने कहा कि आप अपने बारे में बता रहे हैं। उन्होंने मुझसे पूछा : प्रेम में क्रूरता कहाँ दबी रहती है? उसका पता तब तक क्यों नहीं चलता, जब तक वह अपने प्रेम की हत्या नहीं कर देती?

वह मेरी कविताओं पर मुझे टोकते रहते थे। एक रोज़ मेरी नौ देवियों पर संभव हुई कविताओं पर नाराज़ होकर उन्होंने मुझे लिखा : कविता सिर्फ़ शब्दों से नहीं लिखी जाती है। उसके लिए एक वैज्ञानिक और गणितज्ञ की दृष्टि एक कवि के पास होनी चाहिए, तभी वह यथार्थ को संपूर्णता से समझ सकता है। कविता को वैज्ञानिक संवेदना और चेतना रखने वाले कवि की ज़रूरत होती है। समकालीन युवा कविता में यह विरल और दुर्लभ है। अधिकतर कवि विज्ञान, राजनीति और इतिहास की बचकानी जानकारी रखते हैं।

वह जब भोपाल में थे, तब हमारी बातचीत अक्सर फ़ेसबुक मैसेंजर पर होती थी। उन्हें सुनने में तकलीफ़ होती थी। वह धीमे-धीमे लिख लेते थे। शब्दों का लिखा हुआ रूप उन्हें संवाद के लिए ज़्यादा उचित लगता था। हमारी बातचीत कोविड-अवधि में बहुत बढ़ गई थी। उनका अचानक से कोई लिंक या मैसेज आ जाता या मैं उन्हें कुछ भेजता, ‘सदानीरा’ की नई पोस्ट आदि… इस सबके इर्द-गिर्द ही बातें होतीं जो विषयांतर होते-होते फैलती जातीं। एक रोज़ उन्होंने लिखा : मेरा पैसे की ताक़त पर विश्वास नहीं है। आज जो पूँजीपति हैं, वे शुरू में नहीं थे। उन्होंने अपनी क़िस्मत बदल दी। सारे परिवर्तन कुछ लोग ही लाते हैं। तुम पैसे से चलने वाले साहित्य की गुणवत्ता पर संदेह किया करो। अपने पर भरोसा बनाए रखो। समय ही हमको सफल करेगा।

बहरहाल, इस क्रम में आगे की बातचीत यहाँ अपने संपादित रूप में प्रस्तुत है। मैं उन्हें ‘सर’ कहता था। यहाँ यह संबोधन नहीं है। और सभी ग़ैरज़रूरी तथा हालचाल लेते हुए संदेश हटा दिए गए हैं और वे भी जिनसे अनावश्यक विवाद जन्म ले सकते हैं। अब इनमें एक क़िस्म की सामाजिकता और निजता एक साथ है। देखिए :

आग्नेय : कविता को सपाट रूप से स्पष्ट नहीं होना चाहिए। वह कविता तब तक रह सकती है, जब तक उसका तिलिस्म नहीं टूटता। कविता में social message देने की कोई भी कोशिश उसके जादू या Dundee को नष्ट कर देती है।

अविनाश : यह Dundee क्या है?

आग्नेय : poetryintranslation.com

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आग्नेय : क्या तुम यक़ीन करते हो कि हमारे लोकतंत्र को भाजपा नष्ट कर देगी?

अविनाश : नहीं वे नष्ट नहीं, बस आहत कर रहे हैं। वे उसको कभी नष्ट नहीं करेंगे। उसका उपयोग करेंगे—अपना agenda लागू करने के लिए। लोकतंत्र ही फ़िलहाल उनके लिए सबसे मुफ़ीद माध्यम है।

आग्नेय : क्यों नहीं करेंगे? यह उनका अपना agenda है और हम विरोध भी कर रहे हैं। देखते हैं कि क्या होता हैं। हम भी देखेंगे।

अविनाश : यह लोकतंत्र की पराजय का समय है।

आग्नेय : हाँ, विपक्ष का राजनीतिक मानस भी ज़्यादा सही नहीं लगता है। हमने उनको कितनी बार चुनकर मौक़ा दिया और क्या किया उसने? भाजपा को ले आए।

अविनाश : हाँ। सारे विश्वास टूट गए इस बीच।

आग्नेय : सत्ता सदा से यही करती आई है। उसको शर्म नहीं आती। लेकिन एक लेखक को हमेशा प्रतिपक्ष में रहना होता है, चाहे सत्ता में कोई भी हो? राज्य के विलीन होने तक हमारे लिए यही सत्य है और कुछ नहीं!

I respect and also love you and Sudhansu [सुधांशु फ़िरदौस], at the same time I expect that you both have a very autonomous existence of your own.

