लंबी कविता ::
अभिजीत
प्रेत 1/ मरहूम प्रेमी 1/ मोहल्ले का पागल 1
वह अपने बाल सँवारता है
शृंगार करता है
उसके होंठ असल में ईर्ष्या से पीले होते हैं
उसकी भाषा
अपने शब्दों को नदी में बहा आई है
उसके मुँह में
केवल पानी का सम्मोहन है
पानी का रूप है
वह इसलिए तैरता हुआ दिखाई देता है
जैसे अलमस्त हो
जैसे पेड़ के कई साये चिलचिलाती धूप में
नंगे पैर दौड़ गए हों
ट्रेन की पटरी पर से
ख़ाली पड़े खंडहरों को लाँघ कर
घरों के चबूतरे से
थालियों के कोनों से सट कर
घड़ी के काँटों में फँस कर
वह एक ही कपड़े में दिन रात रहता है
उसी में सोता है
वही पहने नहा लेता है
इतना मरियल और सुस्त दिखता है कि लोग बेबस हो कर
उसे सुंदर कहते हैं
उसकी हँसी में उन्हें क्रूरता और विलाप दोनों दिखता है
जैसे खुला हुआ रौशनदान
दवात/किताबघर
मेज़ और बिस्तरों के निचले हिस्से
आम के बाग़
कवियों के मकान/सजने का सामान/और पुराने दीवान
ज़ेवर/साज़-बाजे-पायल
एक कुत्ता
अपनी मालकिन का कायल
बिल्लियाँ जो घूरती रहती हैं
उसे भाती हैं
लुभाने वाली जगहें उसे भाती हैं
न लुभानी वाली जगहों पर वह रहस्य की आड़ में एकांत उगाता है
वह जुगनुओं को जगाए रखता है
वह घोड़ों को जगाता है
रात भर वे हिनहिनाते हैं
पहाड़ों के शिखर जैसे घोड़े अपनी आँख खोले
उस पर नज़र रखते हैं
उसे पहाड़ों की विनम्रता भाती है
उसे कई बोलियाँ आती हैं
वह घंटों किसी भी विषय पर वक्तव्य दे सकता है
पर वह समझता है
वह वक्तव्य से बेहतर है
बजाय विचार का शाब्दिक आहत किए वह पूरा ज्ञान
बुदबुदाते लुटाता है
और वह दरअसल चुप
कहानियाँ गढ़ता रहता है
एक ऐसे समय के लिए जब लोरी का संगीत फीका लगेगा
जब बरसात रुकेगी नहीं
जब देह को देह को देह को देखो! होश नहीं रहेगा
तब वह बातें करेगा
वह अंगूर खाएगा
वह दिखाई देगा और दिखेगा नहीं
दीवार पर कुछ लिखेगा
और दिखेगा नहीं
वह बहुत गहरा दूर पड़ोस का रिश्ता होगा
निभेगा नहीं
महीनों दिखेगा नहीं
और सामने आते ही भूत हो जाएगा
पैर पकड़ लेगा
वह जेब में सिक्कों की तरह बजता रहेगा
पंखे के साथ लटका रहेगा
रात भर तुम्हारे मुँह पे
दिन भर तुम्हारी परछाई
तुम्हें उसकी स्मृति से बाँधती चली जाएगी
तुम कहीं जाओ
उम्र के किसी दरवाज़े पर अपने हाथ रक्खो
तुम्हारे हाथ उसे छुएँगे
तुम्हारा बचपन उसके बचपन से मिलने को बे-चैन होगा
इसलिए बुख़ार आएगा
वैद कहेगा टोना है
लेकिन प्रेम में यही होना है
घाव का सार ही यही है
दुख का अनुभव यही छोड़ कर जाता है
फूल नहीं सूखते हैं
दिन बीत रहे होते हैं
रंग गहरा हो-हो कर अभिशाप की तरह उस सुगंध का
गला दाब देता है
