कविताएँ ::
शिवम चौबे

शिवम चौबे

जीवन

कहीं दूर बजता हुआ
किसी पुरानी फ़िल्म का कोई
सुना हुआ गीत
जिसकी धुन तो याद है
स्वर नहीं मिलते
बहुत कोशिशों के बाद भी
पकड़ में नहीं आते बोल

अलबत्ता
बजते-बजते
कभी भी बंद हो सकता है
गीत।

पछतावा

कभी-कभी जाने-अनजाने
दुखा ही देता हूँ
उनके भी दिल
जिनके भीतर हिलती ही रहती है
मेरे वजूद की लौ

जिनकी नसों में एक नस
मेरी भी फड़कती है
जिनकी देह में एक दिल
मेरा भी धड़कता है

कभी-कभी लगता है
कितना आसान है
दुख में कविता लिखना
उससे भी आसान है
दुनिया को दुखी दिखना

लेकिन बहुत मुश्किल है
किसी के दुख का कारण न बनना

यह जानते हुए भी कि
दुख की फ़सलों में
कई-कई आँख का पानी लगता है
चाहे-अनचाहे
समय-कुसमय लग ही जाती है
कोई कही हुई बात

फूलता है किसी का दुख
लगता है किसी आँख का पानी
पछतावा सप्तपर्णी की गंध की तरह
पीछा करता है
कई-कई रात।

चौखट

बुज़ुर्गों जितनी उम्र पा गए घर में
दरवाज़ों के खुलने और बंद होने के
निकटतम गवाह की तरह
उपस्थित है चौखट
दो अलग-अलग दुनियाओं के
ठीक बीच यह इतनी ही चौड़ी है
कि इसे लाँघते ही बदल जाते हैं युग
स्त्रियाँ पतित हो जाया करती हैं
और पुरुष घरघुसरू
ऐसा बुज़ुर्ग मानते रहे।

चौखट जो एक कदम में पार की जा सकती है
नहीं पार हो पाती कई-कई बरस
कई-कई बरस बाद बच्चे खेल-खेल में
बनाते हैं उसे रेलगाड़ी
उससे उतरते हैं और चले जाते हैं
अनजानी यात्राओं की ओर

वे पलट के नहीं देखते
रेलगाड़ी हुई चौखट को
पतित और घरघुसरू के
उलाहनों के बीच से
ग़ायब हो जाते हैं वे
अपनी रेलगाड़ी के साथ।

एक पत्थर में

एक पेड़ की आह है एक पत्थर में
एक झरने का पानी
एक हवा की नमी है
मौजूद है एक फूल की गंध

लोगों के पैरों के निशान
उनकी आवाज़
उनका साथ
छूटते हुए हाथ

पत्थर में है
एक जीवित पहाड़ की याद
जो दोनों आँखों में
एक साथ उभरी थी

कितना कुछ कोमल है
एक पत्थर में
लेकिन यह उन्हें समझ नहीं आएगा
जिन्होंने पत्थर को
पानी की आँख से नहीं देखा।

लौटता हूँ

मैं अपने दुख में
ठीक उसी तरह
लौटता हूँ
जैसे पत्तों के बीच
लौट आता है वसंत

अपने समय में लौटते हुए
याद आती है
बारिश के बाद की उमस

अपने एकांत में लौटता हूँ
जैसे किनारों से टकराकर
लौट जाती हैं लहरें
नदी की गोद में वापस

लौटता हूँ अपनी स्मृतियों में
जैसे सवारियों को गंतव्य पर छोड़
लौट आते हैं ख़ाली रिक्शे

परंतु इन सबसे अलग
जब कभी लौटता हूँ
तुम्हारी ओर
तो लगता है जैसे
भीड़ में खोया हुआ बच्चा
लौटता है सबसे सुरक्षित अंक वापस।

सुबह

एक सत्रह साल की लड़की ने
किराने की दुकान से
अभी-अभी खरीदा है सेनेटरी पैड
दुकान की पचपन-साला मालकिन ने
लगभग डपटते हुए कहा है—
‘ये सब खरीदने के लिए थैला लेकर आया करो’

कमला पसंद के बड़े पैकेट में पड़े हुए
‘ये सब’ को छुपाते हुए
लड़की अभी-अभी निकली है

सुबह अभी-अभी हुई है शहर में
सूरज अभी-अभी बुझा है।

कैसे भूलूँगा

सब भूल भी जाऊँ
तो उनको कैसे भूलूँगा
जिन्होंने मुझे रुलाया था

जिन्होंने वहाँ भी तोड़ा
जहाँ मैं पत्थर था भी नहीं।


शिवम चौबे की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : सूख जाती है जिनकी नदी उनको कहाँ ही आते हैं सपने

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