बातें ::
गिरिराज किराडू
से
जे सुशील

गिरिराज किराडू

भारत में बहुभाषिक पत्रिका के तौर पर ‘प्रतिलिपि’ [pratilipi.in] ने अपना एक मुक़ाम बनाया था। गिरिराज किराडू और राहुल सोनी की अगुआई में शुरू हुई इस पत्रिका ने न केवल भारतीय भाषाओं बल्कि कई विदेशी भाषाओं में सामग्री प्रकाशित की, नए लेखकों को मौक़ा दिया और भारतीय परिदृश्य में बहुभाषिकता को बढ़ावा दिया। डिजिटल से शुरू होकर बाद में प्रिंट में आई यह पत्रिका कम समय चली, लेकिन कम समय में ही इसने अपनी पहचान बना ली थी। यहाँ प्रस्तुत है इस पत्रिका के सफ़र पर गिरिराज किराडू से जे सुशील की बातचीत :

‘प्रतिलिपि’ शुरू करने का ख़याल कैसे आया और क्यों आया?

मेरी पहली कविताएँ पहली बार साल 2000 में प्रकाशित हुई थीं और उनमें से पहली पर ही एक पुरस्कार मिल जाने के कारण मुझे ‘एंट्री लेवल’ समस्याएँ नहीं झेलनी पड़ीं। उसके बाद लोग मुझे जानने लग गए थे और अगले तीनेक साल मेरा लिखा हुआ—कविताएँ और कुछ रिव्यूज़—हिंदी की पत्रिकाओं में [ज़ाहिर है, तब केवल प्रिंट पत्रिकाएँ ही थीं] और कुछ देसी-विदेशी अनुवादों में प्रकाशित होता रहा, लेकिन मुझे साहित्य की दुनिया अपने लिए अजीब लग रही थी। इसकी एक बड़ी वजह तो यह थी कि मुझे अपने लेखक होने से, authority के दावे से, और एक हद तक प्रकाशित होने को लेकर उलझन हमेशा से रही है [इसी कारण मेरे अपने लिखे की कोई किताब प्रकाशित करने से मैं आज तक बचता आया हूँ]।

दूसरा कारण यह था कि मैं उन सालों में साहित्य की अपनी पढ़ाई और समझ को एक गाँव के गर्ल्स कॉलेज में एक पीजी प्रोग्राम चलाने में इस्तेमाल कर रहा था और मुझे वह ज़्यादा सार्थक लग रहा था। 2003 से जून 2006 के बीच मैंने कुछ भी प्रकाशित नहीं किया। 2006 में तीन साल ग़ायब रहने के बाद, कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी के कारण फिर से कुछ कविताएँ उनके एक कॉलम में प्रकाशित हुई। उसके कुछ समय पहले मैं जयपुर आ गया था—पढ़ाने के लिए ही। वहाँ मैंने कुछ आयोजन करने शुरू किए। यह सब मुझे बेहतर लगने लगा। उससे पहले जब मैं एम.ए. के दिनों में अपने शहर बीकानेर में था, तब भी कुछ आयोजन किए थे। सिर्फ़ अपने लिखने-छपने की बजाय, यह सब मुझे हमेशा ही ज़्यादा engage करता है—आज भी।

ख़ैर, जयपुर से मैं जोधपुर गया—एक मैनेजमेंट कॉलेज में पढ़ाने के लिए और वहाँ राहुल सोनी से जयपुर में शुरू हुई दोस्ती गहरी हुई। राहुल जोधपुर में रहता था, मेरी तरह उसने भी अँग्रेज़ी में एम.ए. किया था और हम अक्सर मिलने लगे। वह भी अपने लेखन को लेकर बेहद संदेह में था और उसे प्रकाशित नहीं करता था। यह सब पृष्ठभूमि इसलिए ज़रूरी है कि एक पत्रिका जो हम दोनों ने मिलकर 2008 में जोधपुर जैसे शहर में शुरू करने की सोची [जल्द ही साहित्य-कला की दुनिया में मेरे सबसे क़रीबी दोस्त शिव कुमार गांधी (एक और प्रकाशन-संदेही) ने भी को-फाउंडर और आर्ट एडिटर के रूप में जॉइन किया], अगले पाँच-छह साल तक भारत में और उसके बाहर भारतीय साहित्य के बारे में एक go-to प्लेटफ़ॉर्म बन जाएगी, इसका हमें कोई अंदाज़ा नहीं था, हमें नहीं पता था कि इसमें कई भारतीय और विदेशी भाषाओं के सैकड़ों स्थापित और नए लेखक शामिल होंगे, कि उसकी सराहना अमेरिकी विश्वविद्यालय, यूरोपीय साहित्य विभाग, भारत का देसी-विदेशी [मुख्यतः अँग्रेज़ी] मीडिया और सबसे बड़ी बात यह कि बहुत-से लेखक करेंगे, कि उसके कारण हमें कई जगहों पर अपनी बात कहने के लिए बुलाया जाएगा।