अविनाश : शुक्रिया! पर सब बहुत मुश्किल होता जा रहा है। हम लोग ठीक से औसत भी नहीं हो पा रहे—दैनिक ज़रूरतों के चक्कर में।

आग्नेय : Corona virus ने सारी दुनिया को हिला दिया है। Stock Market ध्वस्त हो गया है।

अविनाश : हाँ और दिल्ली को दंगों ने। कल से हालात विकट हैं।

आग्नेय : 1 मार्च (2020) को ‘हम देखेंगे’ के समर्थन में ‘सदानीरा’ में लिखना। मेरे ख़याल से समय आ गया है कि एक खुला व्यापक जन आंदोलन शुरू कर दिया जाए। अपनी-अपनी सुरक्षा-खोह से हमला बोलने का कोई अर्थ नहीं है।

अविनाश : एक मार्च जाता हूँ पहले। उसमें शामिल होता हूँ। उस दिन गिरफ़्तारियाँ भी हो सकती हैं। धारा 144 लगी हुई है दिल्ली में। वैसे जो उनका मक़सद था, उन लोगों ने पूरा कर लिया—यानी मुसलमानों को डराना। बुद्धिजीवियों को वे नज़रअंदाज़ करके भी काम चला लेंगे या कुछ को ख़रीद लेंगे।

आग्नेय : मुझे एक बात की शंका है कि कहीं मुसलमान भागना शुरू न कर दें। लाखों मुसलमान पहले ही दुनिया से भाग रहे हैं। Trump इसमें उनका सबसे बड़ा मददगार साबित होगा। वह शायद मोदी से भी ज़्यादा उनसे नफ़रत करता है।

अविनाश : सच कहूँ तो बहुत दहशत होती है।

आग्नेय : दहशत की कोई बात नहीं। Prime Levi जैसे लोगों ने Holocaust को सहकर भी survive किया। मनुष्य की जिजीविषा से अपराजेय कोई और चीज़ नहीं है। कई बार हारकर भी अंतिम विजय मनुष्य की ही होती है। याद रखो इसे।

अविनाश : आपने Parasite देखी?

आग्नेय : हाँ, unrealised love और unfulfilled dreams और युवा जीवन की कोमल कलियों की दास्ताँ है। वह जीवन के परजीवी पक्ष की कथा नहीं है, जैसा कि सब समझ रहे हैं।

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आग्नेय : यह तो मानना ही होगा कि पुराने वामपंथ से कुछ नहीं होगा और उन लेखकों से जिनकी अब कोई साख नहीं है। सारी दुनिया में नए लोग उठ रहे हैं। 10-12 साल के लोग भी व्यवस्था को challange कर रहे हैं। हम लोगों को किसी से नहीं डरना है और जो कहना है, उसे निर्भय होकर कहना है।

अविनाश : सब कुछ बदल रहा है। सिर्फ़ हिंदी का लेखक अपने को बदलने के लिए तत्पर नहीं है।

आग्नेय : अब कई बार सोचने लगा हूँ कि हम क्यों और किसके लिए लिखते हैं? हम जो भी लिखते हैं, उसको कौन पढ़ता है? वह जिसके लिए उसे लिखा गया, कम से कम वह तो पढ़ता ही नहीं। शायद हम यह मानकर लिखते रहते हैं कि उसे कोई भविष्य का पाठक पढ़ सकता है। कई बार यह भी सोचता हूँ कि लिखने से बेहतर यह होता कि इस समाज को बदलने का काम दिन-रात करते तो शायद कुछ बदल ही जाता। इस वजह से इधर कुछ लिखने का मन नहीं होता। अशोक वाजपेयी जैसे कई लोगों ने हिंदी लेखन को निरर्थक कर दिया या बना दिया। उन्हें पाठकों की ही ज़रूरत नहीं रही कभी, क्योंकि उन्हें वह सब मिल गया जो वे लिखने के माध्यम से पाना चाहते थे।

अविनाश : एक सीमा तक आप सही ही कह रहे हैं। मुझे लगता है लिखना भी एक काम है, जैसे दूसरे काम हैं। काम के लक्ष्य आपने क्या तय किए और उसे कैसे किया, यह सब तो आपकी क्षमता और विवेक पर निर्भर है। लिखना अपने अपराधबोध को दफ़नाना भी है।

आग्नेय : यह सब सही हो सकता है, लेकिन हमारे लिखने का क्या अर्थ है या होगा? सवाल यह है कि हम क्या लेखक रह पाए हैं या हम लेखक के पहले और कुछ हो गए हैं?

अविनाश : यहाँ लेखन से कहाँ कुछ बदलता है!

आग्नेय : लेकिन वह लोगों को बदलने के लिए ही काम करता है और जो महान् लेखक होते हैं, वे लिखने के ज़रिए यह काम करते रहते हैं और अपने को भी बदल लेते हैं। महान् व्यक्तियों और लेखकों ने इस संसार को बदलने के लिए तैयार किया है। हम जैसे लोग चूक गए हैं। इसका अफ़सोस जीने नहीं देता। क्या करें?

अविनाश : इस देश में कम महानताएँ नहीं हुईं, फिर भी कहाँ कुछ बदला! दुनिया हँस रही है आज हम पर… केवल शर्म ही हमारा सत्य है। आप संपादकीय में उठाएँ इस बात को, अगर अनुकूल लगे तो…

आग्नेय : एक योद्धा होता है जिसे wordshworth ने A Happy Warrior कहा है। हम लोगों को मुँह लटकाए, निराश और हारे हुए संघर्षरत लोग नहीं होना है। भले हम कुछ नहीं कर पा रहे, लेकिन बहुत लोग इस संसार को बदलने के काम में लगे हुए हैं। हमको भी उसी काम में लगे रहना है। Be A Happy Warrior.

