लंबी कविता ::
आमिर हमज़ा

एक बड़ी रचना अपना जो असर छोड़ती है; शिल्प के आधार पर वो अदब में जो जगह बनाती है, उसको बहुत समय तक आगे आने वालों के लिए मिशअल-ए-राह कहा जा सकता है। ह्यूगो, दोस्तोयेवस्की, काफ़्का, रूमी, हाफ़िज़ और शेक्सपियर इसकी मिसालें हैं; इनका असर इनको नहीं पढ़ने वालों पर भी होता है। क्नूत हाम्सुन की नक़्ल में लिखने वाले उसके बाद बहुत से पैदा हुए; मगर वो इंसानी पेचीदगियों को समझने की बजाय उसके क्राफ़्ट की सतह पर अपने नक़्श बनाते चले गए, जिसकी वजह से उन्हें साहित्य में कोई अहम मक़ाम नहीं मिल सका। तहरीक और अदब में एक बड़ा फ़र्क़ ये है कि तहरीक जितनी अंदरूनी नक़्ल पर अपनी बुनियाद मज़बूत करती है, अदब उतना ही उससे पल्ला झाड़ने को मुनासिब ख़याल करता है। अदब अपनी गीराई और गहराई में जितना देर-पा होगा उतना ही वो ‘असरात’ से ख़ुद को महफ़ूज़ रखेगा।

आमिर हमज़ा की यहाँ दी गई नज़्म एक सतह पर अपना ‘तास्सुर’ तो बनाती है कि वो फ़नकार के बुनियादी सरोकारों और ज़माने में उसकी तह-ओ-बाला होती हुई ज़ेहनी तस्वीर को अच्छी तरह उजागर करती है। मगर ये ‘तवील नज़्म’ अपने उस्लूब में न चाहते हुए भी अक्सर मक़ामों पर रसूल हमज़ातोव की किताब के नस्री रंगों से थोड़ी ज़ख़्म-ख़ुर्दा लगती है, और शायद ही कोई पढ़ने का शौक़ीन अपनी ज़िंदगी में एक बार इस किताब को पढ़ न चुका हो। मेरी राय में यहाँ पेश लंबी कविता का कवि थोड़ी कोशिश से इस असर के आसेब से बच सकता था।

फिर भी, मुझे यह कविता इन बुनियादों पर तवज्जोह के क़ाबिल लगी है कि इसमें हमारे ज़माने के, अक़ल्लियत के, हुनर की ना-क़दरी के, ख़ौफ़ के और रंज के मामलात नज़र आए हैं। मगर इस बुनियाद पर नज़्म की सान्वी शनाख़्त को बल मिलता है न कि असली पहचान को। शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक बार अली अकबर नातिक़ जैसे बेहतरीन शाइर के बारे में कहा था कि उसे अपनी ही नक़्ल से बचना चाहिए। अनीस अशफ़ाक़ के मुक़ाबले में नैयर मसूद होना बड़ी बात है, उसी तरह जिस तरह अहमद फ़राज़ और साहिर होने के मुक़ाबले में फ़ैज़ होना, ज़िंदगी का सुबूत है।

उम्मीद है कि आमिर मेरी इस बात को गहरे मानी में लेंगे और मुझे अपना दुश्मन ख़याल नहीं करेंगे, क्योंकि आख़िरकार मैं उन्हें एक ‘अदबी मौत’ मरने से बचाने की कोशिश कर रहा हूँ।

तसनीफ़ हैदर

आमिर हमज़ा

 मुनीम पहाड़िया की चलती गाड़ी में खड़े घोड़े
जो वक़्त में थे तो लानत की पीठ पर लदे थे ऐसे बच गए कवियों बच गए कहानीकारों की स्मृति में नहीं