बिना किसी भी तरह के सरकारी, ग़ैर-सरकारी, कॉरपोरेट सहयोग या पैसे के, सिर्फ़ तीन लोगों के अपने पैसे और बेशुमार लेखकों-कलाकारों के सहयोग और प्यार से एक नए माध्यम [डिजिटल] में एक जोखिम भरे फ़ॉर्मेट [बहुभाषी] में हम यह कर पाए, लेकिन यह न हमारी महत्त्वाकांक्षा थी, न प्लान। ऐसा लगता है उन पाँच-छह सालों में ‘प्रतिलिपि’ हम तीनों के लिए ख़ुद को sort करने, engage रखने और कुछ सार्थक हो रहा है इससे अपनी sanity बनाए रखने का एक ज़रिया थी। यह अब लगता है, मुझे। यह hindsight में मेरा अनुभव है। ज़ाहिर ही राहुल और शिव का अलग होगा। हाँ, कुछ चीज़ों के बारे में हम शुरू से साफ़ थे।

एक, हम ऐसी कोई पत्रिका नहीं निकालना चाहते थे जिसमें साहित्य की दुनिया की अपनी hierarchies चलती हों। और इसे हमने एक मूल्य की तरह निभाया। सारे लेखकों के नाम वर्णाक्षरी क्रम से छपते थे, हमने मेरिट-पुलिसिंग नहीं की जो कला की दुनिया में एक तरह से नॉर्म है। खुलापन था; लेकिन प्रोग्रेसिव मूल्यों, प्रतिरोध और नई आवाज़ों को लेकर बायस था। हेजेमनी को किसी भी स्तर पर problematise करने वाली कला के पक्ष में बायस था।

दो, हम किसी एक भाषा में पत्रिका नहीं निकालना चाहते थे। हमारी सोच यह थी कि हममें से कोई भी दुनिया को एक भाषा में समझता, सहता नहीं है। बहुभाषिकता आधुनिक मनुष्य के लिए एक दैनिक, आस्तित्विक चीज़ है। कोई कौशल या विशेषज्ञता नहीं, इसलिए एकभाषी पत्रिका का ख़याल हमें अस्वाभाविक लग रहा था।

तीन, हम ब्लॉग फ़ॉर्मेट में काम नहीं करना चाहते थे जिसमें आप कोई ‘अंक’ नहीं प्लान करते; बल्कि एक-एक करके पोस्ट के रूप में सामग्री प्रकाशित करते हैं। हम पूरा अंक साथ पब्लिश करते थे। बाद के दिनों में हमने ‘village’ और ‘terror’ जैसे 500-600 पृष्ठ के विशेषांक पूरे के पूरे एक दिन में पब्लिश किए। हमने अपने ‘about’ पेज में लिखा भी है कि हम दरअसल पारंपरिक प्रिंट पत्रिका निकालना चाहते थे, लेकिन उसके लिए जैसे संसाधन चाहिए वे हमारे पास न थे और न हमें पता था उन्हें हासिल कैसे किया जा सकता है।

चार, एक बार यह तय हो जाने के बाद कि माध्यम डिजिटल होगा, हमने यह तय कर लिया कि हम जब भी संभव होगा बहुलिपि भी होंगे। कई रचनाएँ हमने दो-तीन भाषाओं और लिपियों में प्रकाशित कीं।

तो जोधपुर के हमारे फ़्लैट में हफ़्ते में दो शाम मिलते और किताबों और सिनेमा के बारे में थोड़े उत्साह और काफ़ी निराशा से बात करते-करते हमने 2 अप्रैल 2008 को पहला अंक प्रकाशित कर ही दिया।

जब आपने शुरू किया तो किस तरह की चुनौतियाँ थीं?