अविनाश : हाँ।

आग्नेय : एक बात और कि विकास के मुताबिक़ कुछ भी पीछे नहीं लौटता। उसकी नियति आगे बढ़ते और बदलने की है। सब कुछ बदल रहा है। उसे हम ही बदल रहे हैं। Who is a Happy Warrior? It’s someone whom the battlefield is itself a source of joy and inspiration.You got to have fun while you are fighting for freedom because you’re not always going to win.

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आग्नेय : Do you think that final and ultimate war will be between male and female to annihilate each other on our planet?

अविनाश : ऐसा तो मुझे संभव नहीं लगता…

आग्नेय : I feel that I am thinking unrealistically.

अविनाश : मुझे लगता है कि हम एक दूसरे की ज़रूरत को ख़त्म करने की राह पर चल पड़े हैं। इसलिए शायद हम एक दूसरे के space को ही लेना चाह रहे हैं।

आग्नेय : क्या तुम सोचते हो कि हमको एक दूसरे की ज़रूरत रहेगी। प्रकृति ने sex को invent किया था—औरत और मर्द बनाकर। अब वह फ़र्क ख़त्म होने वाला है।

अविनाश : पता नहीं यह दुनिया ही रहेगी कि नहीं… कल देवी प्रसाद मिश्र कह रहे थे कि विष्णु खरे बहुत गंभीरता से कहते थे : अगली सदी नहीं होगी…

आग्नेय : हम मिट जाएँगे, फिर बन जाएँगे। ऐसा कई बार हो चुका है।

अविनाश : क्या पुनर्जन्म में आपकी आस्था है?

आग्नेय : हाँ, जिसे मैंने प्रेम किया; उसके लिए सौ जन्म लेने के लिए तैयार हूँ। मैं तो अपने को लामा मानता हूँ।

अविनाश : अच्छा! लेकिन आपने एक बार अपने यहाँ अपने मृत प्रिय से मिलन का एक और प्रसंग सुनाया था, ध्यान नहीं आ रहा किस हवाले से…

आग्नेय : मुझे भी याद नहीं आ रहा…

अविनाश : ओह!

आग्नेय : अब याद आ गया। कुछ लोगों की धारणा है कि इस universe में कोई एक ऐसी जगह होनी चाहिए जिसे उन्होंने Omega नाम दिया है, जहाँ एक दूसरे से बिछड़े मिल जाते हैं। तार्कोव्स्की की फ़िल्म Solaris में इसका आभास है।

अविनाश : हाँ, वही। मुझे लगता है पुनर्जन्म की अपेक्षा यह ज़्यादा उचित है। सच्चा प्यार अगर हो तो…

आग्नेय : Milan Kundera ने भी सच्चा प्रेम इसको ही माना है, जब आप एक ही स्त्री को बार-बार कई जन्मों में प्रेम करना चाहें। दाँते ने भी वर्जिल को पाने के लिए नरक की यात्रा की थी। दाँते जिसे प्रेम करते थे, उसकी मृत्यु युवा जीवन में ही हो गई थी।

अविनाश : क्या पीड़ा ही महान् रचनाओं का आधार है?

आग्नेय : बिल्कुल। वह तो अपने साहित्य में भी है—वाल्मीकि से लेकर प्रसाद तक। रामचरितमानस में भी है। सीता को खोकर राम की गति यही हो गई।

अविनाश : निराला भी…

आग्नेय : हाँ…

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आग्नेय : इस संसार में न जाने कितने लेखक हैं, जिनको पढ़कर लगा कि अब मर जाएँ! तुमको कैसा लगता है, अपने प्रिय लेखकों को पढ़कर?

अविनाश : यही कि मुझे उनसे बेहतर लिखने की कोशिश करनी चाहिए।

आग्नेय : यह तो तब मामूली प्रतिक्रिया है। दरअस्ल, किसी अनुभव की इंतिहा अपने को बेहतर बनाने या अच्छे लगने की नहीं होती, बल्कि वह निस्सार लगने लगता है। काफ़्का के बारे में कई लोगों को ऐसा ही लगता है। यही वजह थी कि वह अपने लिखे हुए को नष्ट कर देना चाहते थे। Fernando Pessoa ने कई लेखक बनाकर अपने को बार-बार मारा है। यह तो किसी भी चरम अनुभव का परिणाम हो सकता है। कहते हैं कि कुछ जीव संभोग की पराकाष्ठा में मर जाते हैं। पतंगा क्या करता है! एक मकड़ी होती है जो संभोग करते हुए अपने रतिरत मकड़े को खा जाती है।

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आग्नेय : मानव कौल कैसे लेखक हैं? उनका यात्रा-वृत्तांत आया है?

अविनाश : हाँ। हमने प्रकाशित किया है एक अंश उससे ‘सदानीरा’ में। वह लोकप्रिय और सामान्य लेखक हैं। मूलत: अभिनय के आदमी हैं। अच्छे अभिनेता हैं। सुंदर हैं।

आग्नेय : कल से दिल्ली में lockdown शुरू हो रहा है।

अविनाश : हाँ, और देश थाली बजाकर भगा रहा है कोरोना। शर्म आती है।

आग्नेय : आनी ही चाहिए। Lockdown में क्या करने की सोच रखी है।

अविनाश : मन नहीं लग रहा।

आग्नेय : अपने को समकाल से दूर रखो और अपने एकांत के पास रहो। समय बिताने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही हो सकता है। कोई भी बात जान लेना बेकार है। एकांत में तब ही रह सकते हैं, जब हम अपने को ख़ाली करें। ख़ाली होकर ही एकांत के निवासी हो पाएँगे। तब हम अनिकेत हो जाएँगे।

Nietzsche ने कहा है कि Live dangerously और Camus ने Create dangerously. इसमें कौन-सा विकल्प चुनना चाहिए?