तुम्हारी कविताएँ कविताओं जैसी नहीं लगती।
मेरा लिखने का ढंग ही ऐसा है।

— रसूल हमज़ातोव

नज़रबाज़

एक दिन यह लगभग उतर चुकी सर्दी वाली शाम कम दुपहर ज़्यादा थी। धूप खिली थी। आसमान में रंग थे कई। सड़क पर था बिखराव पत्तों का। फूल चुनती थी एक बच्ची। बुज़ुर्ग हाँफता ठहरता चलता था। दौड़ते थे कुत्ते कुछ। धीरे-धीरे एक गुमसुम चलता था। थी कपड़े की एक अस्थायी झोंपड़ी। ज़मीं से ठहर-ठहर पानी निकलता था। पीपल पत्तों को जलाता था झरता था।

पर्णपाती

वह एक पेड़ तले बैठा था। वह जो कविताएँ लिखता था कवि था तले बैठा था एक पेड़ के। यह पेड़ बकायन का पेड़ था। यह बकायन का पेड़ सामने दूसरे बकायन के पेड़ जैसा नहीं था। दूसरा पूरा पूरा इसके जैसा नहीं था। कहने-दीखने में दोनों बकायन के पेड़ थे—कड़वाहट से भरे हुए।

वह जो दूसरे बकायन के पेड़ को छोड़ इस बकायन के पेड़ तले बैठा था। पत्तियाँ इसकी पीले के ख़ूब-ख़ूब क़रीब जा पहुँची थीं। बकायन के पीले का यह क़रीब अब बस झर जाने को था।

पत्तियों के पीले के क़रीब होने और झर जाने के दरम्याँ
वह जो कविताएँ लिखता था कवि था कुछ भी नहीं सोचता ‘उसके’ इंतिज़ार में था—
वह जो कहानियाँ लिखता था कहानीकार था।

महज़ एक हल्का हवा का झोंका
और फिर चहुँओर बकायन का बिछावन
बिछावन क़रीब का।

वह उसे नाम से नहीं जानता था कहानीकार होने से जानता था
सच की जानिब से हज़ार मर्तबा इसे झूठ पढ़ा जाए…
दिन के बीत जाने सूरज के बुझ जाने परिंदों के अपने अपने घोंसलों में लौट जाने और रात के नमूदार होने के बाद वह जो कवि था पाँच हज़ारी सीलन भरे कमरे से बाहर निकल गली-गली चाँद को पार कर सड़क पर आ जाता। उसी कई-सी दीख-दीख पड़ती सड़क पर जहाँ वह दोनों—कवि कहानीकार रात की पहली बीड़ी सुलगाया करते थे। उसी कई-सी दीख-दीख पड़ती सड़क पर जिसके नीचे कितने-कितने बीज पेड़ हो जाने से पहले ख़ाक हो चुके थे। उसी कई-सी दीख-दीख पड़ती सड़क पर जिसके नीचे कितने-कितने फूल खिलने से पहले मुरझा चुके थे। उसी कई-सी दीख-दीख पड़ती सड़क पर जिसके नीचे कितनी कितनी घास—घास होने से पहले काले के गर्भ में दफ़्न हो चुकी थी।

भटकन कहीं नहीं तो भटकन तक ज़रूर ले जाएगी
यह उनके यक़ीन की हद थी…
ये उनकी भटकन के दिन थे
वो जो मुफ़्लिसी की भटकन थे
वो जो दिन की रात की भटकन थे।

वो जो जानते थे—मायूसी एक निहायत हराम चीज़ है!
वो जो जानते थे—हर मज़हबी हत्यारा नहीं!
वो जो जानते थे—हर मुँह गाली नहीं!
वो जो जानते थे—हर निगाह शक की बुनाई नहीं!
वो जो जानते थे—रात के दामन पर उजले दाग़ नहीं होते!
वो जो जानते थे—गोली जिस्म के किसी भी हिस्से पर लगे ख़ून निकलता है!
वो जो जानते थे—धर्म-ध्वज धन के नशे से पैदा हुई भीड़ तर्क से नफ़रत करती है!

भटकना उनकी नियति नहीं चुनाव था
ऐसा उनके माथे पर कहीं नहीं लिखा था कहीं भी नहीं…
वो सोचने की भटकन थे!
वो रुलाई की भटकन थे!
वो चिल्लाने की भटकन थे!