हममें से कोई वेब डिज़ाइनर नहीं था, लेकिन मैंने और ज़्यादातर राहुल ने सीख-सीखकर मैनेज किया; बल्कि उस समय के हिसाब से देखें तो काफ़ी advanced architecture था जो हमने WordPress पर एक free, customizable थीम के साथ build और evolve किया।

True type से Unicode फ़ॉण्ट परिवर्तन तब एक काफ़ी इरिटेटिंग तकनीकी चुनौती थी—प्रूफ़ देखते-देखते जान निकल जाती थी। लोगों से सामग्री सॉफ़्ट-कॉपी में मिलने की भी समस्या थी। एक बड़ी समस्या यह थी कि न सिर्फ़ भारतीय भाषाओं के वरिष्ठ लेखकों में इंटरनेट के बारे में कई पूर्वाग्रह थे, बल्कि युवा लेखकों के लिए भी प्रिंट पहली चॉइस था। हमने पुश करना शुरू किया कि हम प्रिंट से पुनर्प्रकाशित नहीं करेंगे और इसमें युवाओं के साथ सफलता मिली, एकदम नए लेखक तो उत्साहित थे ही। कई वरिष्ठ भी साथ आए। उन वरिष्ठों को हमने उनके हाल पर छोड़ दिया जो अपनी राय बदलने को तैयार नहीं थे। उनमें से कई अब सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। उनको बदलाव समझने में समय लगा जो ठीक ही है। लागत मैनेजेबल थी, तो वह चुनौती नहीं थी।

एक कल्चरल चुनौती यह थी कि भारतीय भाषाओं के लेखक संपादकीय सुझावों और फ़ीडबैक को लेकर बहुत ओपन नहीं थे। अँग्रेज़ी के लेखक न सिर्फ़ ओपन थे, बल्कि अपेक्षा करते थे।

Again, hindsight में देखने पर मेरे लिए चुनौतियाँ पर्सनल ज़्यादा थीं। मैं नौ से पाँच एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के बाद शाम छह, सात या आठ बजे से रात के बारह, एक, दो बजे तक यह काम करता था। इस कारण मैं ऐसे कई काम नहीं कर पाया जो करना चाहता था। ओरहान पामुक के उपन्यास ‘My Name is Red’ के अनुवाद के contract को honour नहीं कर पाया। इसके लिए मैं नीता गुप्ता से सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँग चुका हूँ, एक बार फिर sorry नीता। हनीफ़ क़ुरैशी के उपन्यास ‘Intimacy’ के अनुबंध के साथ भी यही हुआ, उसके लिए sorry, मीनाक्षी ठाकुर। गीतांजलि श्री के एक उपन्यास का कॉन्ट्रैक्ट मैंने और राहुल ने मिलकर अनुवाद करने के लिए किया था। लेकिन उसे किया सिर्फ़ राहुल ने। संगम हाउस की एक इंटरनेशनल इंडो-डेनिश रेजीडेंसी मुझे मिली थी, उस दौरान किए काम को पूरा और एडिट नहीं कर पाया। उसके लिए sorry, अर्शिया सत्तार। इस सबके चलते प्रोफ़ेशनल संबंध और दोस्तियाँ ख़राब हुईं। निजी जीवन पर भी असर पड़ा। सुबह नौ बजे से रात बारह बजे तक दो काम करते हुए यह होना ही था। मैं यह चीज़ें बैलेंस नहीं कर पाया कॉन्ट्रैक्ट

अब सालों बाद जब आप इस प्रयोजन को देखते हैं तो क्या चीज़ें याद रहती हैं?

बहुत-से नये पुराने-लेखकों, अनुवादकों का काम पढ़ना, एडिट करना, बहुत-सी जगहों पर जाना, एक बड़ी डायवर्सिटी को जीना।

मुझे इस बात से भी एक तरह की ख़ुशी मिलती है कि मैं अपने लेखन के प्यार में नहीं पड़ा। लेखक होने को लेकर मेरे संदेह, authority से उलझन बनी रही। मेरे जीवन में बहुत सारे दूसरे लेखन थे जिनको लेकर मैं बहुत उत्साहित रहता था, आज भी वैसा ही है बस उतना एक्टिव नहीं है।