अविनाश : नीत्शे का रास्ता ही ठीक है, क्योंकि लोगों ने कामू का रास्ता ले लिया या नीत्शे का रास्ता भी ठीक नहीं है, क्योंकि लोगों ने कामू का रास्ता ले लिया

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आग्नेय : एक अच्छा गद्यकार वह हो सकता है जो गद्य में कविता लिखने की कोशिश नहीं करता है, क्योंकि वे एक दूसरे के शत्रु हैं। एलियट ने कहा है कि कविता वह है जो गद्य में लिखे जाने पर भी कविता बनी रहती है। कविता का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। पद्य अपने शिल्प का ग़ुलाम हो जाता है। मैं अपनी सोच में ग़लत भी हो सकता हूँ। एक बात और है कि पद्य संपूर्ण यथार्थ को कभी अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। एक तरह से वह एक मायावी संसार को ही प्रस्तुत कर देता है। गद्य ही यह कर सकता है। इसलिए गद्य का लिखना जोखिम भरा काम है। ‘पहल’ में लिखे अपने लेखों की किताब प्रकाशित करो, जल्दी से।

अविनाश : दुनिया खुले तो सब कुछ खुले और मन भी…

आग्नेय : वह तो खुल ही जाएगी। मनुष्य की जिजीविषा virus से अधिक बड़ी है। दुनिया की ताक़त और दृढ़ हुई है। वह अभी लाचार नहीं हुई है। मन के पीछे अधिक नहीं भागना है। उसको अनुशासित करना है। मेरा सोचना है कि एक लेखक को हमेशा के लिए Lockdown में रहना चाहिए या उसको यह अपने लिए घोषित कर देना चाहिए।

अविनाश : क्या बात है! राहत-सामग्री की तरह है आपकी यह बात…

आग्नेय : हाँ, लेकिन तुमको यह कुछ दिन के लिए ही मिल सकती है; क्योंकि तुम्हारी मंज़िल का कोई अंत नहीं है जो भी कुछ साथ में ले जाओगे, वह सब समाप्त हो जाएगा। परचून और सब्ज़ी कहाँ से लाते हो lockdown में?

अविनाश : यहीं से लेते हैं—घर के पास से।

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आग्नेय : System का हिस्सा बनकर जीने का क्या कोई अर्थ है? प्रतिरोध का ही जीवन उसे sustain करता रहता है। बड़े लोगों का जीवन यही कहता है। तुममें एक बड़े लेखक होने की सारी संभावनाएँ हैं, लेकिन न जाने क्यों ऐसा नहीं करते? अपने को इधर-उधर भटकने देते हो। दरअस्ल, हमारा जो स्वधर्म और स्ववविवेक है; उसके अनुसार ही जीवन जीना चाहिए, चाहे इसके लिए कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े। मैं पूरी तरह यह जीवन जी नहीं सका, इसका अफ़सोस है। रेलगाड़ी निकल गई और मैं उसके पीछे ही भागता रहा ताउम्र। इसलिए तुमसे और सुधांशु से कहता रहता हूँ।

अविनाश : हम जिस समाज में हैं, उसमें हमारी रेलगाड़ियाँ भी छूटनी ही हैं।

आग्नेय : अभी युवा हो। कोशिश करो कि कोई रेलगाड़ी न छूट पाए। कुछ लोग हैं हमारी दुनिया में जो रेलगाड़ी नहीं छूटने देते। हमारे दो संसार होते हैं, जिनमें ही हम जीते और मरते रहते हैं। इसलिए यथार्थ और मिथ्या के फ़रेब में नहीं फँसना चाहिए। यह कहा गया है कि सब माया है, सब मिथ्या है। यथार्थ को पहचानना और जानना संभव नहीं है—इस संसार में। बुद्ध भी यही मानते थे कि जो तीर वक्ष में धँसा है, उसको निकालने की कोशिश करो। यथार्थ और मिथ्या के बारे में अभी मत सोचो।

Lockdown में क्या डेली रूटीन रहता है? I am always live in self exile and permanent lockdown being alone but it’s more fruitful and creative than to be active on social media. At the same time I am aware of all things happening around me.

अविनाश : 10-6 ऑफ़िस का काम, इस बीच ही थोड़ा-बहुत ‘सदानीरा’ का भी… बाक़ी उठता हूँ 4 बजे सुबह, पढ़ता हूँ… महाभारत—5 खंड में है। एक खंड शेष रह गया है। रात में कोई फ़िल्म देखते-देखते सो जाता हूँ।

आग्नेय : तब तो व्यस्त हो। जानते हो कि ‘महाभारत’ का केंद्रीय पात्र कौन है? उनके किरदार से ही उसे रचा जा सका। उसका रचयिता भी एक केंद्रीय पात्र है उसमें।

अविनाश : हाँ, मुझे तो केंद्रीय पात्र युधिष्ठिर ही लगते हैं और केवल व्यास का काम नहीं लगता महाभारत! यक़ीन नहीं होता कि एक व्यक्ति इतना सब जानता होगा!