वैद तो कहेगा ही कि टोटका है
वैद क्या जाने दुख का जला हुआ भूत कितना सफ़ेद होता है
दिखेगा नहीं
पूरे दिन को ऐसे खा जाएगा जैसे था ही नहीं
लोग दफ़्तर से लौटेंगे
तो परिवार कहेगा देखो कैसा पिशाच लग रहेगा
औरत इसी तरह डायन बनी
उसका दुख
उसके जिज्ञासु होने से बड़ा निकला
लोगों ने मुक्ति के नाम पर जलाया
मुक्ति के नाम पर पुजा
हर कोई इसे टोना ही कहेगा टोटका ही कहेगा
कहेगा भूत घुस गया
कहेगा काला जादू है
जाने बग़ैर कि जादू रंग भर जितना भी दिखता ही नहीं
दिखेगा नहीं
उसे पाने के लिए दार्शनिक भाषा को ध्वस्त कर देगा
कवि आत्महत्या करेगा
स्टेज से ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ का लकी अपने एकालाप को बोलते-बोलते
शब्दों के अकारण मृत्यु-चक्र में
विलीन हो जाएगा
जादू नहीं दिखेगा
देह को देख कर लोग कहेंगे चकित होना जादू के समान है
देखते-देखते गिनती के शिकार होंगे
दुख नहीं उतरेगा
नहीं जाएगा
बारादरियों के टूट रहे संगमरमर/कालीन के टूट रहे धागे/नानियों के
बड़े मुश्किल से झड़ रहे बाल
भयानक बीमारी का एक पूरा साल
अतरंगी चश्मे/इतर की ख़ाली शीशियाँ/गेटिस-कंचे-माचिस की
डिबिया/टूटे हुए कंघे/सड़ रहा लहसुन
यह सब नहीं उतरेगा
स्मृति से
स्मृति से चिपका रहेगा मौत का वह अनवरत आकर्षण
वह अनवरत दुख
पिता के ऐसे पीठ छूने का
जैसे शायद नहीं छूनी चाहिए थी
माँ के इस तरह मारने का कि गर्दन हफ़्तों फूली रहे
गालों पर
नमी-सी रहे
साथ खेल रहे बच्चे मज़ाक़ बना दें देह के एक तरह से होने का
बचपन उस दुख से
जाएगा मिलने और जाता रहेगा
ट्रेन में किन्नरों/पार्क की ज़ंग लगी बेंचों/कमज़ोर पड़ रहे कंगनों
को देख कर केवल दुख
हर शय में तुम ढूँढ़ लोगे जो तुम्हारे कितना भीतर है यह केवल घाव
या केवल घाव
का अनुभव जानता है
अनुभव जानता है भूत कोई टोटका नहीं होता इस पर विश्वास करना न
करना चयन का विषय ही नहीं
यह दुख का पहला आविष्कार है
विज्ञान से अनवरत बहस कर रहे बचपन का सारा दुख अपने बचाव में
ये खोज लाता है
इसे सँवारता है
शृंगार देता है
इसे उन जगहों से बचाए रखता है जहाँ दूसरे पिशाच रहते हैं
फिर उन जगहों के
प्रेम में पड़ा रहता है
सोचता है जाऊँ
सोचता है कि सोच में पैदल देख आऊँ ‘मल्होलंड ड्राइव’ पर क्या हो रहा है
बुरे सपने/हड़बड़ी में किए हुए
अनवरत चुम्बन
अनवरत चुम्बन
केवल जिज्ञासा थी
लेकिन दुख बड़ा निकला और किसी की पतलून उतरते ही
ऐसे भयावह दृश्य
ऐसे समय से परिचय हुआ जो कहाँ था अभी तक किसे पता था
जो दिखता नहीं था
वैद तो कहेगा टोना है
मगर तुम तो जानते हो विलाप कैसा दिखता था/ दुख कैसा दिखता है