‘प्रतिलिपि’ की एक चीज़ यह भी बहुत याद आती है कि हम लेखकों और अनुवादकों/आयोजकों के बीच एक पुल और डाकिया थे। एक बार जर्मनी से विनोद कुमार शुक्ल को ढूँढ़ता हुआ एक ई-मेल आया जिसमें उनकी कविता के अनुवाद के लिए अनुमति लेने की बात थी। मैंने विनोद जी को बताया तो उन्होंने कहा कि आप ही परमिशन दे दीजिए! एक बार तो मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के एक प्रोफ़ेसर को एक स्पैनिश स्कॉलर-लेखक से कनेक्ट किया—ऑस्कर पुयोल, जिनको हमने प्रकाशित किया था। ऑस्कर तब दिल्ली में Instituto de Cervantes में थे, शायद अब फिर वहीं हैं। उनसे इतना परिचय हो गया था कि वह ‘प्रतिलिपि’ के एक आयोजन में जयपुर आए थे। आप कॉपी एडिटिंग और प्रूफ़ देखने के हज़ारों घंटों की डिटेल भूल जाते हैं, लेकिन ऐसी बातें याद रहती हैं।

कोई अफ़सोस?

अफ़सोस कई हैं। सबसे बड़ा यह कि हमने और ख़ासकर मैंने sustainability के लिए कोई स्ट्रक्चर नहीं बनाया। केवल पैशन से, और pathologically काम करने की यह बड़ी सीमा है।

मैं अपनी ज़िम्मेदारी ज़्यादा मानता हूँ, क्योंकि शुरू करने का आइडिया मेरा था। ‘प्रतिलिपि’ से पहले ऐसा कोई बहुभाषी pan-Indian प्लेटफ़ॉर्म नहीं था जिसकी एक्टिव ग्लोबल प्रेजेंस हो, उसके बाद भी नहीं है। ‘प्रतिलिपि’ से पहले साहित्य अकादेमी की पत्रिकाओं के अलावा भारतीय भाषाओं के आपसी संवाद का इतना व्यापक कोई मंच नहीं था, आज भी नहीं है। भारतीय भाषाओं और अँग्रेज़ी के बीच कनेक्शन का इतना व्यापक कोई मंच ‘प्रतिलिपि’ से पहले नहीं था, आज भी नहीं है। ‘प्रतिलिपि’ की तरह पॉलिटिकल— सामाजिक, राजनीतिक, एस्थेटिक तीनों तरह से—कोई डिजिटल लिटरेरी जर्नल तब नहीं था, लेकिन पॉलिटिकल ब्लॉग्स बहुत से थे। इधर वह जगह सिमट गई है।

इन सब वजहों से मुझे लगता है कि सस्टेनेबिलिटी के लिए कुछ नहीं कर पाना हमेशा परेशान करेगा।

बाद के सालों में मैंने दो-तीन bilingual दोस्तों को यह ऑफ़र दिया कि वह अपने हिसाब से इसे revive करें और चलाएँ, लेकिन कोई राज़ी नहीं हुआ। आशुतोष भारद्वाज को तो दो-तीन बार कहा अलग-अलग समय में। एक बार किसी ने मुझे एप्रोच किया, लेकिन उस बार मैं आश्वस्त नहीं हुआ।

‘प्रतिलिपि’ में जो लोग छपे, वे आज स्थापित साहित्यकार हैं। इस पत्रिका ने नए लोगों को भी लिखने का मंच दिया—अपनी भाषा में।

यह तो बेसिक काम ही था, लेकिन यह मैं सिर्फ़ औपचारिक रूप से नहीं कह रहा हूँ कि मंच देने जैसा कोई भाव नहीं था। मुझे नहीं लगता किसी को भी हमने ऐसा लगने दिया होगा फिर भी अगर कोई चूक हुई होगी तो यह एक और अफ़सोस होगा। हम proactively लेखकों कलाकारों को एप्रोच करते थे, क्योंकि हर अंक का बड़ा हिस्सा थीम बेस्ड होने के कारण हमें पता होता था—किनसे लिखवाना है। उसके अलावा एक general call for entries होता था। हमने हर unsolicited मेल का जवाब दिया, शायद ही कोई होगा जिसे जवाब न मिला हो।

दूसरा, हम मेरिट निर्धारण और canonizing नहीं करते थे। जो टेक्स्ट हमें थीम के हिसाब से या अन्यथा कुछ जोड़ने वाला लगता, हम उसे चुन लेते। लेखकों के परिचय काफ़ी फ़ॉर्मल और डिटैच क़िस्म के छापते थे।