आग्नेय : मुझे कई बार अपने वामपंथी होने पर संदेह होने लगता है! वामपंथी होने का आज के समय में क्या अर्थ है? मेरे चतुर्दिक धुँध गहन और सघन होती जा रही है और निकलने का कोई रास्ता नहीं नज़र आ रहा है और न कोई हाथ पकड़कर रास्ता दिखा रहा है। क्या मुझे एक लेखक होने के पहले यह साबित करना होगा कि मैं अपने वामपंथी मित्रों की तरह वामपंथी हूँ? क्या वामपंथ की गली इतनी सँकरी है कि उसमें दो लोग—अलग-अलग सोच के—नहीं समा पाते हैं!

अविनाश : हम सब ट्रैप में हैं—अजीब-से ट्रैप में…

आग्नेय : किसका बुना और फेंका गया है यह जाल? मित्रों ने या दुश्मनों ने?

अविनाश : मुझे लगता है कि समाज ही इसे बुनता गया है—अपने लालच और क्रूरता में… समाज में दोनों हैं—दोस्त और दुश्मन।

आग्नेय : यह समय तानाशाही के लिए सबसे अच्छा समय साबित हो रहा है, जब लोग ख़ुद ही चाहते हैं कि ज़ंजीर उनको पहनाई जाए।

अविनाश : क्या आपको लगता है कि यह आपदा रची गई है?

आग्नेय : शायद ऐसा न हो, लेकिन यह सच है कि तानाशाही ताक़तें इसका पूरा का पूरा फ़ायदा उठाएँगी और उपयोग करेंगी।

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आग्नेय : शशिभूषण द्विवेदी के न रहने के समाचार से बेहद दुखी हो गया हूँ। यह सब अचानक हुआ। तुम तो उनके नज़दीक रहे हो। दाह संस्कार में शायद ही शामिल हो सको।

अविनाश : मैं उनके शव को रूद्रपुर पहुँचाकर अभी लौटा हूँ। उसी एंबुलेंस से आ गया, जिससे उन्हें लेकर गया था।

आग्नेय : रूद्रपुर कहाँ है?

अविनाश : उत्तराखंड में हल्द्वानी के पास…

आग्नेय : दूर था। थक गए होगे। आराम कर लो।

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आग्नेय : शशि जी के परिवार में और कौन है?

अविनाश : पत्नी हैं।

आग्नेय : कई बार मैं सोचता हूँ कि सबको किसी न किसी तरीक़े से मरना ही है तो ये लाखों लोग भाग क्यों रहे हैं? भूख से मरने से बेहतर है कि गोलियों से मर जाना। इतनी कायरता कहाँ से आ जाती है हमारे अंदर। तानाशाहों की हर क्रूरता को हम बर्दाश्त करके जीना चाहते हैं।

अविनाश : लोग कुछ समझ नहीं पा रहे हैं…

आग्नेय : यह कुछ नया नहीं है। लोग जीने की लालसा में गैस चैम्बर्स में चले जाते हैं। जब तक हम जीने की चाहत नहीं छोड़ेंगे, तब तक यही होता रहेगा। व्यक्ति को निर्भय रहना चाहिए। इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकता था, सिर्फ़ जीने के सिवाय।

अविनाश : हाँ, फ़िक्र छोड़नी होगी अभी।

आग्नेय : तीन लिख दिए शशिविषयक, अभी और लिखोगे?

अविनाश : लिख ही सकता हूँ फ़िलहाल। और कोई योजना नहीं है, जब तक उबरना नहीं होता। सीने में अजीब-अजीब-सा कुछ चुभता रहा है, जब से वह गए हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा। बस रोना आ रहा है। माँ जब मरी तो साहित्य की कोई समझ नहीं थी। शशि जी का जाना उनके बाद मेरे जीवन की सबसे बड़ी क्षति है। सोच रहा हूँ कि लिखकर इस चुभन से मुक्त हो जाऊँगा, पर यह और बढ़ रही है।

आग्नेय : जीवन की नश्वरता के बारे में समझ से काम लेना होगा, चाहे वह कितना प्रिय क्यों न हो। एक मृत्यु को दूसरी मृत्यु से अलग भी नहीं कर सकते हैं। लिखने से अस्तित्व की यातनाओं से मुक्ति नहीं मिलती। एक ख़त्म होगी तो दूसरी शुरू हो जाएगी। बुद्ध ने कहा था कि हम इसलिए मरते हैं क्योंकि हम इस संसार में आते रहते हैं, जिस दिन यह आवागमन बंद हो जाएगा; उस दिन जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाएँगे।

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आग्नेय : Before Sunrise का नायक तुम्हारे और सुधांशु जैसा है। नायिका कौन है, यह तुम बताओ।

अविनाश : मुझे तो मेरी नायिका मिल गई है। सुधांशु को मिल जाए, आप आशीर्वाद दीजिए।

आग्नेय : इस फ़िल्म की नायिका एक दिन के लिए मिली थी। फिर सूर्योदय होने पर बिछड़ गई। तुमको permanent मिल गई है। बिछड़ने वाले के लिए क्या आशीर्वाद दूँ।

अविनाश : मुझे ऐसी कोई नहीं मिली…

आग्नेय : ख़ुशक़िस्मत हो! नायिकाओं का क्या! किसी को जीवन भर के लिए मिल जाती हैं और किसी को एक रात, एक दिन के लिए और कोई जीवन-संध्या आने पर बिछड़ जाती है। शशि जी अपनी नायिका से बिछड़ गए। उन्होंने तो अपनी ही परछाई को काट डाला। कुछ लोग इसी तरह कूच कर जाते हैं—दूसरों को विलाप करते हुए छोड़कर।

अविनाश : हाँ!