सोचना
वो अपने सोचने में भटकते थे और बारहा सोचते थे—
पंखों से लटकने वालों को भला कब तक याद रखते हैं पंखे?
जंग के दौरान क्या सोचते हैं पागल?
ख़याल पानी के रंग से क्यों होते हैं?
नर्गिस फूलों के कुनबे की बे-नूरी क्यों है?
फूल जब फूल से फल बनता है तब भँवरे से क्या कहता है?
हर चीज़ तय है हर चीज़ सुनियोजित कब जारी होगा ‘घोषित देस निकाला’ हमारे देस?

रोना
वो अपनी रुलाई में भटकते थे और हज़ारहा मर्तबा रोते थे—
वो पहाड़ चढ़ती उतरती भेड़ों की थकन को देख देख रोते थे
वो हल में जुड़े बैलों के मुँह से निकलते झाग को देख देख रोते थे
वो सेमल की रूई से ज़ख़्म भरती मैनाओं को देख देख रोते थे
वो रस्सी ऊपर सर पर मटका धरे करतब दिखाती लड़कियों को देख देख रोते थे
वो वृद्धाश्रम में पड़े पंखा झलते बुज़ुर्गों को देख-देख रोते थे।

चिल्लाना
वो अपने चिल्लाने में भटकते थे और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते थे—
अरे लोगो देखो-देखो : निर्वासन का मारा महमूद दरवेश रो रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : नेरूदा के पेट में ज़हरीला इंजेक्शन ठूँसा जा रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : निज़ार के मुल्क की औरतों की नंगी पीठ पर कोड़े बरसाए जा रहे हैं।
अरे लोगो देखो-देखो : नाज़िम को ज़ालिम जेलों में धकेला जा रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : बँटवारे का मारा मंटो पागलख़ाने की सलाख़ों पीछे अपने बाल नोच रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : राही मासूम रज़ा का चश्मा टूट गया है।
अरे लोगो देखो-देखो : साहनी को रात में नींद नहीं।
अरे लोगो देखो-देखो : बटालवी के सीने में दर्द उठा है।
अरे लोगो देखो-देखो : वॉन गॉग सूरजमुखी के खेत में ख़ून से तर-ब-तर दौड़ रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : साबरी का ख़ून सड़क पर पड़ा मर्सिया गा रहा है।
अरे लोगो देखो-देखो : पाश को गोलियों से भूना जा रहा है।

वो और-और भटकना चाहते थे—
भटकने की इस चाह में ख़त्म हुए जंगल का दुख था। भटकने की इस चाह में सड़क के नीचे का दुख था। भटकने की इस चाह में कितने कितने मुरझाए फूलों का दुख था। भटकने की इस चाह में ख़ून के धब्बे थे। बलत्कृत लड़कियों की चीख़ थी। अन्न के अभाव में क़ब्र के रहवासी होते आए एक दो-तीन उससे कहीं ज़्यादा मुल्कों के नागरिकों की बद्दुआएँ थीं।

इस तरह भटकन में ख़ुद को लिए-लिए
एक कविता में भटका एक कहानी में।

कवि ने कविता लिखी तो ‘ख़राब’ लिखा—
कुछ औरतों से नफ़रत बाक़ी औरतों से मुहब्बत ख़राब बात है
कुछ औरतों से मुहब्बत बाक़ी औरतों से नफ़रत ख़राब बात है।

कुछ बच्चों से नफ़रत बाक़ी बच्चों से मुहब्बत ख़राब बात है
कुछ बच्चों से मुहब्बत बाक़ी बच्चों से नफ़रत ख़राब बात है।

कुछ घरों से नफ़रत बाक़ी घरों से मुहब्बत ख़राब बात है
कुछ घरों से मुहब्बत बाक़ी घरों से नफ़रत ख़राब बात है।

कुछ मोहल्लों से नफ़रत बाक़ी मोहल्लों से मुहब्बत ख़राब बात है
कुछ मोहल्लों से मुहब्बत बाक़ी मोहल्लों से नफ़रत ख़राब बात है।