घाव का सार ही यही है
महाकवि डबराल ने जब कहा ‘छुओ’ तब हमने यही छुआ
थिक-कुआंग-दक ने देह को आग लगाने से पहले यही देखा होगा इसे ही जिया होगा
कनाल स्ट्रीट पर
भरी बरसात में एक दूसरे के मुँह तलाश रहे प्रेमी
रो रहे थे
इन्हीं दुखों को छू रहे थे
यही प्रेत हैं
मरहूम प्रेमी
और मोहल्ले के पागल
ये कल्पनाओं से भाग कर सामने आ जाते हैं और कथा का रूप लेते हैं
गाथाओं का निर्माण होता है
मिथक बनता है
राज-रजवाड़ों की लोकप्रियता का यही बचा हुआ हिस्सा है
हम ढूँढ़ लेते हैं
दुख
रौशनदान
टूट रहे झूले
दूसरे डब्बों में जा रहे किन्नर
फीके आम
भयावह स्पर्श
हम ये सारे दुख ढूँढ़ लेते हैं और घाव में फेंटते रहते हैं
देह पर उबटन लगाते हैं कि देह प्रेतफुल्लित रहे और जाती रहे बचपन को
जाती रहे बचपन को
सजने-सँवरने
शृंगार करने
अनवरत काजल अनवरत अँधेरे अनवरत कंपन
चुम्बन-चुम्बन
हमें कोई दिन दहाड़े सड़क पर मिलेगा और छुटते ही कहेगा
अबे!
ये क्या हाल बना रक्खा है
हम जो बहुत सुंदर दिख रहे होंगे कि मौत का सम्मोहन है
नदी का प्रलोभन है
हम जो अतीत को दुत्कार देते हैं
हम जो समय को आकार देते हैं
हम
हँस पड़ेंगे
अबे छोड़ो!
भूत देखा है भूत
कोई कह भी देगा—हाँ—देख तो रहे हैं
खुला रौशनदान/धूप में शल पड़े पेड़/जल रही घास/किताबों के कीड़े
कड़वे खीरे/तीखी लार/गाँठ जैसा पेट
होंठ ऐसे कि मानो सारे बुरे सपने पहले होंठों पर आते हों फिर कहीं भी और
ऐसे सूखे
कटे-पिटे हाथ लिए
इतने सुंदर लग रहे होंगे हम कोई दिन दहाड़े अगर पकड़ ले हम को
अनवरत विलाप
अनवरत विलाप
नदी का रूप
हत्या की रात
चिंतन के अर्थ
गिनती का अपमान
नामों की सिलवटें
राग और वह भी मल्हार
केवल विषयों की होड़
तोड़-मरोड़
सभ्यता का पहला चोर
अतीत का तलवा
समय का मलबा
हम इसी के नीचे तो दबे मिलेंगे और लहू बह रहा होगा
देख! देख!
भूत!
कोई कह रहा होगा
अनवरत स्मृति
अनवरत दुख
वैद को क्या पता कि दिमाग़ क्या बला है
बचपन पकड़ लेता है
और छोड़ता नहीं है
हम तड़पते रहते हैं सभी के बचपनों को देखने के लिए उन्हें जाँचने के लिए
जब कि वह साफ़ दिखता है
विज्ञान और दुःख
बराबर बैठे प्याज़ छील रहे होते हैं
कविताएँ/अदाकारी/संगीत/मिथक/भूगोल/शिल्प/नाटक/सिनेमा वर्सेज़ एक-एकल-एकालाप दुःख
हम कैसे नहीं ढूँढ़ेंगे
निश्चित ही प्रेम
सुर्ख़ आँखें
अनवरत चुम्बन
अभिजीत की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। वह लखनऊ से हैं और तक़रीबन चार भाषाओं के साथ एक डाकिये की हैसियत से काम कर रहे हैं। उनसे abhijeet.singh@stu.mmu.ac.uk पर बात की जा सकती है।