कविताएँ ::
निधीश त्यागी
कश्मीर
एक
ग़ायब हुए पते
लौटी हुई चिट्ठियाँ
जले हुए मकानों में फड़फड़ाते कबूतर
कर्फ्यू की शांति
निगाहें नहीं मिलाते तुम
उनमें थकान है और शक
इंतज़ार और यातना
राख के नीचे दबी चिंगारियों का सच
कुरेदो तभी चमकता है
चीड़ के स्याह जंगल में
जुगनुओं की तरह
कुछ तलाशती नहीं निगाहें
इतिहास के अलाव में
धुआँ ज़्यादा उड़ाते हैं
सीले हुए सपने
संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव
जम्मू से श्रीनगर जाकर
निगाहों में झाँको तो
कई ग़ायब चेहरों की गुमशुदा
परछाइयाँ लहराती हैं
और उनकी गुमशुदा शनाख़्त भी
दो
सवाल नहीं पूछते
क़ब्र का पत्थर बनाने वाले हाथ
कैसे मर गया दो साल का ये बच्चा
कुछ उसे मालूम है
कुछ अंदाज़ा
तनी बंदूक़ों को देखकर
बहुत तेज़ नहीं चलते
अस्पताल से निकलकर दवाई दुकान तक
जा रहे पाँव
बुर्का नहीं रखता
दुःख ज़माने से
जब आँसू सूख चुके हों और रोना बेमानी
ज़िंदगी टूटी चप्पल की तरह
ख़ुद को घसीटती है
मौत की बग़ल से
आँख बचाकर
तीन
उकड़ूँ बैठकर
नून चाय का घूँट भरती ज़िंदगी
आवाज़ लगाए बग़ैर गुज़रता फेरी वाला
बेकरी पर बज रहा मुकेश का पुराना नग़मा
फिर कोई बताता है ये रेडियो कश्मीर है
दुनिया का कश्मीर अलग है
ज़िंदगी का कश्मीर अलग
ख़बरें पहुँचती हैं
कश्मीर की ज़िंदगी की उँगली पकड़
कश्मीर की दुनिया तक
लोग लौटते हैं
थोड़ा तेज़ क़दमों से घर
ख़बर बनने से पहले
फिर अख़बार पलटते हैं
चार
ठहरे हुए पानी में ख़स्ताहाल शिकारा
और उसके मालिक का एलबम
पानी में काई, एलबम पर धूल
नागरिक शास्त्र की किताब पढ़कर
घर लौटते बच्चे
झरोखों से लेकर फ़र्नीचर और
बंद दरवाज़ों से लेकर ताबूत तक
अखरोट की हर लकड़ी पर
दर्ज है जीने की सबसे शाइराना वज़हें
मौत के सबसे शहीद अंदाज़
दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत नरक में
जब भी हवा चलती है
चिनार का सबसे ख़ूबसूरत पत्ता
आ गिरता है
फ़ौजी जूतों के पास
पाँच
ऐसी इबारत है
स्कूली किताबों का कश्मीर
जिसे अख़बारों में रोज़
झूठा साबित होना पड़ रहा है
सेब और बादाम के बाग़ीचों
में आ रही बास
बारूद की
थोड़ा जल्द बड़ा होता बचपन
थोड़ा जल्द सीख लेना फ़ातिहा पढ़ना
तनी बंदूक़ों और गड़ती नज़रों के बीच
थोड़ा तेज़ कदमों से निकलना
कँटीली बाड़ों के साथ-साथ
थोड़ा लंबा रास्ता, थोड़ा लंबा दिन
थोड़ा सँकरा आसमान
शब्दों से ज़्यादा सच आहटों के पास हैं
आहटों से ज़्यादा मायने सन्नाटों को
इस वक़्त जो बच्चा चौदह साल का है
उसने वही दुनिया देखी है
ज़िंदगी जहाँ से बेदख़ल है
क़ब्रों के बीच
तलाश ली गई कुछ जगह
कुछ खेल…
निधीश त्यागी (जन्म : 1969) हिंदी कवि-लेखक-पत्रकार हैं। ‘तमन्ना तुम अब कहाँ हो’ शीर्षक से उनकी गद्य-कृति पेंग्विन हिंदी से साल 2013 में शाया हो चुकी है। भारतीय समय में इन दिनों कश्मीर को लेकर नए भय उभर रहे हैं, लेकिन यहाँ प्रस्तुत कविताएँ निधीश ने 2002 के कश्मीर विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के दौरान लिखी थीं। इन कविताओं के साथ प्रस्तुत तस्वीरें भी तब की ही हैं. निधीश इन दिल्ली में रह रहे हैं। उनसे nidheeshtyagi@gmail.com पर बात की जा सकती है।
यह वही समय था, जब निधीश जी ने कुंभ श्रृंखला की कवितायें लिखी थीं.
मेरा सौभाग्य है कि मै आप को पड़ रहा हूं,,, बहुत मर्म स्पर्शी है आपकी रचना,,, कई बार पढ़ा,,,, अभी कई बार पढूंगा,,,, तब जा के मन का प्लावन थमेगा। आभार आपका,,,