कुछ मुल्कों से नफ़रत बाक़ी मुल्कों से मुहब्बत ख़राब बात है
कुछ मुल्कों से मुहब्बत बाक़ी मुल्कों से नफ़रत ख़राब बात है।

कहानीकार ने कहानी लिखी तो ‘आत्महत्या’ लिखा—
यह बीसवीं सदी के आख़िरी सालों की एक ठहरी हुई ज़मीन की देह पर छाये क़हत के बादलों का क़िस्सा है—इतिहास की यातनाओं से बुना हुआ। ज़मीन जिस पर कुछ-कुछ सूखी कुछ-कुछ सब्ज़ घास का बिछावन था। ज़मीन जिस पर गाँव के गाँव भूख के मारों से भरे हुए थे। ज़मीन जिस पर एक गिद्ध को एक बच्चे की मौत का इंतिज़ार था। …एक ऐसी ज़मीन जिस पर गिद्ध और बच्चा दोनों भूखे थे। एक ऐसी ज़मीन जिस पर दो कोख भूख की गिरफ़्त में थीं। एक ऐसी ज़मीन जिस पर गिद्ध फ़क़त गोश्त चाहता था, बच्चा फ़क़त रोटी का एक टुकड़ा या मुट्ठी भर दाने। उस रोज़ जब इस कहानी को जन्म पाना था—क़हत के बादलों की दिखाई और भूख के इस स्याह को उस रोज़ जब दृश्य से तस्वीर हो जाना था—सामने से दृश्य को तस्वीर में ढालने वाला एक हुनरमंद गुज़रा। दृश्य को तस्वीर में ढालने वाले उस हुनरमंद का नाम यों तो केविन कार्टर था लेकिन उसके पास एक कैमरा था जो उसके नाम से कहीं ज़्यादा उसकी पहचान था। चूँकि उसका वहाँ से गुज़रना शायद तय था या शायद नहीं भी, फिर भी वह वहाँ से गुज़रा। वह नज़र का पक्का था इसमें कोई दो राय नहीं। वह गुज़रा तो उसने झट से अपना कैमरा निकाला और दृश्य को तस्वीर में बदल दिया। उसके बाद उसने अपना कैमरा बंद किया और अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गया। अभी यह कहानी उतनी ही सीधी सरल है जितनी आप समझ रहे हैं।
—बीसवीं सदी के आख़िरी साल
—एक ठहरी हुई ज़मीन
—एक गिद्ध और एक बच्चा
—दो कोख और भूख
—केविन कार्टर और कैमरा
—आख़िर में मंज़िल

दृश्य से तस्वीर में तब्दील दृश्य ने दुनिया भर में ख़ूब शोहरत शाबाशी पाई कुछ नसीहतें भी। दृश्य को तस्वीर में ढालने वाले हुनरमंद को मुबारक भरे ख़त मिले कुछ लानत भरे भी। आगे उसे एक नामचीन पुरस्कार से नवाज़ा गया। वह ख़ूब ख़ुश हुआ—थोड़ा-सा मायूस भी। सिलसिला जारी था—शोहरत शाबाशी नसीहतें मुबारक लानत ख़त!

एक रोज़ उसने एक ख़त खोला। ख़त क्या था एक सवाल था—
‘बच्चे का क्या हुआ? वह बचा या मर गया?’
‘क्या वह बचा? क्या वह बचा? क्या वह बचा?’
दृश्य को तस्वीर बनाने वाले ने पढ़ा—
‘गिद्ध को गोश्त मिला या बच्चे को रोटी का टुकड़ा?’
उसने ज़ोर से अपने बाल नोचे और चिल्लाया—‘मैं जल्दी में था या शायद सशस्त्र व्यवस्था सत्ता और ताक़त के सामने बेबस था तो मैंने दृश्य को तस्वीर में बदला और वहाँ से चला गया।’

