बातें ::
विष्णु नागर
से
अविनाश मिश्र
वे सवाल भी मुझसे पूछे जाते हैं
जिनका कोई जवाब मेरे पास नहीं है
लेकिन उनका इतना तगड़ा जवाब देता हूँ
कि सामनेवाला अपना सवाल भूल जाता है
आपने कई साक्षात्कार दिए हैं। आपके साक्षात्कारों की एक पुस्तक भी अब प्रकाशित है, लेकिन यह साक्षात्कार कुछ अलहदा है, आप इसके लिए तैयार हैं?
जी हाँ, जवाब नहीं होगा तो भी दूँगा क्योंकि इसका कमिटमेंट अपनी इस कविता में कर चुका हूँ, हालाँकि वह मैं, मैं ख़ुद ही पूरा का पूरा हूँ, यह भी नहीं कह सकता।
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जीवन भी कविता बन सकता है
बस उसे लिखना आना चाहिए
जीवन को कविता जैसा बनाना ज़रूरी लगता है आपको या कविता को जीवन जैसा?
कविता तो इस दौर की जीवन से जुड़ी ही हुई है, सब कवि इसका यत्न अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं और सच यह भी है कि जीवन से जुड़ने का न कोई एक ढंग हो सकता है, न कोई एक फ़ार्मूला और न होना चाहिए। जहाँ तक जीवन को कविता बनाने की बात है तो जैसा कि मेरी ये पंक्तियाँ ध्वनित करती हैं, हम जीवन को भी कविता बना सकते हैं बशर्ते कि उसे लिखना हमें आता हो, जो कि कविता लिखने से कहीं ज़्यादा, बहुत ज़्यादा कठिन काम है, आज तो लगभग असंभव-सा लगता है। मगर हम कवियों का काम असंभव संभावनाओं की ओर भी इशारा करना भी होता है। हम जीवन जैसा है, जैसा बना दिया गया है उसकी ताईद तो क़तई नहीं करते रह सकते। उसके बाहर, उसके परे भी जीवन है, जीवन हो सकता है, होना ही चाहिए, उसकी बात शायद यह कविता करती है। वैसे हर कविता के पाठ अलग-अलग हो सकते हैं और ज़रूरी नहीं कि कवि का पाठ ही अंतिम माना जाए।
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किसी दिन उनकी स्त्री बनकर रहना
हिंदी में स्त्री-केंद्रित कविता लिखना अब बहुत हद तक एक फ़ार्मूलाग्रस्त काव्य-दृष्टि का परिचायक लगने लगा है। आपके नवीनतम कविता-संग्रह की पहली कविता ही स्त्री-केंद्रित है, ऐसा करना किन अर्थों में आपको ज़रूरी लगता है?
मैं जैसा भी अच्छा-बुरा कवि हूँ, मगर फ़ार्मूलाग्रस्तता का शिकार तो शायद नहीं रहा हूँ, न कभी होना चाहा है और अगर ऐसी ग़लती मुझसे अब हो रही हो तो मित्रों-आलोचकों का काम है कि वे मुझे इस बारे में सावधान करें। मेरे यहाँ माँ-पत्नी-प्रेमिका-बेटी आदि अनेक रूपों में पुराने संग्रहों में भी स्त्रियाँ आई हैं। यह कविता स्त्रियों की तरह ही नहीं बल्कि ख़ुद स्त्री बनकर स्वयं को देखने की आकांक्षा की कविता है। पुरुष को स्त्री के संदर्भ में सोचते हुए आत्म-समीक्षा की ज़रूरत है, बल्कि अपने आपको स्त्री की तरह, उसकी जगह से देखने की ज़रूरत है शायद यह कविता इस बात को रेखांकित करती है। दरअसल, मुझे अपने लेखन के बारे में भी अक्सर लगता रहा है कि वह पर्याप्त रूप से पुरुष-केंद्रित है, बुनियादी रूप से उसे संबोधित है। यह मेरी कमी है, कमज़ोरी है। मेरी कविता स्त्री के बारे में बात तो करती है, मगर स्त्री की तरह देखने की संवेदनशीलता से वंचित है। यह एक तरह से यह आत्म-समीक्षा है, बुनियादी रूप से अपने आपको जगाने की कविता है। कविता सिर्फ़ पाठकों को ही संबोधित नहीं होती, स्वयं को भी संबोधित होती है, वह आत्म-संबोधन भी होती है। वैसी ही शायद यह कविता है। वैसे भी हमारे समाज में पुरुष ख़ुद को स्त्री बनकर देखना कहाँ चाहता है?
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उसने जब किया होगा, तब किया होगा प्रेम
हम कहाँ कहते हैं कि नहीं किया होगा
ख़ूब किया होगा
सब कुछ भूल-भुलाकर किया होगा
आपकी कविताओं में प्रेम बहुत देर से आ रहा है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि जैसे जीवन में पहले आ गया होगा, लेकिन कविताओं में देर से अब आ रहा है। इसकी क्या वजह है?
