कवितावार में गिरिजाकुमार माथुर की कविता ::
दो पाटों की दुनिया
चारों तरफ़ शोर है,
चारों तरफ़ भरा-पूरा है
चारों तरफ़ मुर्दनी है
भीड़ और कूड़ा है
हर सुविधा
एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है
हर व्यस्तता
और अधिक अकेला कर जाती है
हम क्या करें :
भीड़ और अकेलेपन के क्रम से कैसे छुटें?
राहें सभी अंधी हैं
ज़्यादातर लोग पागल हैं
अपने ही नशे में चूर
वहशी हैं या ग़ाफ़िल हैं
खलनायक हीरो हैं,
विवेकशील कायर हैं
थोड़े-से ईमानदार
लगते सिर्फ़ मुजरिम हैं
हम क्या करें :
अविश्वास और आश्वासन के क्रम से कैसे-कैसे छुटें?
तर्क सभी अच्छे हैं
अंत सभी निर्मम हैं
आस्था के वसनों में
कंकालों के अनुक्रम हैं
प्रौढ़ सभी कामुक हैं
जवान सब अराजक हैं
वृद्धजन अपाहिज हैं
मुँह बाए हुए भावक हैं।
हम क्या करें :
तर्क और मूढ़ता के क्रम से कैसे छुटें!
हर आदमी में देवता है
और देवता बड़ा बोदा है
हर आदमी में जंतु है
जो पिशाच से न थोड़ा है
हर देवतापन हमको
नपुंसक बनाता है
हर पैशाचिक पशुत्व
नए जानवर बढ़ाता है
हम क्या करें :
देवता और राक्षस के क्रम से कैसे छुटें?
गिरिजाकुमार माथुर (22 अगस्त 1919-10 जनवरी 1994) हिंदी के समादृत कवि हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (भारतीय ज्ञानपीठ, दसवाँ संस्करण : 2011) से ली गई है।
हृदयस्पर्शी कविता।