अच्छी बात यह है कि हिंदी में उसी दौर में शुरू हुए ‘जानकीपुल’ और ‘समालोचन’ आज भी नए लेखकों के साथ यह काम कर रहे हैं। उसके अलावा ‘रेख़्ता’ की साइट्स हैं, कविता के लिए ‘सदानीरा’ है। ‘हंस’ ऑनलाइन है। अँग्रेज़ी में हमारे बाद शुरू हुई Asymptote तो है ही और उनका काम phenomenal है, अर्जुन राजेंद्रन का काम है। मुझे नॉन-फ़िक्शन पर फ़ोकस्ड 52—https://fiftytwo.in/—बहुत पसंद है।

यह क्यों और कैसे बंद हो गया? क्या बहुभाषा पत्रिकाओं का भविष्य नहीं है या अब है। इस संदर्भ में क्या यह प्रयोग अपने समय से बहुत पहले का था?

जैसा मैंने पहले कहा सस्टेनेबिलिटी को लेकर प्रयास नहीं था। राहुल अपने जीवन में एक नए मोड़ पर था। तब तक उसके पास कोई स्थायी काम नहीं था। उसे एक नई दिशा में जाना ही था। हमारा आपसी तालमेल भी पहले जैसा smooth नहीं रहा—wear and tear जो हमेशा होता ही है। मैं अपने जीवन में एकदम अलग मोड़ पर था। मैंने 2014 में यूनिवर्सिटी की जॉब छोड़ दी, वहाँ पर अब वैसा कुछ सार्थक लग नहीं रहा था। वह समय मेरे लिए कुछ ऐसा था कि मैंने यूनिवर्सिटी का जॉब ही नहीं एकेडेमिक्स को भी छोड़ दिया, ‘प्रतिलिपि’ को डिस्कंटीन्यू कर दिया, हैबिटेट के फ़ेस्टिवल को छोड़ दिया और अब देखने पर लगता है कि साहित्य और कला की दुनिया को भी; क्योंकि अगले लगभग छह साल तक मैंने अपना कुछ भी प्रकाशित नहीं किया।

मुझे लग रहा था मेरा जीवन कुछ ज़्यादा ही दिमाग़ी और किताबी हो गया है। 2014 के बाद अगले दो साल मैंने प्राथमिक शिक्षा में काम किया, लेकिन उसमें मुझे क्लासरूम नहीं जाना था। मैं ‘गांधी फ़ेलोशिप’ में युवाओं के साथ गाँवों के सरकारी स्कूलों में सिस्टमिक बदलाव और learning outcomes के लिए काम कर रहा था।

यानी बंद होने का कारण यही था कि फ़ाउंडर्स अपने-अपने जीवन में नए मोड़ पर थे और न वे इतना सारा—हर रोज़ पाँच-छह घंटे सॉलिड लेने वाला—love’s labour करने के लिए नए लोग ढूँढ़ पाए, न कोई प्रोफ़ेशनल स्ट्रक्चर बना पाए। मेरी ज़िम्मेदारी ज़्यादा है, मेरी ग़लती ज़्यादा है।

भविष्य बहुभाषिक वेंचर्स का हमेशा रहेगा और अभी तो मुझे उसके लिए बहुत माहौल दिखाई देता है—सिनेमा/विज़ुअल में ख़ासकर। लगभग सारे OTT प्लेटफ़ॉर्म्स बहुभाषी हैं और लोग ‘अनुवाद’ [dubbed/sub-titled] में जितना कंटेंट अभी कंज्यूम कर रहे हैं, उतना पहले कभी नहीं हुआ। ‘नेटफ़्लिक्स’ या ‘ज़ी 5’ पर जिसे मूल में देखना है, वह मूल में देख सकता है जिसे अनुवाद में देखना हो अनुवाद में। ‘pratilipi.com’ [जी हाँ वह हमारे बाद आए, लेकिन उन्होंने यही नाम चुना और हमने डोमेन नेम के अलावा ट्रेडमार्क या कंपनी जैसा कुछ तो रजिस्टर नहीं किया था] एक बहुभाषी कंपनी है। एक तरह से साहित्य का यूज़र जेनरेटेड OTT. ‘स्टोरी मिरर’ है, और भी हैं।

