कविताएँ ::
आदर्श भूषण
अंतिम देवता
सुखाड़ों के चर
पूजते थे पानी को देवता की तरह
सदियों-सदियों से
उनके तलुओं के नीचे
किलोमीटरों नीचे बहती थी सरस्वती
जहाँ हाहाकारों की तरह था पानी
वे अपने बहे हुए दुधमुँहों और मरे हुए ढोर की
विकल स्मृतियों में भी अपनी आँखें सूखी रखते थे—
उनका लोक-देवता भूल गया था रोने की अभिधा
जहाँ साम्य था पुलिन और नदी के बीच—
पुलिन पर पुलिन थे
नदी नहीं थी
दोनों जानते थे एक-दूसरे की जीवन-भाषा—
वहाँ पानी का कोई देवता नहीं था
पानी कई जगहों पर मुक्ति था और
कई-कई जगहों पर आलान भी
भय भी था और पथ-रेख भी
इतना सारभूत कि
लोग दूसरे ग्रहों-उपग्रहों तक चले जाते थे
पानी को खोजते
पानी प्रथम जीव था—
अंतिम देवता।
पारायण
भोग्य का सुख टटोले पर मिट्टी
जले की राख
जला—जिसे न थी इच्छा दाह की
पर कहाँ सुनता है दव अपनी अकुलाहट में
मिटती जाती है गात की किरिचें
फूटती है रीढ़ की चरमरी और
कपाल का गुम्बा
हंता नहीं जानते हिंसा की बात
हत्या जैसे नहीं जानती मृत्यु की सटीक परिभाषा
उकत-उकतकर बनी हुई चुप्प में
काँच की छिर्रियों जैसे घुपते हैं शब्द
चलने का सीधा बनाने लगता है गोल
और माथे से लटकता स्वेद होने लगता है मोटा-गाढ़ा
एकदम ही एकदम ख़ून की नक़ल का
चप्पल और तलुए के बीच घुसती जाती है ज़मीन
और बढ़ने लगता है वायुमंडलीय दाब—
ज्यों-ज्यों फेंटाने लगती है हवा में
अनुपयुक्त शब्दों की दुर्गंध और
अनुचित वाक्यों की सड़ांध
दुनिया देखती है आईना बनने के दिवास्वप्न
जबकि अँधेरा है—बहुत अँधेरा है
और यह उसने ही गढ़ा है
वह जानती है—अपने रहस्य और
अपने अनुदार दाँव-पेंच
भोग्य का फूटा घड़ा औंधा पड़ा रहे या सीधा
अंतर नहीं उससे
नियति अपनी धुरी जानती है
कोई हरकारा अंतिम की सूचना नहीं देता।
मेघदूत के विलाप का अंतिम दिन
तुम्हारे टीसते हुए व्रणों को देख तो सकता हूँ
लेकिन उन तक पहुँचने को
नहीं बना सकता पुल
समय की खाई बहुत चौड़ी है—
इतनी चौड़ी कि
संभवतः उस पार तरने तक
मेरु पर उग आए कूबड़ और
पसलियों में एक गहरा सुनसान
बिलख को सुनने का आवृत्ति-विस्तार बहुत पौना है
उसके पौनेपन में उतरते हैं
क्वार के मेघ
गरजते हैं तड़ित
तिमिर उगे दिन का सब उजास लील जाता है
ख़ाली हाथ के बंजर को टोने के लिए खोखले हो जाते हैं
चातक के पाँख
तुम्हारी पकड़ से छूटे हुए बर्तनों को गुरुत्व की उपमा में बँधने से पहले पकड़ लेने की इन कल्पनाओं में अपने भोग की धरती कोड़ रहा हूँ—
तुम्हारे ठंडे स्पर्श की स्मृति में एक रेल भी है—दौड़ती हुई
जिस पर समदिश प्रणय-शेष अब भी समय की पतली रेंग पर
हमारे गेह की ओर जाता है
साँझ बिरहन गाती है जाने कौन-से गीत
घटते-बढ़ते चाँद से गिनता हूँ दूरियों के पूनो और अमावस
दो तारों की घूमती गति के वलय-चिह्नों में दिखता है—
स्व-हृदयों का जीवट
एक सुलझे हुए दिन का पूरा आसमान खोदकर भरनी होगी खाई
काटने होंगे समय की उलट में उगे हुए पहाड़—
मेघदूत के विलाप का अंतिम दिन!
सदर्थ
वह अर्थ जोकि जानता हूँ मैं
नहीं पाओगे तुम मेरी बीनाई में
याकि नहीं कह सकता जिसे कहते हुए तुम—
सरल भाषा में
यह भोग्य का गझिनपन है
जिसकी भाषा नहीं छीन सकता—
उसे वैसे ही गहो
यह बस क्षण है
जिसके आगे बढ़ चुका है
उसकी चौहद्दियों का सब
वहाँ बस वह स्मरण है—
हाय! मरण है—क्षरण हैं कई-कई
न पाओ तुम अर्थ याकि
यह चाहता भी नहीं कि
सुलझे रहस्यों की छीजनें
तुम्हें चाहिए क्यों गरल के सूत्र
जिसे नहीं घोंटा था मैंने सरलता से ज्योनार के बाद
तुम्हें अर्थ चाहिए—
इस इहलीला से परे?
अंतिम की स्मृति में
हर आदमी किसी न किसी की स्मृति है
अंतिम की एक सीढ़ी पर
गए हुओं का सत्व समूल बना रहता है
वह जीवट विराम-चिह्न—
कल्प और यथार्थ के बीच का निसंग अकेलापन
विदा का अर्थ
उसके क्षणों से अधिक
स्मृति में स्पष्ट होता है
जीवन का यह खोया हुआ वर्ष
जिस पर पाने से अधिक खोने की गुदाइयाँ हैं
उसे बीतते हुए देखने में
खींचकर एक सीमा-रेखा
करता हूँ अपनी कल्प-काया का दो फाड़
सानता हूँ वेदना की भुरभुरी रेत में रुधिर
बोता हूँ अस्थियों की ढही हुई ठठरी
यहाँ छोड़ता हूँ शरीर
विदा की देहरी पर—
प्रवेश को पुनः पहनने पड़ेंगे अंग-प्रत्यंग
जब-जब लौटने की चेष्टाओं में ढहेंगे प्राण
यह जिसके जाने की प्रतीक्षा में
अधियाया हुआ है
आज का सारा व्याकरण
और बिगड़ा हुआ है वत्सरों का सारा गणित
उसी अंतिम की स्मृति में
विदा का एक और अध्याय जुड़ रहा है
एक विदा की प्रतीक्षा में अगली विदा की ओर।
आदर्श भूषण नई पीढ़ी के कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘एक अचानक के बीच’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : आदर्श भूषण