कविता ::
बेबी शॉ
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद
हमारे देश
हमारे भोजन
कला-तकनीक और ख़ूबियों का
लंबा-चौड़ा हलफ़नामा जारी किया गया…
हालाँकि कुछ दिन पहले
यह क्रूरता और कठोरता से भरा था
लेकिन आज
हमारे किसान सब मर रहे
उनके दावे ख़त्म हो चुके
उनकी आशा अब आशा नहीं
बारिश के लिए बार-बार
आसमान की ओर देखते रहना
सावन और अगहन को याद रखना—
और…
और कैसे रोपा जाता है धान
तिथि-नक्षत्र के अनुसार
रचनी होती है कैसे—
मिट्टी की पूजा
उन्होंने कैसे सीखी थी
दादा-परदादा से खेती की तकनीक
और सामंजस्य के साथ
प्रकृति से प्रेम करना
प्रकृति के भीतर प्रकृति बनना
अब यह सब नष्ट और मृत है…
महामहिम,
इनके लिए एक ढाल के रूप में
इनकी ही आवाज़ बनकर
इन सबके सम्मान का मुखौटा पहनकर
आपको मिल गया सिंहासन
बदले में ले ली गई—
हमारी कला-संस्कृति
सदियों पुरानी विरासत
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता…
हमारी ज़मीन-जायदाद
गेहूँ और धान के खेत
वन-भूमि
पहाड़-पानी
विशाल शाल-सागौन का शरीर
सभी लाशें लिपटी हुई हैं
कठोर कठिन कंक्रीट से
वे जो धनाढ्य हैं
उन्होंने और ज़्यादा की लालसा में
ख़रीद लिए—
पहाड़-डूँगरी
वहाँ के पेड़-पौधे
उनकी लताएँ
आदिम झरने…
वह जंगल की लड़की
दर्द में नहीं लय में लहराते हुए
घड़े में भर ले आती थी पानी
और बहुत पहले से जानती थी
मानती थी—
यह पानी
यह मिट्टी
ये पहाड़
ये प्रपात
ईश्वर ने उन्हें दिए
पर इस बार उसे समझाया गया
कि वास्तव में यह सब सरकार का है
जो इन्हें ख़रीद सकते हैं—
उनका है
हम अपने अधिकार से वंचित हैं
और हमारे भगवान भी
नक़्शे को साकार करने के लिए
रेत भरे ट्रक
भूमि
रात के अँधेरे में
ख़ाली हो चुकी सुवर्णरेखा
कंसाई की रेत
सूखी नदी को देखते समय
हमारी बूढ़ी दादी
कभी-कभी आहें भरती है
और शाप देती है
उस सरकार के लिए
जो अदृश्य है और अज्ञात…
महामहिम,
क्या आपको यह सब महसूस नहीं होता?
आप भी तो इसी मिट्टी की हैं
जंगल की
नदी की
पत्थर की…
आप तो समझती हैं—
ग़रीबी क्या होती है!
आपने तो देखे ही हैं—
रूखे-सूखे जीवन
सुनी है दर्द भरी दास्तान
लेकिन वे कहते हैं—
मिट्टी में सिर्फ़
धूल और कीचड़ है
जबकि पत्थर सख़्त बनाते हैं दिल को
उस सख़्त पत्थर पर बैठकर वे
हम नए बेरोज़गार युवाओं
देश के कथित भविष्य को
जीते जी मार रहे हैं
और खा रहे हैं—
मांस
हड्डी
गोबर
और
परदादाओं की कठोर खोपड़ी
एक वृद्ध चाह रहे थे अधिकार
दिमाग़ में चलती हुई
कुछ बात बता रहे थे
हमारे देश के महान् सिपाही
उठाकर ले गए उन्हें
और डाल दिया काल-कोठरी में
हमारा झारखंड
उनका उत्तराखंड
मध्य प्रदेश के वन
रहस्यमयता
शुद्ध ऑक्सीजन
सुंदर प्राकृतिक रोशनी
हवा
तापमान
सहनशीलता
पौष्टिक अनाज
सब कुछ…
मिट गया है
किसकी स्याही के दाग़ हैं ये—धब्बे
इस आश्चर्य में चकित होती हुई
सोचती हूँ—यही अच्छा है
आज हमारे घर में अनाज नहीं है
तालाब में पानी नहीं है
गर्मी से शरीर जलता है
बेतरह ठंड से मर जाते हैं हमारे पुरखे
आज हमारी विरासत का जंगल
एक विशाल ख़ाली मैदान है
इस सूखे मैदान में
हमारे वन-संसाधन
हमारी भाषा
लोकगीत
संस्कृति
रीति-रिवाज सब मिट जाते हैं
महामहिम,
आप एक बार भी ऐसा नहीं कर सकतीं क्या?
इन वृक्ष-हत्यारों को रोकना
क्या संभव नहीं आपके लिए?
क्या संभव नहीं…
इन पहाड़ों, जंगलों, रास्तों, नदियों और झरनों को
अपनी गति से चलने देना?
जनजातियों को जनजाति ही रहने देना?
बिरसा मुंडा को जंगल
और उसके अधिकार वापस लौटा देना?
ये हो तो कितना अच्छा हो
हमारा समाज जंगल में पराग फैलाएगा
हमारी जनजाति आपको
मरांग बुरू के समकक्ष मानेगी
हमारे बूढ़े दादा-दादी कहेंगे—
दोपदी एक लड़की है! अच्छी लड़की! जो रखती है पेड़ों का सम्मान…
लेकिन…
लेकिन,
कहावत याद रखिए—
आशा हो तो किसान बार-बार मरता है
किसान और उनके खेत बार-बार मरते हैं
और क्रूर राष्ट्र विकल्प ढूँढ़ता है
उनकी लाशों पर खड़े होकर
ताली बजाते-बजवाते हुए—
महामहिम, ठीक आपकी आँखों के सामने…
बेबी शॉ नई पीढ़ी की सुपरिचित-सम्मानित बांग्ला कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी हिंदी कविता के प्रकाशन का यह दूसरा अवसर है। इस अवधि में उन्होंने समकालीन बांग्ला स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 30वें अंक का संपादन किया। यहाँ प्रस्तुत कविता एक बहुआयामी प्रतिबद्धता से युक्त है। समकालीन राजनीति की क्रूरता और कार्पोरेट लूट इस रचना में काव्यात्मकता को आहत किए बग़ैर दर्ज हुई है। हमारे संकटग्रस्त समाज के मार्मिक-स्थल यहाँ एंथ्रोपोसीन-विमर्श की समझदारी के साथ प्रकाशित हैं। यह कविता लिखी पहले हिंदी में गई, पर प्रकाशित पहले बांग्ला में हुई। यह और भाषाओं में भी आए तो और बेहतर… बेबी शॉ से और परिचय के लिए यहाँ देखिए : अंतिम पृष्ठ पर कविता की तरह
बहुत शानदार और ज़रूरी कविता है। दो भाषाओं में समान अधिकार से लिखना न सिर्फ़ भाषागत काबिलियत का मामला है बल्कि यह विश्वदृष्टि की स्पष्टता का भी मामला है।
बधाई एक समर्थ कवि (समर्थ अनुवादक और संपादक भी) को और इसे उपलब्ध कराने के लिए सदानीरा का शुक्रिया।
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति,
लेखिका ने सिर्फ “मुखौटों की राजनीति” का ही मुखौटा नहीं उतारा है अपितु पर्यावरण, पेड़, जंगल, जमीन, जन और जनजातियो को स्वर दिया है
साधु साधु