यहाँ कहने का अर्थ है कि करने वाले चाहिए, ऐसी बेसिक चीज़ का भविष्य हमेशा रहेगा।

अपने लेखन को लेकर मुझमें एक realistic क़िस्म की निराशा है, मुझे लगता है कि मेरे जैसा लेखन किसी के काम का नहीं है, शायद ख़ुद मेरे भी नहीं। मुझे उसके किसी भी तरह के असर को लेकर कोई भरोसा नहीं है। मैं शायद एक्जिस्टेंशियली लेखक नहीं हूँ, क्योंकि मैं वह काम बहुत समय तक नहीं कर पाता जो अकेले किए जाते हैं। लेकिन कुछ सामूहिक करने के प्लान बनाता रहता हूँ। और अगर मैं कुछ कर पाया तो तय जानिए वह एक-भाषी नहीं होगा। 2016-2022 छह साल तक मैं ‘स्टोरीटेल’ के लिए हिंदी, अँग्रेज़ी, तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ में ऑडियो पब्लिशिंग कर रहा था और मराठी, बांग्ला, गुजराती, असमिया प्रोडक्शंस के बारे में आदतन ख़बर रखता था। पिछले चौदह महीनों से ‘योर स्टोरी’ में भारतीय भाषाओं को हेड कर रहा हूँ। एक तरह से अब मेरी कोई ‘अपनी’ ‘मूल’ भाषा नहीं और इसका मुझे कोई दर्द नहीं, बल्कि यह rootlessness मुझे सही लगती है, क्योंकि origins के बारे में ज़्यादातर विचार मुझे बहुत ऑप्रेसिव लगते हैं।

क्या ‘प्रतिलिपि’ समय से आगे/पहले का प्रयोग था?—मेरा हमेशा से मानना रहा है कि बहुत कम ही ऐसा कुछ होता है तो समय से आगे हो… Rarest of Rare. शायद काफ़्का, शायद कबीर और अंबेडकर निश्चय ही।

इंटरनेट था, wordpress जैसे फ़्री प्लेटफ़ॉर्म थे, यूनिकोड था, ईमेल और मोबाइल फ़ोन थे और वह इंटरनेट का readership era था, Age of Blogging. आज blogs कहाँ हैं? अब तो सब वीडियो, ऑडियो पर शिफ़्ट हो रहा/गया है। सोशल मीडिया इतना बड़ा नहीं था—ख़ासकर एक self-publishing प्लेटफ़ार्म के रूप में, लेकिन प्रचार के लिए पर्याप्त बड़ा था, ई-कॉमर्स भी था जिसे हमने प्रिंट में जाने पर इस्तेमाल भी किया। 2008 में ही मैं और भी छोटी एक जगह—लक्ष्मणगढ़—एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए चला गया था तो ‘प्रतिलिपि’ अपने पूरे समय राजस्थान के तीन अलग-अलग शहरों/क़स्बों में रह रहे तीन लोगों ने virtually, remote working करते हुए निकाली और पहला अंक आने के बाद हमारा पहला इंटरव्यू एक अमेरिकी ऑनलाइन जर्नल Calque ने किया जिसके बाद University of Rochester का ध्यान हमारी तरफ़ गया। यह कह सकते हैं कि Brexit और ट्रम्प-पूर्व, चीन-पूर्व की ग्लोब्लाइज़ हो रही-सी दुनिया थी। भारत में राष्ट्रवाद के निर्णायक रूप से सत्तासीन होने से पहले का अपेक्षाकृत खुला, अपने सही अर्थ में न सही पर ‘लिबरल’ माहौल था।

तो यह सब था, यही समय था और इसलिए ‘प्रतिलिपि’ भी हुई। अगर हम सस्टेन कर पाते तो आप कहते ‘आपने एकदम सही समय पर शुरू किया’! मैं ‘जानकीपुल’ और ‘समालोचन’ के बारे में यही सोचता हूँ कि उन्होंने एकदम सही समय पर शुरू किया और सस्टेन भी किया।

‘प्रतिलिपि’ के अलावा आप ‘समन्वय’ फ़ेस्टिवल के संयोजक भी रहे जो बहुभाषा को लेकर शुरू किया गया एक महत्त्वपूर्ण आयोजन था। वह आगे क्यों नहीं चला या क्या वह बड़े फ़ेस्टिवलों की भेंट चढ़ गया। क्या इसमें अलग-अलग भाषाएँ बाधा बनती हैं?

