कविता ::
अंचित

hindi poet anchit 1582019
अंचित


आदित्य शुक्ल के लिए

America, I have given you all
and now I have nothing.

— Allen Ginsberg

भारत

मेरे पास जो कुछ था तुम ले चुके और
अब मेरे पास देने के लिए
कुछ भी नहीं है।

हम कितनी दूर चले आए, मेरी जान, कैसे लौटेंगे यहाँ से वापस!

तुमको तारीख़ों से याद रखता था और अब मेरे प्यारे देश, इन सत्तर सालों के बाद,
सिर्फ़ एक तारीख़ रह गई है—
16 मई 2014 से क्या ख़ून का बहाव दूसरी दिशा में होने लगा?

भारत हमने एक साथ इतने घंटे, इतने मिनट, इतने दिन इतनी रातें बिता दीं—आपातकाल से बाबरी, बाबरी से गोधरा और कोई ग़ुबार उठा जैसे इन जगहों से, कोई नशे की पोटली से निकला हुआ पाउडर, वह मिल गया हवा में और पूरा देश एक प्रदूषित कोहरे से ढँक गया?

भारत, मैं नेताओं को गंदी गालियाँ देना चाहता हूँ
भारत, मुझे संभोग करते हुए ग्लानि होती है
भारत, एक बुलेट ट्रेन में बैठकर हम नर्क की ओर तो नहीं जा रहे?

भारत, हम साथ कब रहेंगे? अब यह सवाल
पूछने में डर लगने लगा है—मुझे लगने लगा है
तुम ज़बरदस्ती मेरे साथ सोना चाहते हो, मुझे लगने लगा है
कि मेरी संवेदना ख़त्म हो गई है।

भारत, एक नियम की तहत उठता हूँ रोज़ सुबह
और सीलमपुर से मेट्रो लेकर चला जाता हूँ नोएडा
क्या वहाँ काम करने वाले आदमी तुम नहीं हो?

विचारधाराएँ अब मुझे खोखले चिह्नों की तरह याद हैं,
वे हाई पिच पर हो रहे सफ़ेद शोर की तरह सुनाई देती हैं,
मैं नीले न्यूज़फ़ीड से थक गया हूँ, मैं लाल नोटिफ़िकेशनों से
उकताने लगा हूँ—इतना बोलने लगा है हर आदमी, हर आदमी
खो गया है इस शोर के पीछे—भारत तुम दिखावे से इतना प्यार करते हो?

भारत मैं गीत गाना चाहता हूँ :

भारत हमको जान से प्यारा है,
सबसे प्यारा गुलिस्ताँ हमारा है…

मैं पागल हो गया हूँ, मेरी जान—मैं गूँगा हो गया हूँ।
मैं अंधा होना चाहता हूँ।
मैं बहरा होना चाहता हूँ।

भारत मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ कई-कई बार,
तुम कब छुओगे मेरे सूखे होंठ? तुम कब ले जाओगे
मुझे क़ब्रिस्तानों से दूर, हम कब एक दूसरे की आँखों
में विश्वास से झाँकेंगे।

यह भीड़ कहाँ से पैदा हो गई? मैं भी नारे लगाना चाहता हूँ,
शरीक होना चाहता हूँ जुलूसों में, मुझे भी अफ़ीम की तरह चाहिए
राष्ट्र—इसीलिए मैं सोचना नहीं चाहता, चीख़ना चाहता हूँ—
तुम्हारे पागलपन से सबसे ज़्यादा दुःख मुझे ही होता है।

कितने सारे सवाल बाक़ी हैं—हम अमेरिका के पीछे कब तक भागेंगे?
हमें कंडोम पहनना कब आएगा?
हम क्यूबिकलों में बैठे इंजीनियरों से कब कहेंगे कि
वे बस्तर जाएँ, नियमगिरी जाएँ…
मध्यवर्ग के लोग कब समझेंगे कि रविवार को झाड़ू उठाकर
वे अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाते?
तुम इतने समझदार कब से हो गए? मैं समझदार होना चाहता हूँ।
भारत तुम इतने मूर्ख कब से हो?
भारत हम तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों में से हैं—
तुमको क्यों लगता है तुम विश्वगुरु हो?
भारत, विकास आँकड़ों में क्यों होने लगा है?

आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया था।
तुम इतने विचारशून्य क्यों हो गए हो?
क्या तुम्हारे पास जवाब हैं?
या तुम भी संसद की तरह हो?
उत्तर दो, आर्यों के देश—उत्तर दो बच्चियों की क़ब्रों से पटे हुए देश!

इतनी दूर, इस रेगिस्तान में चलता हुआ, मैं थक गया हूँ मेरी जान, हम अपनी लालसाओं को दूसरों की प्यास के आगे कब से रखने लगे…

भारत—फ़ाशीवाद पूँजीवाद की गाँड चाटने में लगा हुआ है!

कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं, मुझे तुम्हारी दृष्टि पर शंका होने लगी है—
तुम्हें छत्तीसगढ़ में नक्सल दिखाई दे जाते हैं, उड़ीसा में दिख जाते हैं,
कश्मीर में, मणिपुर में, असम में दूर से ही तुम आतंकवादी पहचान लेते हो
तुम्हें मुंबई में स्लम नहीं दिखते, तुम्हें पुलिस स्टेट चाहिए और ग़रीब हवलदार नहीं दिखते,
तुम्हें खंभों से बँधी हुई लाशें नहीं दिखतीं और तुम दूर से ही देखकर
विदेशी निवेश पहचान लेते हो?

भारत, मुझे बकचोदी समझ में नहीं आती।
मुझे तुम्हारी आँखों से प्यार है,
मेरे सब कुछ, तुम कब से विज्ञापन की होर्डिंगों और
खोखले नैरटिव के पीछे छिपने लगे?
भारत, मैं अभिधा में कविता लिखना नहीं चाहता,
तुम क्यों मुझे मजबूर करते हो?

भारत, मेरे भाई, मेरे ब्रो, मेरे डूड, चलो ना, बाल बढ़ाते हैं,
चलो ना, खादी पहनना शुरू करते हैं, चलो ना, चलो ना
बालों में सिल्वर ग्रे हाईलाइट कराते हैं।

भारत, चाय की दुकानों पर कम्युनिस्ट होने की बकचोदी
तुम्हीं तो पेला करते थे। तुम्हीं कहा करते थे कि प्रेमिका की ब्रा
में अपना मुँह छुपाए तुम लोगों को मरता नहीं देखते रहोगे। तुम्हीं ने
गाँजे की पिनक में मुझसे कहा था ना कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक
तुम एक-एक आदमी की आत्मा में बसना चाहते हो?

भारत, मैं जेल में पैदा हुआ था।
भारत, मैं सस्ते इंटरनेट से रोज़ विदेशी पोर्न देखता हूँ।
भारत, मैंने तुमसे सिर्फ़ प्रेम किया और तुम मुझे द्रोही
मानने लगे—मैं कब सीखूँगा सामाजिकता, कब मेरे दिल में
पैदा होगी करुणा, हम कब कंस्ट्रक्ट्स के झोल से बाहर निकलेंगे।

मैं रोज़ शराब पीता हूँ और नशे में रंडीखानों के बाहर पड़ा रहता हूँ,
मुझे ही पेड़ों से लटका दिया जाता है, भारत, मुझे ही हॉस्टलों में लटक कर
आत्महत्या करनी पड़ती है। वह तुम ही थे जो घर से निकले
और फिर लौटे ही नहीं, तुम्हारी ही माँ को राजपथ पर घसीटा गया,
तुम्हारी बहन ही रास्ते से उठा ली गई।

कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं तुम हो गया हूँ।

भारत, मुझे लगता है, मेरी ज़िंदगी ऐसे ही आराम से कट जाएगी
भारत, मुझे लगता है, ऐसे ही किसी दिन कोई बीमारी मेरी जान ले लेगी
भारत मेरे पास पागलख़ाने जाने के पैसे नहीं हैं—
मैं रोज़ मंदिर जाता हूँ। मैं सुबह चार बजे उठ कर योगा करता हूँ।
मैं चप्पलें चुराता हूँ।

मेरे घर में खिड़कियाँ नहीं हैं,
मैं अपने पड़ोसियों से डरता हूँ, मैं सुबह बिस्तर से उठते ही
नफ़रत की गोलियाँ लेने लगा हूँ। मेरे भारत, मेरे भारत, मेरे भारत,
नफ़रत की बोआई से अमन की फ़सल नहीं कटेगी, मुझे देशभक्ति नहीं आती
मैं जो टी.वी. पर देखता हूँ, भूल जाता हूँ।

भूलने से याद आया, मेरे दोस्त, मेरे भीतर स्मृति नहीं बची,
है ही नहीं, और जब हमको अपनी भूख से उलझना था, हम अपनी
उम्र में उलझे रहे—मैंने जो देखा मुझे याद नहीं…

मेरे दोस्त, चीख़ो, हर हर…। साईं बाबा की जय, जय श्री राम,
भारत, जय श्री राम—मैं लोकतंत्र हूँ भारत, मैं नशा करना चाहता हूँ,
मैं अपने छत पर एक लड़ाकू विमान रखना चाहता हूँ, मैं ऑनलाइन
शॉपिंग करना चाहता हूँ।

भारत, मुझे पागलपन के दौरे पड़ते हैं।

मैं बहुत कुछ इग्नोर कर रहा हूँ बिरादर, और देखो कि मेरा मन
लगाने के लिए क्रिकेट है, सिनेमा मेरा चूतिया काट रहा है और खिलवाड़ों की
बात करूँ? इतिहास का क्या हो रहा है, भाई? एक बेहूदा सवाल पूछूँ?

