पत्र ::
केदारनाथ अग्रवाल
प्रिय (रामविलास) शर्मा,
तुम्हारा पोस्टकार्ड अभी-अभी छह बजे शाम को जब मैं कचहरी से आया मिला। तुम नहीं सोच सकते कि मुझे कितनी अपार ख़ुशी हुई यह पढ़कर कि निराला जी तुम्हारे पास पहुँच गए। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है जैसे तुमने एक बड़ा समर जीत लिया है। कृपया उन्हें वहाँ से जाने न देना। उनकी ज़िंदगी regulate करवाओ और लिखने को कहो। उन्हें किसी वस्तु का अभाव नहीं हो सकता। वह हृदय सम्राट हैं करोड़ों के।
मैं इस शनीचर को तब ही पहुँच सकता हूँ, जब कल रात को चल दूँ। कल चलना यों असंभव है कि जो सेशन मुझे आज करना था, वह आज नहीं शुरू हुआ; कल से शुरू होगा, वह भी दूसरे पहर से और परसों तक ज़रूर चलना है। मैं इसे छोड़कर नहीं आ सकता, पर मेरा वही हाल हो रहा है जो बिंधे पक्षी का। भागकर पहुँचना चाहता हूँ, पर पक्षाघात जो एक तरह का हो गया है। साली वकालत भी बेड़ियों की तरह पैर में पड़ी है। रोटियाँ क्या देती है, मुझे ख़रीद लिया है। मुझे अपनी ग़ुलामी पर खीझ होती है। ऐसा लगता है जैसे अपने ही जूते अपने सिर पर मारकर ख़ून निकाल लूँ। छोड़कर जाता हूँ तो मुअक्किल मरता है। नहीं मालूम क्या-क्या मेरे मन में इस समय गुज़र रहा है। मैं हूँ तो यहाँ पर तुम्हारे कमरे में मच्छर की तरह भनभना रहा हूँ, जब तक दो-तीन दिन न बीत जाएँगे। सुमन से भी मुलाक़ात हो जाती, पर वाह रे अभाग्य!
देखो भाई 30, 31 मार्च, 1 और 2 अप्रैल को ईस्टर की छुट्टियाँ हैं। कृपया या तो यह लिखो कि तुम यहाँ आ रहे हो चित्रकूट चलने को या मैं ही वहाँ आऊँ। निराला जी भी रहेंगे। कह देना। सुमन को भी लाना है। ख़ूब मिलने का अवसर है। पहले ही से तय करके लिखो ताकि चित्रकूट में ख़ूब बढ़िया इंतज़ाम कराऊँ। धर्मशाला (ऊपरी भाग) ठीक करा लूँ। महंतों से सामान वग़ैरह का प्रबंध करा लूँ। भूलना नहीं, इसका तय करके जवाब देने में।
तुम्हारे पत्र की दो लाइनें समझ ही में नहीं आतीं। क्या लिखा है, कहाँ जाओगे? न जाने क्या लिख मारा है। बीच में लिखा है Come if possible बाद में और अंत में लिखा है Do come. दोनों एक दूसरे का गला घोंट रहे हैं। मेरा बंधन बुरा है। वरना उछलकर ट्रेन में बैठकर आगरे पहुँच जाता और तुम्हारा गला घोंटता।
मैं इस समय इतना प्रसन्न हूँ, जैसे नई ज़िंदगी पाई है। वह भी तुम्हारे कारन। पत्र क्या है, जान है। निराला जी से मेरा भी कहना वही…।
इधर वीरेश्वर ने दो कविताएँ लिखी हैं। ख़ूब हैं। एक होली पर, दूसरी हिंदी-उर्दू पर। दूसरी प्रारंभ होती है—
कोयल ने किया कू
कबूतर ने गुटर गूँ
अब तुम ही बताओ कि
यह हिंदी है या उर्दू
कुछ ऐसी ही है।
मैंने भी कुछ क़लम चलाई है। भेजूँगा। दूसरा पत्र पाओगे तब पढ़ना। उपन्यास भी वकालत ने रोक रखा है। कुछ कम लिखने का कारण श्रीमती जी भी हैं। वह ज़बर नहीं करतीं, सिर्फ़ पलंग पर आ विराजती हैं। क़लम भवानी रुक जाती हैं। मेरी तो अजीब छीछालेदर है। तुम ही अच्छे हो। अच्छा होता यदि बेब्याहा होता और फटेहाल होता। इस ग़रीबी अमीरी के खच्चड़पने ने मुझे खच्चर बना रखा है। न हिंदू हूँ, न मुसलमान। राम राखै मोरी लाज।
तुम्हारा केदार
8 मार्च 1945, बाँदा
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केदारनाथ अग्रवाल (1 अप्रैल 1911–22 जून 2001) हिंदी के सुपरिचित कवि हैं। रामविलास शर्मा (10 अक्टूबर 1912–30 मई 2000) हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक हैं। यह पत्र-अंश साहित्य भंडार, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित ‘मित्र संवाद’ (केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के पत्रों का संकलन, भाग-1, संपादक : रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी; प्रथम संस्करण : 2010) शीर्षक पुस्तक से साभार है।