आग्नेय : यह गीत शशिभूषण जी की स्मृति को समर्पित है, मेरी ओर से—

दरअस्ल, मैं शशि जी को नहीं जानता था; इसलिए तुमने और सुधांशु ने जो लिखा है, उसको verify नहीं कर सकता हूँ । उनका लिखा भी नहीं पढ़ पाया। लेकिन इतना तो कह सकता हूँ कि वह Depression के रोगी थे और उनका जीवन बचाया जाना था और वे addict भी थे। मेरा यह अनुभव है कि मित्र भी ऐसा नहीं करते हैं कि वह बच जाएँ। बाद में उनके दिवंगत होने पर Obituaries लिखते हैं। एक बात और कि उनकी नियति अन्य लेखकों की तरह ही थी, उससे अलग नहीं थी। सबको इसी तरह जाना होता है। ‌शशि जी के दिवंगत होने के पहले उनके 4,815 फ़ेसबुक मित्र थे, लेकिन फिर वह क्यों अपने को इतना अकेला मानकर जी रहे थे? यह एक ऐसा सवाल जिसका जवाब मिलना चाहिए? यह सवाल उनको ख़ुद से भी पूछना था? हम लोग बेहद आत्मकेंद्रित लोग हैं जो सिर्फ़ अपने लिए ही जीते हैं, दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। हिंदी में तथाकथित वामपंथी लेखकों ने अनेक अन्य प्रतिभाशाली लेखकों को नज़रंदाज़ किया। एक दूसरी बात संसार के अनेक युवा प्रतिभासंपन्न लेखक अल्पायु में ही विदा हो गए। इस संसार को हम अपनी मर्ज़ी से तो नहीं चला सकते। जिसको जो करना है, वह कर रहा है। जिसको पैदल ही अपने घर लौटना है, वह लौटेगा ही। हम लोग अंधों की नगरी के रहवासी हैं। होने दो जो हो रहा है। सिर्फ़ literature में रहना और जीना सीखो।

अविनाश : सही कह रहे हैं। लेकिन काश यह संसार इतना सूचनामय न होता।

आग्नेय : हमारा पहला और आख़िरी प्रेम साहित्य है, इसलिए सूचनाएँ भी वहीं से लो। साहित्य ही व्यक्ति को संपूर्ण करता है। उसके बिना हम आधे-अधूरे ही रह जाएँगे। Ultimately we have to go through sanctuary of Buddha to learn wisdom from him. वैसे जीवन का कोई अर्थ नहीं है। उसे स्वयं अर्थ देना होता है—वह करके जो आप करना चाहते हैं।

अविनाश : हरारी ने ‘सेपियन्स’ में कहा है कि मानव जाति 10,000 साल से यही जानने की कोशिश में लगी है कि आख़िर हम करना क्या चाहते हैं, हालाँकि बुद्ध को वह भी मानक मानते हैं।

आग्नेय : मानव जाति की यही ग़लती है कि वह उसमें अर्थ पाना चाहती है जिसका कोई अर्थ नहीं है। वह सिर्फ़ यह कर सकती है कि वह स्वयं उसे कोई अर्थ दे, अर्थात् असंख्य अर्थ होंगे जीवन के। तानाशाह का अपना अर्थ होगा। संत का अर्थ उससे अलग होगा। इस तरह हम अनंत अर्थों के संसार में उपस्थित हैं। बुद्ध यह जान गए थे। इसलिए वह कहते थे कि जीवन का अर्थ मत ढूँढ़ो। यह देखो कि जो तीर वक्ष में लगा हुआ है, उसे कैसे निकाला जाए?

अविनाश : तृष्णा का तीर!

आग्नेय : हाँ, साहित्य का काम यही है कि वह इस बहुलअर्थी संसार की यात्रा करे।

अविनाश, जब मैं किसी को पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि यह मुझे लिखना था। तुम और सुधांशु अच्छा लिखते हो, लेकिन अपने लिखने से ही भागते या पीछे हटते रहते हो।

अविनाश : मैं कहाँ भागता हूँ!

आग्नेय : हो सकता है, ऐसा न हो। मैं ही ग़लत सोचता हूँ। पर मेरा तात्पर्य पूर्णकालिक लेखक होने से था। तुमने तीस की उम्र पार कर ली है और अधिकांश तुम्हारा लेखन किसी की डिमांड से किया गया है। समकालीन लेखकों पर लिखना कोई लिखना नहीं होता है। तुम्हारी ‘नए शेखर की जीवनी’ और कविताएँ ज़रूर तुम्हारा लेखन है। बहुत अच्छा है। लेकिन गद्य तो फ़िक्शन आधारित होना चाहिए। तुमने जो समकालीन लेखकों पर लिखा है, वह उसमें शुमार नहीं होगा। इसके अलावा Facebook पर जो तुमने लिखा है और जो reporting की है, वह भी नहीं होगा। तुमको अभी संजीदगी से fiction आदि लिखना होगा। आलोचना में भी कुछ नए सवाल raise करने होंगे। अपने देश की धड़कन सुनने के लिए लोग तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। दरअस्ल, ज्ञानरंजन जी ने तुम्हारे गद्य का सही उपयोग नहीं किया।

अविनाश : क्या कहूँ!