जीवन का कौन-सा कब का अनुभव कब जाकर कविता में आता है, वह तत्काल आता है या काफ़ी बाद में आता है या नहीं ही आता, इसका निर्णय ख़ुद कवि नहीं कर सकता और मैं ज़बरदस्ती किसी अनुभव को उसमें ठूँसकर यह दिखाना भी नहीं चाहता कि देखो मैं भी इस मामले में पीछे नहीं हूँ। अनुभव हासिल करना और उसका कविता में आना कवि की अपनी क्षमता से भी संबंध रखता है। अनुभव करने से तो कई बार आप चाहकर भी खुद को रोक नहीं सकते, मगर उन अनुभवों का कविता में रूपांतरण होना अलग बात है। हो सकता है कि कवि के रूप में आपने अपनी कविता का जो फ़्रेम तैयार किया हो, उसमें उस अनुभव को स्थान देना आपके लिए संभव न हो पाए, उसमें वह लचीलापन ही न हो, जो हर तरह के अनुभवों को कविता में समेटने की क्षमता रखता हो। कुछ अनुभव कविता मे आकार लेने के लिए अपना समय माँगते हैं। वैसे जहाँ तक मेरी अपनी कविताओं का सवाल है, यह पूरी तरह सच भी नहीं है कि प्रेम का अनुभव मेरी कविता में देर से आया है। 1985 में मेरा दूसरा संग्रह ‘संसार बदल जाएगा’ आया था, उसमें एक कविता थी ‘जीवन में जीवन के पार’… इसमें पत्नी से बाज़ार चलने का आग्रह-सा कुछ है कि चलो हम बाज़ार चलते हैं और कुर्सी ले आते हैं ताकि कोई आया तो उसे बैठाएँगे उस पर, उसे चाय पिलाएँगे वग़ैरह। इसे पता नहीं प्यार की कविता आप मानें या नहीं। 2001 मे प्रकाशित ‘कुछ चीज़ें कभी खोई नहीं‘ और फिर 2006 मे प्रकाशित ‘हँसने की तरह रोना‘ में भी ऐसी कई कविताएँ हैं। पिछले संग्रह ‘घर के बाहर घर में‘ भी एकाधिक कविताएँ प्रेम को लेकर हैं और इस संग्रह में हैं, यह तो आप स्वयं ही स्वीकार कर रहे हैं।
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पत्नी से बड़ा कोई आलोचक नहीं होता
उसके आगे नामवर सिंह तो क्या
रामचंद्र शुक्ल भी पानी भरते हैं
अब ये इनका सौभाग्य है
कि पत्नियों के ग्रंथ मौखिक होते हैं, कहीं छपते नहीं
इन पंक्तियों में हिंदी-आलोचना-व्यवहार के प्रति आपका क्रोध तो नहीं बोल रहा?
नहीं-नहीं, ऐसा होता तो मुझे कहने में संकोच नहीं होता। वास्तव में यह मज़े-मज़े की प्रेम-कविता-सी है—पति-पत्नी के दिलचस्प रिश्तों को लेकर। दऱअसल, पत्नी से ज़्यादा पति को कौन जानता है और पति से ज़्यादा पत्नी को। दोनों एक-दूसरे के हर रूप को हर स्थिति में जानते हैं, शरीर से लेकर मन तक। कुछ मायनों में अपने बच्चे को माँ भी उतना नहीं जानती, जितना कि पति-पत्नी एक दूसरे को जानते हैं या कहूँ कि जान सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि पति या पत्नी क्रोध में आकर या अन्यथा दूसरे को अच्छी तरह जानने के अतिआत्मविश्वास में आकर कुछ ऐसा भी कह जाते हैं जो सच नहीं होता, सच के क़रीब भी नहीं होता, वह एक धारणा मात्र होती है, जो शायद किसी पुराने अनुभव या धारणा के कारण बनी होती है। फिर भी उन्हें यह भ्रम होता है कि वे जो दूसरे के बारे में कह रहे है, जिस तरह उसे जान रहे है, वही सच है। वैसे भी जब पत्नी, पति की बखिया उधेड़ती है तो फिर उसके लिए छुपने की कोई जगह नहीं रहती। इसलिए यह कुछ दिलचस्प ढंग से यह प्रेमानुभव की कविता है।
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औरतो, तुम रोया नहीं करो
तुम इतना गाया करो
कि रोना आए ही नहीं कभी
एक स्त्री को किस रूप में चाहते हैं आप?
बराबरी के मनुष्य के रूप में, जिसके अधिकार और जिसकी स्वतंत्रताएँ पुरुष के बराबर हों, जहाँ दोनों परस्पर मित्र हों, प्रतिद्वंद्वी नहीं।
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मेरा नाम प्रधानमंत्री नहीं जानते
लेकिन मैं प्रधानमंत्री का नाम जानने के लिए ख़ुद को मजबूर पाता हूँ
हिंदी में प्रधानमंत्री पर कविता लिखना इधर एक प्रचलन-सा हो गया है। लग रहा है कि ‘तानाशाह’ के बाद अब हिंदी कवि ‘प्रधानमंत्री’ (शब्द) के पीछे पड़ गए हैं। आप ही के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि शायद एक दिन प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले नीचे आकर वे मर जाएँगे?