यह सही है कि साहित्य अकादेमी के आयोजनों के अलावा भारतीय भाषाओं पर एकाग्र कोई और बहुभाषी आयोजन नहीं है। ‘साहित्य आज तक’ या ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ जैसे आयोजनों में हिंदी या उर्दू केंद्रीय हैं तो जेएलएफ़ और अँग्रेज़ी मीडिया के फ़ेस्टिवल्स में अँग्रेज़ी केंद्रीय है जिनमें भारतीय भाषाओं के लेखक शिरकत करते हैं, लेकिन फ़ोकस उनकी भाषाओं पर नहीं होता। ‘समन्वय’ ऐसा आयोजन था और एक बड़े गैप को भरने की कोशिश कर रहा था। हैबिटेट का आयोजन था, उनके पास एक बेसिक विजन था और संसाधन थे। सत्यानंद निरुपम उनकी प्रोग्राम कमेटी में थे। यह 2011 की बात है। ‘प्रतिलिपि’ के काम के कारण ही नमिता गोखले या निरुपम ने या शायद दोनों ने ही मेरा नाम प्रस्तावित किया। बतौर क्रिएटिव डायरेक्टर्स, इसका पूरा डिज़ाइन और एग्जीक्यूशन हम दोनों, निरुपम और मैंने किया जिसमें इसके लिए एक बहुभाषी सलाहकार समिति को चुनना भी शामिल था।

मुझे जहाँ तक याद है उदय नारायण सिंह, के. सच्चिदानंदन, आलोक राय, दामोदर माउजो, रवि सिंह, सलमा, मेरी थरीज़ करखलांग, राधावल्लभ त्रिपाठी, अर्जुन देव चारण, रिजियो योहानन एडवाइज़र रहे थे। तीन दिन के आयोजन के लिए हम हिंदी और अँग्रेज़ी के अलावा हर साल आठ भाषाएँ चुनते थे और उनके अतिरिक्त कुछ ‘बोलियाँ’ भी और सभी भाषाओं का कम से कम एक सत्र होता, हिंदी के दो-तीन होते थे, अँग्रेज़ी का एक या दो, और बाक़ी सत्र ख़ुद बहुभाषी होते थे। इसकी ओपनिंग करने के लिए भी कोशिश करते थे कि एक से ज़्यादा लोग हों। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी, विनोद कुमार शुक्ल, सीताकांत महापात्र, कुँवर नारायण, रतन थियम ओपनिंग करने वालों में मुझे याद हैं। अपर्णा सेन और अनंतमूर्ति का इसके लिए न आ पाना भी याद है। 2014, जो फ़ेस्टिवल का चौथा और मेरा आख़िरी साल था, तक आते-आते यह काफ़ी बड़ा हो गया था। 90 से ज़्यादा लेखक, कलाकार, अभिनेता आदि उस साल आए थे।

बहुत सारी भाषाएँ होना ‘प्रतिलिपि’ की तरह शुरू में ‘समन्वय’ की भी ताक़त थी। बहुत सारे लेखक जो उसमें आए, उन्हें ऐसे किसी आयोजन में उससे पहले आमंत्रित नहीं किया गया था… और लोग बहुत उत्सुकता और उत्साह से एक दूसरे से मिलते थे, ख़ासकर युवा लेखक। उनमें से कइयों से कभी-कभार बात होती है और वे सब चाहते हैं कि यह फिर से शुरू हो…

ऐसे आयोजन का सस्टेन न कर पाना दुखद है, लेकिन इसके लिए मैं अपने को सिर्फ़ आंशिक रूप से ज़िम्मेवार मानता हूँ—मैंने 2014 के आयोजन से पहले ही कहना शुरू कर दिया था कि मैं छोड़ूँगा और अंततः छोड़ ही दिया—2015 के एडिशन की तैयारी शुरू होते ही। मैं तब गाँव-गाँव घूम रहा था। संयोग से निरुपम ने भी उसी साल छोड़ दिया। रिजियो के साथ दो-तीन एडिशन और हुए, थोड़े बदले हुए रूप में; लेकिन अंततः बंद हो गया।

अगस्त 2019 में उन्होंने हम दोनों को, एक साथ एक मीटिंग में, कहा फिर से शुरू करने के लिए। हम दोनों ने डिस्कस किया और पाया कि हम दोनों उस समय कर पाने की स्थिति में नहीं थे। निरुपम ने कहा, ‘‘हम दोनों की तरफ़ से मेल आप लिखेंगे।’’ वह मेल मैंने ही लिखा फिर।

बड़े फ़ेस्टिवल्स का इससे कोई लेना-देना नहीं था, क्योंकि हम एकदम अलग कैटेगरी में थे और हमारा किसी से क्लैश, क्लेश या कंपीटीशन नहीं था। हो सकता है कि किसी दिन फिर शुरू हो ही जाए!

