editorial by agneyaशुरुआत ::
आग्नेय

क्या लेखक और उसके लेखन को लेकर नैतिकता के प्रश्न उठाए जा सकते हैं? क्या लेखक का जीवन, उसके जीवन जीने का तरीका और उसके जीवन-यापन के साधनों के बारे में नैतिकता का कोई तारतम्य बन सकता है या बनाया जा सकता है? क्या लेखक के विरुद्ध समाज या जनता की अदालत में या राज्यसत्ता की किसी कचहरी में अभियोग-पत्र दाखिल किया जा सकता है? क्या लेखक और उसके लेखन से किसी भी प्रकार की कोई जवाबदेही और प्रतिबद्धता की आशा की जा सकती है? क्या लेखक की स्वायत्तता, उसके स्वाधीन बने रहने की आकांक्षा, उसके अराजक होने का अधिकार और उसके बहुरूपिया होने के अवसर को किसी तरह से भी सीमित करना लेखन के विरुद्ध चले जाना होगा?

ये सारे प्रश्न ऐसे हैं जिनके दो टूक जवाब देना और पाना कठिन है. सर्वमान्य उत्तर न पाने की विवशता होने के बावजूद साहित्य के संसार में ये सवाल अनेक बहसों के केंद्र में रह चुके हैं और अब भी केंद्र में हैं. यद्यपि कुछ लोग इन सवालों को गैरजरूरी समझकर और बताकर एक जरूरी बहस से दरकिनार हो जाना चाहते हैं. उनके साहित्यिक रोजनामचों में, उनके ‘कभी-कभारों’ में आत्मरतियों और आत्मप्रवचनों को इतना स्पेस दिया जाता है कि साहित्य के जरूरी और बुनियादी सवालों पर बहस की गुंजाइश ही नहीं बचती है. ये साहित्य-मनीषी अपनी आंखों से दूसरों की दुनिया देखने के लिए एक ऐसा मायालोक रचते हैं, जहां न तो नैतिकता के प्रश्न हैं, न जवाबदेही है और न जहां नैतिक प्रतिबद्धताओं के लिए कोई स्पेस है. उनकी दुनिया में प्रलोभन, पद, सम्मान, सत्ता और राज्याश्रय सर्वाधिक कामना करने वाली चीजें हैं.

क्या एक लेखक को अपने जीवन के किसी मोड़ पर, किसी मुहाने पर, किसी मुकाम पर अपने आपसे यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि जीवन में ऐसा समय आ जाता है जब सारी भौतिक चीजें अपना वैभव, अपनी दिव्यता, अपनी महिमा खोने लगती हैं. क्या लेखक के जीवन में भी ऐसा समय आ गया है या आने वाला है? उसके बारे में उसे निश्चित होना है और ऐसे समय की प्रतीक्षा करनी है और जब ऐसा समय किसी लेखक के जीवन में आ जाता है तब वह अपने को रोकता नहीं है, अपने को ठिठकाता नहीं है, अपने को मना नहीं करता है.

लेखक को स्वाधीनता और स्वायत्तता उपहार या दान या राज्याश्रय में नहीं मिलती हैं. ये उसे जोखिम उठाकर, खतरों का मुकाबला करते हुए नैतिक साहस और आत्मिक बल से अर्जित करनी पड़ती हैं. नैतिक रूप से निर्भीक होना आतिशबाजी का खेल नहीं है. लेखक की नैतिकता, उसका प्रतिरोध और उसकी प्रतिपक्षता पिंजड़े में शेर की दहाड़ नहीं है. वह सूर्य की ओर उड़ने वाले परिंदे की उड़ान है, वह मुक्तिबोध की कविता है. वह अपने आपसे स्वाधीन होने का कर्म है, वह मार्क्स और एंगेल्स का कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र है. वह सच्चे रूप में व्यक्ति के मानवीय होने की निर्णायक घड़ी है.

हीगल कहता है कि नैतिक मनुष्य वह नहीं है जो केवल सही काम करना चाहता है और करता है और न वह अपराध-बोध से मुक्त मनुष्य है, नैतिक मनुष्य वह होता है जो अपने द्वारा किए गए कर्म के प्रति चेतन रहता है.

यहीं एक लेखक दूसरे लेखक से यह सवाल पूछ सकता है कि क्या एक लेखक के रूप में हमारे पास ऐसे विकल्प हैं जो हमारे जीने और सोचने के ढंग और तरीकों को बदल सकें? यह हमारी सभ्यता का ही केंद्रीय प्रश्न नहीं है, एक लेखक के अस्तित्व से भी ताल्लुक रखता है. साहित्य स्वयं एक ऐसा विकल्प है जो लेखक को, उसकी अपनी दुनिया को बदलने की ताकत रखता है.

आखिर साहित्य का क्या काम है, वह क्या करता है या कर सकता है. एक लेखक को इसकी बखूबी पूरी जानकारी होती है. वह यह अच्छी तरह जानता है कि ‘जीवन की धारा में ही शब्दों का अर्थ होता है’ और लेखक को उसका लेखन दूसरों के खातिर जो बिना आशा के है, आशावान होने का संदेश देता है. साहित्य व्यक्ति के चारों तरफ लिपटी विभ्रमों की जंजीरों को तोड़ता है, वह विभ्रमों को छोड़ देने की मांग करता है, जिससे उन स्थितियों को समाप्त किया जा सके जिनको विभ्रमों की आवश्यकता होती है. कोई भी लेखक अपनी परिस्थितियों का दास नहीं होता है, वह संहारक और निर्माता दोनों है. वह मुक्त है, वह स्वाधीन है, वह स्वायत्त है, इसलिए ही उसका लेखन एक मुक्तनाद है, वह जीवन-राग का गायक है.

इधर हिंदी के अधिकांश लेखकों ने लेखक होने की इन तमाम जरूरी शर्तों को छोड़ दिया है. उनकी वाणी क्षीण और उनके लेखन की चदरिया बदरंग और तार-तार होती जा रही है. वे सत्ता की जिन दहलीजों पर बैठे रहते हैं और जिन सम्मानों की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं, वे उनको कलंकित और कायर बनाने के लिए पर्याप्त हैं.

यह सच है, हमारा समय घड़ियों का समय नहीं है, अच्छे और बुरे के बीच निर्णय का समय नहीं है, यह जीवन और मृत्यु के बीच चयन का समय है, यह मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने का समय है, यह समय मनुष्य को एक कलाकृति की तरह बनाने का समय है और ऐसे समय में एक लेखक को क्या करना है, उसका लेखन ही इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है?

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‘सदानीरा’ के 19वें अंक में प्रकाशित. आग्नेय हिंदी के समादृत कवि-अनुवादक और ‘सदानीरा’ के प्रधान संपादक हैं. उनसे agneya@hotmail.com पर बात की जा सकती है.

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