इधर ज़रूर प्रचलन हो गया होगा, मगर 1980 मे प्रकाशित मेरे संग्रह ‘तालाब में डूबी छह लड़कियाँ‘ में भी एक कविता है ‘दयाराम बा’ जो कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर उनका नाम लेकर कटाक्ष करती है कि उन्होंने दयाराम बा जैसे ग़रीब के जूते चुराने जैसा काम तो क्या ही किया होगा, चुराया होगा तो कुछ बड़ा ही चुराया होगा। चूँकि मैं पत्रकार भी हूँ (और क्या पता सिर्फ़ पत्रकार ही हूँ) तो मैंने तमाम प्रधानमंत्रियों पर कविताओं में और कविता के बाहर भी ख़ूब व्यंग्य किए हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री के प्रधानमंत्री बनने से पहले मैं उन पर कटाक्ष करता रहा हूँ। इस संग्रह में नरेंद्र मोदी पर एक कविता है जो इसका उदाहरण है। बाद में भी काफ़ी कुछ लिखा है मैंने—ज़्यादातर नाम लेकर, हालाँकि लोग कहते हैं कि ऐसी सामयिक कविताएँ समय के साथ पुरानी पड़ जाती हैं, पड़ जाएँ, लिखूँगा तो वही जो इस समय अभी लिखना चाहता हूँ। वैसे भी अपनी कविताओं के पुराने पड़ जाने की चिंता करने से होगा भी क्या? जो पुराना होना है, वह होगा ही, उसका विषय कुछ भी हो। वैसे भी हम कौन-से ग़ालिब या मीर हैं, जो हमेशा नए बने रहेंगे।
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मैं-मैं-मैं-मैं करता हूँ मैं
मैं-मैं-मैं-मैं करता हूँ
करते-करते मैं-मैं-मैं-मैं
बकरी बनकर रहता हूँ
आप इन दिनों फ़ेसबुक पर सक्रिय हुए हैं? क्यों?
ज़्यादा सक्रिय तो नहीं हूँ, बस संयोग से खाता खुल गया है तो अपनी कुछ छपी हुई सामग्री लगा देता हूँ कभी-कभी, अभी अपनी कुछ किताबों के प्रकाशन के बारे में बताया है ताकि मित्रों को जानकारी हो। अपनी किताब के प्रचार के और साधन तो लगभग हैं नहीं, जितना इसके ज़रिए हो सकता है, कर लेते हैं। थोड़ा-सा मैं-मैं मैंने ज़रूर किया है, जो बड़े-बड़े मैं-मैंवादियों के मुक़ाबले कुछ भी नहीं है, इतना मानेंगे क्या आप? हिंदी में जिन्हें जितना ज़्यादा नाम मिला है, वे उतने ही ज्यादा मैं-मैंवादी हैं।
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जो उड़ते हैं
ज़रूरी नहीं पक्षी हों
जो दो पाँवों पर चलते हों
ज़रूरी नहीं आदमी हों
शब्द-संख्या के लिहाज़ से छोटी कविताएँ आपने बहुत लिखी हैं, इस तरह की कविताओं की पूर्णता आप कैसे तय करते हैं?
जैसे उन कविताओं की करता हूँ जो इतनी छोटी नहीं हैं। बहुत कहने के लिए बहुत शब्दों का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं। इसके अलावा मैं अपनी कविताओं पर यथासंभव काम अधिक करता हूँ ताकि बात को कम शब्दों में उस ढंग से कह सकूँ, जिस तरह कहना चाहता हूँ। कभी कामयाब भी हो जाता हूँ, ज़्यादातर नाकामयाब होता हूँ।
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दो मिनट का मौन तक हम बेच देंगे
इतना कमीना भी हमें मत समझो
हिंदी की समकालीन कविता में बग़ैर बाज़ार-विरोधी कविता के किसी कविता-संग्रह की ‘पैकेजिंग’ संभव क्यों नहीं है?
इतना ही कहूँगा कि मैं पैकेजिंग नहीं करता।
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मैंने कितनों की आवाज़ को
अपनी आवाज़ बनाया
फिर मैं इस पर इतराया
कि ये मेरी अपनी आवाज़ है!
आपके कवि की लड़ाई किससे है?
इस समाज से, इस व्यवस्था से और अपने आप की जड़ता से भी, मूर्खता से भी। उस अपने आप से लड़ाई है जो करोड़ों की आवाज़ को अपनी आवाज़ बताता है और फिर उस पर इतराता भी है, यह कहते हुए कि यह मेरी आवाज़ है।
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विष्णु नागर (जन्म : 14 जून 1950) हिंदी के समादृत कवि-लेखक हैं। यहाँ प्रस्तुत साक्षात्कार उनके कविता-संग्रह ‘जीवन भी कविता हो सकता है’ (अंतिका प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2014) के पाठ के आलोक में संभव हुआ है और ‘सदानीरा’ के 9वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है।