पुनश्च :

एक बिन पूछे सवाल का उत्तर—

ऊपर दिए सारे सवालों के उत्तर लिख लेने के बाद जब मैंने आपसे पूछा, तो आपने कहा कि इस अंक का उद्देश्य—

“भारत की बहुभाषिक परंपरा को चिह्नित करना है। वैश्विक स्तर पर अँग्रेज़ी और भारत में हिंदी को लेकर एक तरह के वैचारिक दबाव के बीच यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि भारत जैसा देश कई भाषाओं से बना है, जहाँ रहने वाला हर आदमी कमोबेश एक से अधिक भाषा जानता था और जानता है। भले ही उन भाषाओं को कई बार बोलियों का नाम दे दिया जाए। इस अंक के लिए अमूमन उन लोगों से लिखने का आग्रह किया गया जो एक से अधिक भाषाओं में लिख-पढ़ और सोच रहे हैं, ताकि हम उस दुनिया से परिचित हो सकें जहाँ हम असल में कई भाषाओं में रहते हैं। मातृभाषा और राष्ट्रभाषा से परे बहुभाषा में भारत को खोजने का यह प्रयास है।”

जैसा मेरे ऊपर दिए एक उत्तर से स्पष्ट है अगर भारतीय विशेषण के बिना बात की जाए तो मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि बहुभाषिकता एक बेसिक वास्तविकता है—ख़ासकर एक आधुनिक मनुष्य के लिए, और ख़ासकर एक पोस्ट-कॉलोनियल मनुष्य के लिए। लेकिन जिस वजह से यह बिन पूछा उत्तर, यह वक्तव्य मैं लिख रहा हूँ वह यह है कि बहुभाषिकता के बारे में बात करते हुए ‘राष्ट्रभाषा’ के परे जाकर बात करने के प्रस्ताव को थोड़ा प्रॉब्लेमटाइज़ करना चाहता हूँ।

पहली बात तो यह है कि ऐसा करने की ज़रूरत क्या है? क्या यह (बहु)भाषा के प्रश्न को depoliticize करके देखना है और इसलिए ऐसे देखना ज़रूरी है कि कोई ऐसा ‘यथार्थ’/ ‘सच’ है जो ऐसे देखे बिना पाया नहीं जा सकता? वह कौन-सा यथार्थ/सच है?

अगर भारतीय विशेषण के साथ बाद करें तो हम उस राजनीति से परिचित है जो भारत को एक एथनिक, सांस्कृतिक पहचान से परिभाषित करती है और उस परिभाषा में ‘राष्ट्रभाषा’ या डोमिनेंट भाषा एक अनिवार्य हिस्सा है। इस संदर्भ में हम खड़ी बोली हिंदी के उद्भव और विकास से भी परिचित हैं कि कैसे वह राष्ट्र-निर्माण-प्रक्रिया का एक ज़रूरी हिस्सा रही है और कैसे उसका एक मानकीकृत स्वरूप विकसित किया गया है। हम भारत में संस्कृत, पाली, पर्शियन, उर्दू, अँग्रेज़ी के इतिहास और वर्तमान से भी परिचित हैं और हम हिंदी साहित्य के आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल के लिंग्विस्टिक मैप और संविधान के आठवें अनुच्छेद और साहित्य अकादेमी द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची से भी परिचित हैं।

इसी तरह ‘मातृभाषा’ और उससे परे जाने को लेकर कई सवाल हैं जो जेंडर से लेकर NEP (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) तक फैले हुए हैं। इस संदर्भ में हम हिंदी और मातृभाषाओं के संबंध को लेकर हुए विमर्श से परिचित हैं और मातृभाषा की अवधारणा में शामिल जेंडर एंगल से भी और NEP से संबंधित चर्चाओं से भी।


गिरिराज किराडू से परिचय के लिए यहाँ देखिए : बर्बादी इतनी है कि कोई रहस्य नहीं है

जे सुशील से परिचय के लिए यहाँ देखिए : हाँ से कहीं अधिक ताक़तवर है न कहना

यह बातचीत ‘सदानीरा’ के बहुभाषिकता अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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