वह चारों ओर से ख़त से घिरा हुआ था। यह एक ख़त हरदम साये की तरह उसका पीछा करने लगा। ख़त क्या था एक सवाल था—‘बच्चे का क्या हुआ? वह बचा या मर गया?’ जैसे जैसे दिन गुज़रते गए वह अपने सपनों से डरने लगा। उसके मन ने अंधकार रचना शुरू किया। उसके मन ने अवसाद रचना शुरू किया। रोशनी उससे दूर बहुत दूर होती चली गई। और फिर बस उसके मन के हर कोने में एक ही शब्द तैरने लगा—
अपराधबोध…
अपराधबोध…
अपराधबोध…

यह दृश्य जो दुनिया के सामने अब एक भयावह तस्वीर की शक्ल में मौजूद था, केविन कार्टर के सामने त्रासदी बनकर खड़ा था। कुछ दिन बाद अख़बारों में एक ख़बर छपी कुछ दिन बाद रेडियों पर सुनाई पड़ा—‘केविन कार्टर ने आत्महत्या की!’

दृश्य को तस्वीर में ढालने वाला हुनरमंद जो आत्महत्या करने से पहले तक एक दृश्य था
ख़ुद अब एक तस्वीर था। दरअस्ल यह तस्वीर ख़त से उछले सवाल का मुकम्मल जवाब थी।

एक गिद्ध केविन कार्टर के भीतर भी था
देखते-देखते उसने एक दिन अपने भीतर के गिद्ध को मार गिराया।

कवि ने कविता लिखी तो ‘हुकूमत’ लिखा—
उसे पानी से नफ़रत है
एक दिन वह झीलों को मिट्टी से पाट देती है
उसे पेड़ों से नफ़रत है
एक दिन वह जंगलों का क़त्ल कर देती है।

उसे आदिम पत्थरों से नफ़रत है—
वह उन्हें बारूद के मलबे में तब्दील कर देती है
उसे ज्ञान के गढ़ों से नफ़रत है—
वह अपने ख़िलाफ़ उठती आवाज़ को जेल में ठूँस देती है।

साफ़ हवा उसके गले में ख़राश बनकर चुभती है
इसी से वह बड़े-बड़े मिलों-कारख़ानों का निर्माण करती है।

नफ़रत उसको ख़ूब पसंद है।
ख़ून उसको ख़ूब पसंद है।
क़त्ल उसको ख़ूब पसंद है।
निर्माण उसको ख़ूब पसंद है।
बारूद उसको ख़ूब पसंद है।
जेल उसको ख़ूब पसंद है।

हिरणों की कराह उसे सुनाई नहीं पड़ती
मोरों के टूटे पंख उसे दिखाई नहीं पड़ते
चिड़ियों के दुख पर वह जबड़ा खोलकर हँसती है
गिलहरियों के कुचले जाने पर वह बल्लियों उछलती है।

‘जल जंगल ज़मीन’ पर वह चुनाव लड़ती है
वह सृजन नहीं विध्वंस रचती है!

कहानीकार ने कहानी लिखी तो ‘पीड़ा’ लिखा—
उसका नाम लोहारू बकरवाल था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर मिट्टी और लकड़ी और पत्थर की धोक में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर बादलों की सरपरस्ती में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर देवदार की निगहबानी में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर बकरियों के मिमियाने में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर बाघ की दहाड़ में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर भालू की ग़ुर्राहट में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर घोड़ों की हिनहिनाहट में रहता था। वो वहाँ दूर बहुत दूर ऊँचाई के पहाड़ों पर चाँद तारों की नुमाइश में एक औरत की मुहब्बत में रहता था।

लोहारू बकरवाल रबाब बजाता था गाता था रवानगी से पहले—
काली गहरी रातों को छोड़कर रोज़ निकलता है चाँद—आज भी निकला है चाँद—पिछले ज़माने में भी निकला था चाँद—अगले ज़माने में भी निकलेगा चाँद—साथ के साथ में रहते हमने कई कई नज़र से देखा चाँद—उसने एक नज़र से—एक नज़र वाला ठहरा चाँद—कइयों ने उसे क़ैद किया कइयों ने आज़ाद—रोज़ निकलता है चाँद।