ख़ैर, मेरे दोस्त,
मेरे कोर्स की किताबों में स्टेट अपनी मर्ज़ी पेल रहा है। यूनिवर्सिटीस कामचोरों
से भरी हुई हैं, बाबा बलात्कारों से मन लगा रहे हैं, टी.वी. पर तमाचे मार रहे हैं,
और मैं भाग रहा हूँ ज़िम्मेदारियों से।

भारत, बाहर वाले क्या बोलेंगे? हम जो बोलेंगे उसके लिए हमें मार दिया जाएगा? मुझे फ़ेसबुक पर विद्रोह करने में बहुत मज़ा आता है।

हमारा हास्य कहाँ गया?
हम हँसते क्यों नहीं, अगर आज़ादी इतना बड़ा चुटकुला थी?
हमारी बहादुरी कहाँ गई कि हम नपुंसकों की तरह झुंडों में बँट गए—

कहो मेरे देश, मेरे दिल, मेरे जीवन, मेरी आत्मा, मेरे सब कुछ—
कहाँ से आ गया इतना डर…

मैं जाने किन-किन मानसिक रोगों से घिर गया हूँ।
कभी-कभी मुझे लगता है, मैं तुम हूँ,
क्या मैं ख़ुद से बात कर रहा हूँ?

क्या हम उसी रास्ते चल पड़े हैं जो हर सभ्यता की नियति है?
मैं दुर्घटनाओं की बात नहीं कर रहा, मैं विकास की बात नहीं कर रहा
कैसे झाँकूँ ख़ुद के भीतर जब गर्दन पर इतना भार है—
मेरे भीतर भर गया है चार्ल्स डार्विन,
मेरे भीतर भर गया है अश्लील साहित्य, मेरे भीतर भर गई हैं प्रदूषित
नदियाँ, नीली स्क्रीन्स, रँगे हुए चेहरे
और मेरे भारत मैं इनसे दबा जा रहा हूँ।

मैं दुर्घटनाओं में मर गए लोगों की बात नहीं कर रहा।
मैं बाढ़-सुखाड़ की बात नहीं कर रहा, मैं भूकंप की बात नहीं कर रहा—
ये सब तो भैया, क़िस्मत की बात है—बेटी की शादी नहीं हुई क़िस्मत की बात,
लाइन में मर गए क़िस्मत की बात—मैं यह बात तो कह ही नहीं रहा।

मेरे देश हमें विदेशी रंडियाँ पसंद आने लगी हैं—हम उन्हें यहीं बनाने भी लगे हैं।
हमें देशी रंडियाँ भी चाहिए, मुझे नेता बनना है भारत, मुझे चिड़ीमार बनना है।

मैं कवि हूँ भारत, मैं विमर्श लिखता हूँ, मैं कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी करता हूँ,
मैं क्रांति चाहता हूँ, और मैं इस मनोस्थिति में अखंडता में एकता पर कोई भाषण नहीं दे सकता।

भारत, धर्म के ग़ुलाम मत बनो!
भारत, पूँजी के ग़ुलाम मत बनो!
भारत, किसानों को बचाओ!
भारत, आदिवासियों को बचाओ!

भारत मैं सोनागाछी हूँ, मैं नक्सलबाड़ी हूँ,
मैं खजुराहो हूँ, मैं संस्कृत का श्लोक हूँ—मेरी देह
मेरा निशान भर है…

और तुमको मदद की ज़रूरत है।
अख़बारों और चैनलों की तरफ़ मत देखो।
बंदरों की तरफ़ मत देखो।

क्या ये सब सही हो रहा है?
मैं क्या बक रहा हूँ—मैं कुछ नहीं करने वाला।

मैं वही पागल हूँ भारत जो फ़ुटपाथों पर रह रहा है,
जो गिर रहे यूनिवर्सिटी-हॉस्टलों में रह रहा है,
जो भीख पर नशा कर रहा है, जो खेती छोड़कर भाग रहा है,
मैं वही पागल हूँ, जो अपने बाप का नहीं है,
जो अपनी माँ का नहीं है, जो अपनी प्रेमिका का नहीं है।

मैं चला जाऊँगा मेरे दोस्त। मैं बचाना नहीं जानता, मैं जताना जानता हूँ।

मुझे
सिर्फ़
सांत्वना
आती
है।

अंचित हिंदी कविता के सुपरिचित नाम हैं। उनसे और परिचय तथा इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर शाया उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : एक यात्रा का वृत्तांत

इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ इंडिया टुडे से साभार।

2 Comments

  1. रमण कुमार सिंह अगस्त 16, 2019 at 12:31 अपराह्न

    बहुत ही उम्दा कविता। विचारोत्तेजक, सुलगाने वाली। हमारे समय की असली कविता इसे कहते हैं। बधाई भाई अंचित और बधाई सदानीरा टीम को इस कविता को प्रकाशित करने के लिए।

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  2. शैवाल अगस्त 19, 2019 at 2:48 अपराह्न

    अंचित ने बारहाँ वो कविताएँ लिखीं हैं , जो मैं लिखना चाहता हूँ. ये कविता मुझे ईर्ष्या के चरम पर ले जा रही है. ‘ सुकवि की मुश्किल ‘ की याद आ रही है.
    बहुत बधाई. बहुत बहुत बधाई.

    Reply

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