आग्नेय : मुझे उम्मीद है कि तुम सारी विवशताओं को लाँघते हुए जल्दी ही कोई महत्त्वपूर्ण रचना करोगे। एक सूचना भी लो कि कल से YouTube पर Global फ़ेस्टिवल शुरू हो रहा है जो दस दिन चलेगा और 100 फ़िल्में दिखाई जाएँगी। सुधांशु को भी बता देना।

अविनाश : बताता हूँ।

आग्नेय : जो भी करना है, उसे करना है। उसे एक दिन के लिए स्थगित मत करो। मैंने 85 पार कर लिए हैं और समय कम होता जा रहा है मेरे लिए।

अविनाश : क्या करूँ घंटे 24 ही हैं…

आग्नेय : मेरे लिए सिर्फ़ एक दिन का जीवन है। देखा जाए तो सबके पास इतना ही जीवन होता है। इसी समयांतराल में जो अर्थगर्भी है, उसे ही किया जा सकता है। बाक़ी तो छोड़ देना होगा। मुझे बताओ कि तुम्हारा बोझ कैसे हल्का किया जाए? हमको सिर्फ़ वही काम करना चाहिए जिस काम को हम प्रेम करते हैं। वह काम क्या करना जिसमें तुम्हारे 12 घंटे बर्बाद होते हैं और सिर्फ़ गुज़र-बसर होती है। तुम्हें बहुत कुछ को अलविदा कहना है। कब कहना, यह तय कर लो…

हिंदी के अनेक युवा लेखक बेहद सुरक्षित नौकरियाँ कर रहे हैं। तुम जैसे एक दो लेखक ही हैं जो अब तक असहज हैं जॉब करके। सुरक्षित लेखक कोई रिस्क नहीं लेते हैं और फ़ेसबुक पर अपने कारनामों का बखान करते रहते हैं। इनमें तुम्हारे कुछ मित्र भी। क्या नाम बताऊँ? कई बार मुझे लगता है कि तुम भी जैसा सोचते और समझते हो उसमें देशज के प्रति अतिरिक्त मोह और भ्रम है और कुछ लेखकों से अपनी तटस्थता और दूरी बनाने में विफल हो जाते हो। I hope you will not feel annoyed and irritated what I wrote about you. I have many reasons to say all this.

अविनाश : आपका सोचना ठीक है। आपका कुछ भी कहना मेरे लिए ध्यान देने योग्य है।

आग्नेय : Reading के अपने values होते हैं। उनका पालन करना होता है। कई महान् सभ्यताओं का लोप हो चुका है। अभी कुछ प्राचीन सभ्यताएँ जीवित हैं। यह सब विस्मृत नहीं करना है। Arnold Toynbee और Joseph Campbell ने इनके बारे में बहुत सोचा समझा है और लिखा है।

अविनाश : मेरा तो जो विराट है उसके सम्मुख झुकने का मन करता है। सागरों और पहाड़ों को देखकर भी मेरा यही हाल होता है और महान् लेखन और व्यक्तियों को देखकर भी।

आग्नेय : विराट के प्रति भी झुकना चाहिए और सीप, चींटी, स्नेल और cell के प्रति भी… कोरोना तो virus है। उसने विराट को भी विचलित कर दिया। एक मिट्टी के ढेले में जो जीवन की विराटता का संघर्ष है, उसके लिए तीसरे नेत्र की ज़रूरत है और वह साहित्य ही हो सकता है। यह भी कहा जाता है कि Small is beautiful and less is more. एक अणु की रचना कैसे होती है और उसमें कितनी अपार ऊर्जा है, यह भी दिलचस्प है। Minimalist के बारे में जानते हो? Netflix पर देखो…

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अविनाश : एक कवि का दुर्भाग्य क्या है?

आग्नेय : एक कवि का दुर्भाग्य शायद तब आरंभ होता है, जब वह अपने समय के कंकाल को भूलने लगता है और रसिक विरही होने लगता है। समय तत्काल नहीं है, वह कालांतक भी नहीं है। वह सतत और अनित्य है। उसको विस्मृत नहीं कर सकते। आज हम जिस समय का साक्षात् कर रहे हैं, वह उसका कंकाल है। हमको उसके यूटोपिया को यथार्थ में बदलना होगा। जब हम लोग युवा थे तब इस दुनिया को बदलने के लिए सब कुछ करने के लिए उत्सुक, आतुर और समर्पित थे। हमारा यही सपना था। कुछ समय तक साहित्य का भी यही स्वप्न था। पर आज क्या स्वप्न रह गया है? JNU के मेधावी रैडिकल छात्र अब क्या कर रहे हैं? एक-दो छोड़कर सभी को सुविधा के संसार ने निगल लिया है।

अविनाश : हाँ, निगल ही लिया। आप लोगों की पीढ़ी में आज भी बहुत ऊर्जा और उम्मीद है। आप, अशोक जी, ज्ञान जी, मंगलेश जी… चाहें जितनी असहमतियाँ हों, लेकिन आज भी आप लोग हारे नहीं हैं, लगे हुए हैं। हम लोगों के साथ पता नहीं क्या है, मन इतना विकल है; लेकिन पराजय महूसस हो रही है। क्या मालूम किसका जीवन कैसे बीत जाए और राख हो जाए।