रवानगी बीच वो बारिश नहीं चाहता था बारिश होने लगती थी। रवानगी बीच वो बर्फ़ नहीं चाहता था बर्फ़ गिरने लगती थी। रवानगी बीच वो हवा नहीं चाहता था हवा चलने लगती थी। रवानगी बीच वो भूख नहीं चाहता था भूख बढ़ने लगती थी! रवानगी बीच वो दुर्घटना नहीं चाहता था दुर्घटना घटने लगती थी।

एक बकरी का पैर टूट जाता था। दहाई में भेड़ें गहरी खाई में जा गिरती थीं। घोड़ों के पैरों में हताशा घर कर लेती थी। बच्चे दहाड़ मार मार रोते थे। वो अपने ख़ुदा को याद करता था। दुआ करता था फिर फिर—सफ़र आसान हो!

शोर करता नदी का पानी अपने से अपने में बहा जाता था। बगल से गुज़रती मोटर गाड़ियों की कर्कश आवाज़ लोहारू बकरवाल और उसकी रेवड़ को अचंभित करती थी। वो दूर ऊँचाई के पहाड़ों से उतरता बीच बीच में ठहरता याद करता था—वो धोक की मिटटी लकड़ी पत्थर को याद करता था। वो बादलों की सरपरस्ती को याद करता था। वो देवदार की निगहबानी को याद करता था। वो बकरियों के मिमियाने को याद करता था। वो बाघ की दहाड़ को याद करता था। वो भालू की गुर्राहट को याद करता था। वो घोड़े की हिनहिनाहट को याद करता था। वो एक औरत की मुहब्बत को याद करता था। वो याद करता था और उदास होता था।

वहाँ अब कुछ रोज़ ताख में चिराग़ नहीं जलेगा
वहाँ अब चूल्हे कुछ रोज़ आबाद नहीं रहेंगे

उसने अभी-अभी अपनी पेशानी को ठंडे पानी से धोया था
वह अभी ज़िंदा था तो थोड़ा-थोड़ा मर रहा था
एक दिन आएगा जब पूरा-पूरा मर जाएगा
थोड़ा थोड़ा बच जाएगा जब पूरा-पूरा मर जाएगा।

एक समय की बात है…

कवि ने कविता लिखी तो ‘था’ लिखा—
एक पेड़ था—काट दिया गया!
एक गौरैया थी—मार दी गई!
एक नींद थी—छीन ली गई!
एक पानी था—प्रदूषित कर दिया गया!
एक चूल्हा था—बुझा दिया गया!
एक ज़बान थी—खींच ली गई!
एक मटका था—फोड़ दिया गया!

काट दिया गया पेड़
मार दी गई गौरैया
छीन ली गई नींद
प्रदूषित कर दिया गया पानी
बुझा दिया गया चूल्हा
खींच ली गई ज़बान
फोड़ दिया गया मटका।

तुम पूछते हो
मेरे माथे पर लकीरें
क्यूँकर हैं!

कहानीकार ने कहानी लिखी तो ‘माचिस’ लिखा—
वह ज़माने की ऊब था। उसका नाम दीमक था। वह दीमक खाता-पहनता-ओढ़ता-बिछाता था। वह कहता था—यह गहरा काला समय है। वह यह भी कहता था—यह कड़वाहट से भरा समय है। वह कहता था—यह हताशा से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह मवाद से भरा समय है। वह कहता था—यह डर से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह लूट-खसोट से भरा समय है। वह कहता था—यह नफ़रत से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह घुटन से भरा समय है। वह कहता था—यह हत्याओं से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह ज़ख़्मों से भरा समय है। वह कहता था—यह चिंता से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह उजाड़ से भरा समय है। वह कहता था—यह तर्कहीनता से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह जालसाज़ी से भरा समय है। वह कहता था—यह तुतलाहट से भरा समय है। वह यह भी कहता था—यह हकलाहट से भरा समय है। वह कहता था—यह धुंधली सुबह का समय है। वह यह भी कहता था—यह जली हुई शाम का समय है।

फिर? फिर? फिर?
‘यह समय मर क्यों नहीं जाता?’
‘मैं इस समय को फूँक देना चाहता हूँ!’
‘फूँक दो किसने रोका है!’
‘मुझे माचिस दो!’

बाहर ज़मीन पर पड़े दाँतों के कीड़े आज़ादी का स्वाद चख रहे थे
दाँतों ने कहा हमें झाँट फ़र्क नहीं पड़ता
जीभ अपना देखे होंठ अपना अपना।

और फिर भटकन बीच झूलते कवि—कहानीकार ने साझा मुँदी आँखों से
एक रात सुंदर-असुंदर सोचा…

एक

सूरज : सुंदर-असुंदर
दिन—दुपहर आसमान ऊपर चढ़ा सूरज किसी को सुंदर क्यों नहीं लगता लेकिन यह है कि हम उगते और डूबते सूरज को ज़रूर सुंदर कहते हैं इसमें भी सुंदरता के मायने उगते और डूबते सूरज के लिए एकदम अलग अलग! ऐसा क्यों…
क्यों हैं ऐसा?

दो

बारिश : सुंदर-असुंदर
किसी के लिए बारिश सुंदर हो सकती है, होती है। लेकिन उस दहक़ाँ के लिए नहीं जिसकी पकी खड़ी फ़स्ल को बारिश डुबा ले जाती है या उन चौक मज़दूरों के लिए नहीं जिनकी मज़दूरी में बारिश ख़लल की तरह आती है। हमें बारिश का शुक्रगुज़ार होना चाहिए या कि मज़दूरों—दहक़ाँनो का हिमायती?

तीन

नदी : सुंदर-असुंदर
किन्हीं दो चाहने वालों के लिए नदी सुंदर हो सकती है, होती है। उस नदी किनारे बैठना सुंदर हो सकता है, होता है। लेकिन उन घरों और उन घरों में रहने वालों के लिए नदी कभी सुंदर नहीं हो सकती जब वह बाढ़ में तब्दील होकर उनके जीवन को अस्त-व्यस्त करती है। उनके लिए नदी तब तक ही सुंदर है, जब तक नदी उनको वह देती रहे जो वह नदी से चाहते हैं—
ज़रूरत भर पानी!
देह को पाप-मुक्ति!
अस्थि-विसर्जन!
क्यों?

कवि कहानीकार की जब साझा मुँदी आँखें खुलीं
तो उन्होंने अपने सामने ‘सहूलियत’ को खड़े पाया।

आख़िर अव्वल…
हमें मारो—कविताओं! मारो कहानियों!
हमें बचाओ—कविताओं! बचाओ कहानियों!
हमें रुलाओ—कविताओं! रुलाओ कहानियों!
हमें हँसाओं—कविताओं! हंसाओं कहानियों!
हमें सुलाओ—कविताओं! सुलाओ कहानियों!

आज की ताज़ा ख़बर…
एक कवि था कविताएँ लिखता था
एक कहानीकार था कहानियाँ लिखता था

उन्हें आसमान से बम—ओ—बारूद गिराते हाथों से नफ़रत थी
उन्हें सरहद खींचते दिमाग़ों से नफ़रत थी
उन्हें उन आँखों से नफ़रत थी जिनमें इंसानियत का पानी नहीं था।

उनके सपनों में इंसानी हड्डियाँ थीं
उनके सपनों में ख़ून के क़तरे थे
उनके सपनों में कालिख पुती दीवारें थीं।

उनके बालों में जुएँ संभोगरत थीं
उनके नाख़ूनों में जीवन की गंद थी।

सुख उनका वहम था!