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आग्नेय : Telegraph ने गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की एक कविता प्रस्तुत करके मोदी को सत्य का मार्ग दिखा दिया है। सारे संसार में विरोध जारी है। हमें भी उसका हिस्सा बनना है। अब अधिक सोच-विचार की ज़रूरत नहीं है। Act करना है। किसी न किसी तरह हमारी सांसारिक ज़रूरत पूरी होती रहेगी। अंत में हमको दूसरों के त्याग और बलिदान को नहीं भुलाना है? उसको याद रखते हुए संघर्ष-पथ पर चलते रहना है। पाश की याद आ रही है।

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आग्नेय : तुमने ईश्वर की मृत्यु देखी होगी, क्योंकि उसकी मृत्यु कई शताब्दी पहले ही घोषित हो चुकी है। लेकिन वह भी शैतान की तरह अनश्वर है। वह अपनी ही राख से जन्म लेता रहता है। एक बात और : मृत्यु कोई असाध्य रोग नहीं है। बुद्ध ने कहा है कि हम किसी रोग से नहीं मरते, इसलिए मरते हैं क्योंकि हम जन्म लेते हैं।

अविनाश : जी।

आग्नेय : कुछ समय से मैंने देखा है कि तुम्हारा गद्य लेखन दबाव में है। लेखक से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह जहाँ तक हो सके निष्पक्ष हो। ऐसा लगता है कि किसी दंडद्वीप में निष्कासित कर दिया गया हूँ। जहाँ अपने से ही शंतरंज खेल रहा हूँ। Stefan Zweig की कहानी Chess ज़रूर पढना।

अविनाश : पढ़ी है। अविस्मरणीय है।

आग्नेय : We must have our Polish issue printed in August. Is it possible within stipulated time table?

अविनाश : अगस्त तक ला सकते हैं पोलिश अंक।

आग्नेय : Ok. Fine. मैं बहुत जाग्रत और सतर्क हूँ। हर अच्छी चीज़ को स्वीकार कर लेता हूँ।

अविनाश : आप अपने समय के साथ हैं। आपकी सोहबत मुझे मज़बूत बनाती है।

आग्नेय : बक अप!

ओलिंपिक खेलों में रुचि है। कामू फ़ुटबॉल के खेल के मुरीद थे और खेल को सृजन के समकक्ष रखते थे। 100 Meter ज़रूर देखता हूँ।

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आग्नेय : मैंने देखा है कि ‘हिन्दवी’ पर कई लेखक और कवि उपेक्षित हैं, जिनमें मैं भी शामिल हूँ। निष्पक्ष लोग ऐसा ही करते हैं।

अविनाश : आप कैसे उपेक्षित हैं। जब वहाँ राजा दुबे उपेक्षित नहीं, तब आप कैसे हो सकते हैं?

आग्नेय : कुछ सच्चे पारखी होते हैं। वे हीरा और कंकड़, सोना और मोती का अंतर परख लेते हैं। और फिर सबका अपना समय-सच होता है, जिसमें वह सोना होता है और वह मिट्टी भी हो जाता है। मैं तुम्हारा Critical admirer हूँ। मैं लेखकों की Biography पसंद नहीं करता और इसलिए उनके Birthday भी appreciate नहीं कर पाता हूँ, अपना भी नहीं! लेखक का परिचय मात्र उसका लेखन होता है और लेखक को invisible ही रहना चाहिए।

अविनाश : आप सही कह रहे हैं, पर प्लेटफ़ॉर्म की ज़रूरत है।

आग्नेय : लेखन के अलावा और कौन-सा प्लेटफ़ॉर्म चाहिए?

अविनाश : जहाँ लेखन नज़र आए…

आग्नेय : उसके लिए मना नहीं कर रहा हूँ। मैं तो उसकी biography के ख़िलाफ़ हूँ।

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2 Comments

  1. निशांत कौशिक अगस्त 29, 2023 at 10:23 पूर्वाह्न

    कहीं कहीं आग्नेय हेमिंग्वे के बूढ़े नायकों की तरह जोशीले हैं, कहीं उनमें काव्यमय उदासी है क्षोभ भी तथा समकालीन संकटों के प्रति उठ उठ गिरती नज़र।
    मृत्यु मृतक के साथ उसके छूट गए संसार से भी कुछ लेकर जाती है। भुवनेश्वर ने बोला था “भेड़िए” में कि “मरे हुए के जूते न पहनना” …
    आग्नेय जी शानदार पत्रिका और आख़िर योगदान छोड़ गए हैं। यह सुंदर विरासत है।

    इस पूरी मुलाक़ात में अविनाश अपने दस्तख़ती अंदाज़ में पसरे हुए हैं। यह सिर्फ़ आग्नेय का इंटरव्यू नहीं है, अविनाश के द्वारा लिया गया आग्नेय का इंटरव्यू है।

    अगर आग्नेय जी जीवित होते तो भी मैं इसको उनका आख़िरी इंटरव्यू मानता। वो जैसे लुई ग्लुक कहती हैं; “एक बार यदि शुरुआत हो जाए तो फिर केवल अंत ही अंत बचते हैं”

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  2. जावेद आलम ख़ान अगस्त 31, 2023 at 6:13 पूर्वाह्न

    समृद्ध करने वाली बातचीत

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