उनकी टूटी चप्पलों पर घिसे जीवन के दुख थे
वो दोनों प्यार चाहते थे।
हर पैदाइश के बाद लाज़िम है मृत्यु…
देह—साँस—मलक-अल-मौत—दोस्त-अहबाब—चीख़—आँसू—चारपाई—बेरी के पत्ते—ख़ुशबूदार साबुन—ग़ुस्ल-ए-मय्यत—कफ़न—जनाज़ा—मस्जिद—वुज़ू—अज़ान—नमाज़-ए-जनाज़ा—गोरकन—क़ब्रिस्तान—मिट्टी—फावड़ा—तसला—पेड़—क़ब्र—फ़ातिहा—अँधेरा—सन्नाटा—मुनकर-नकीर—सवाल-जवाब—जन्नत-खिड़की—दोज़ख-खिड़की—अल-मसीह अल-दज्जाल—याजूज-माजूज—ईसा अलैहिस्सलाम—रोज़-ए-अद्ल—हिसाब-किताब—पुल-सिरात

मग़्फ़िरत?

काँव! काँव! काँव!
कव्वा अपनी आँखें नोच खाए स्साला…!
ख़ुदा करे…!
बाक़ी—‘इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन’


आमिर हमज़ा [जन्म : 1994] नई पीढ़ी के अत्यंत मेधावी कवि हैं। ‘सदानीरा’ पर उनके रचना-प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। हिंदी कविता में एक अलग काम करने की उनकी तैयारी बड़ी है। उनसे hindipoet1994@gmail.com और amirvid4@gmail.com पर संवाद संभव है।

4 Comments

  1. AWDHESH KUMAR MEENA अगस्त 25, 2025 at 11:40 पूर्वाह्न

    बहुत खूब लिखा

    Reply
  2. अजेय कुमार अगस्त 27, 2025 at 8:38 पूर्वाह्न

    बहुत अच्छी कविता। चलती गाड़ी में कवि से सुनी थी। यहां‌ टेक्स् ट मेअलग तरह से खुली। शिल्प में नवाचार का जोखिम उठाया है लेकिन बहुत ही ज़िम्मेदारी के साथ निभाया भी इसे युवा कवि ने, । इस प्रयोगधर्मिता के लिए विशेष बधाई स्वीकार करें। प्रस्तुति शानदार है। साथ लगी आलोचकीय टिप्पणी का औचित्य समझ नही आया। क्या कविता स्वतंत्र पाठ के लिए अपर्याप्त या अक्षम थी?

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  3. देवी अगस्त 30, 2025 at 4:16 पूर्वाह्न

    याद नहीं पड़ता कि इस तनाव को कहने वाली कविता हाल में लिखी गई हो। ओह , यह अदृष्ट युनिवर्स ! कहने का हुनर और दुस्साहस ऐसा कि सांस रुक – रुक जाए । शिल्प को लेकर जो छलांग और बेफ़िक्री दिखती है, उसके लिए मैंने अपने पहल के इंटरव्यू में कभी विफलता का शिल्प जैसे पद का इस्ते’माल किया था और जिस पद को बहुत हाल में उम्दा कवि और अब नागरी प्रचारिणी सभा के उत्प्रेरक सद्र व्योमेश शुक्ल ने भारतेंदु के अवदान पर बात करते हुए प्रयुक्त किया – मज़ा आया कि दादा लोग स्मृतियों में खनकते रहते हैं। आमिर में स्ट्रीट लैंग्वेज का ऐसा क्रिएटिव अनुप्रयोग है कि आह और वाह एक साथ निकलते है- यह एक ढहते हुए भारत की त्रासदी है जहाँ पुकारों और गुहारों और गुनाहों की शिकायतों को सुना नहीं जाता। हैदर की टिप्पणी का एक हिस्सा कविता को बेवजह घटाता है। कॉलर पकड़ने के लिए वो कुख्यात होते जा रहे हैं, कोई मलाल नहीं । बड़े भाई की हैसियत से बस ये कह दूँ कि गिरेबाँ पकड़िए , बे – शक ; उसे यूँ चीथड़ा न कर दीजिए।

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    1. अजेय कुमार अगस्त 30, 2025 at 11:43 पूर्वाह्न

      सही कहा

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