कविताएँ ::
अदिति शर्मा

मेरे ठीक सामने
मेरे ठीक सामने आठ या नौ साल का बच्चा बैठा था
स्कूल से सीधे दवाख़ाने आया था
बीमार है क्या
मैंने सोचा
उसके पैर की शायद एक जुराब ढीली थी
उस पर रबरबैंड चढ़ा रखी थी उसने
एक जुराब का ऊपर
और दूसरी का नीचे गिर जाना
ख़राब लगता होगा उसे
ख़ून का बहाव रुकने
और रबरबैंड से होने वाले दर्द से ज़्यादा ख़राब
हमें इन्फ़्लूएंसर्स
हर नए साल पर बता रहे थे
कि कैसे कृतज्ञ होना चाहिए
हमें जीवन के प्रति
‘जूता नहीं है तुम्हारे पास?
देखो पैर नहीं है उसके पास’
कृतज्ञता के लिए
दूसरे की यातना की ज़रूरत पड़ रही थी सबको
एक रबरबैंड से जुराब थामे हुए हम सब
अपनी प्लेट में रखी रोटी के प्रति कृतज्ञ हैं
क्योंकि कितने लोग भूखे हैं!
हमें इतना ख़ुश रहना क्यों सिखाया जा रहा है?
कविता लिखने के लिए
दीवारों पर पाँच छह छिपकलियाँ
गश्त लगाती ही रहती
फ़र्श पर दो छोटे और एक बड़ा मेंढक फुदक रहे थे
अभी-अभी घबराकर
पैर पर रेंगते कनखजूरे को हटाया था मैंने
बारिशों का पानी
बूँद-बूँद नहीं रिसता था
अचानक फ़व्वारे की तरह
कमरे में गिरने लगता था
एक गिरगिट भी था
जो रसोई में रहने लगा था
दीवारों की सीलन
कभी दूर नहीं होती थी
असुरक्षा की भावना से ज़्यादा
कहीं घर न होने की तकलीफ़ ने जकड़ा हुआ था
यक़ीनन कविता लिखने के लिए
ज़रूरी तकलीफ़ें
मौजूद थी जीवन में
पर एक पंक्ति भी नहीं बनती थी
दुःख से बाहर निकलकर
मैं मान सकती थी इन्हें
जीवन के सबसे महान् दिन भी
पर फिर सब ठीक लगने लगा
एक ही घर में
हम कई प्राणी शांति से रहने लगे
एक दूसरे को कोई तकलीफ़ न पहुँचाने के
अनकहे वादे के साथ
ऐसे वादे इंसानों से नहीं किए जा सकते
हर जगह
हर जगह निर्वासित होने की भावना
भीतर कहीं बर्फ़ की तरह जम जाती है
अक्सर सोचते हैं
कि कहीं कोई अपना है
जो इसे पिघला सकता है
पर कहीं कोई होता नहीं है
कहीं जाना
कहीं से आना
वे यात्राएँ बन जाती हैं
जो बस ऊब चुके आदमी की सैर होती हैं
एक सिरे पर पहुँचकर
वापस उसी कोने तक
फिर लौट आने वाली सैर
चुनने को तो हम कोई भी शहर चुन सकते थे
पर हम हर बार ऐसे शहर चुनते गए
जहाँ पानी में चाँद की नहीं
ऊँची-ऊँची इमारतों की परछाइयाँ तैरती थीं
जहाँ आदमी और इमारत में
फ़र्क़ नहीं दिखता था
एक उम्र तक लगता रहा
कि जो कुछ हम करते हैं
अपना जीवन गढ़ने के लिए करते हैं
पर गढ़ते हम ख़ुद को हैं
इस जीवन के लिए
जो हमें मिला
सवेरे घर से निकलने से भी पहले से
शुरू हो जाती है
ख़ुद को ख़र्चने की प्रक्रिया
मुस्कुराने के बीस और अभिवादन के
चालीस तरीइक़ों के बीच
असली और नक़ली का भेद
ख़त्म-सा होने लगता है
हाँ कहते जाने या
हाँ में सिर हिलाने की आदत से
सिर्फ़ गर्दन के पीछे ही नहीं
दिमाग़ में भी एक कूबड़ बनने लगता है
शाम तक ख़ूब किफ़ायत करने पर
जितना अपने लिए बचाती हूँ ख़ुद को
बस उतना ही माना जाए मुझे
देखने की कोशिश
और फिर मैंने जाना
कि मुझमें
ऐसी कोई ख़ास बात नहीं
जिसके चलते
मेरी परिणति थोड़ी भी अलग होगी
मैं उन तमाम लोगों में से एक हूँ
जिन्होंने सपने देखे
और तमाम तरह की हक़ीक़तों में खप गए
इस हादसे ने
मुझे एक तरह से आज़ाद ही किया
मेरा आकाश थोड़ा और बड़ा हो गया
अब मैं सिर्फ़ जी सकती हूँ
ये कोई मामूली बात तो नहीं
मेरी आँखें आकाश के बेहिसाब रंग देख सकती हैं
मैंने इस धरती पर पैर हमेशा कृतज्ञता से रखे हैं
अधिकार की भावना से भरकर नहीं
दावे की तरह से कुछ नहीं कहा
कुछ नहीं किया
हाँ कुछ पाने की इच्छा का मर जाना
किसी किसी रोज़ एक हादसे की तरह गुज़रता है
पर वे तमाम लोग
जो पंक्तिबद्ध हैं
बसों में लटके हैं
जिन्होंने बस या ट्रेन को नहीं
बल्कि अपनी ज़िंदगी को कसकर पकड़ा हुआ है
उनके चेहरों पर
अपना दृष्टिकोण पोतकर
उन्हें किसी कमज़ोरी या कमतरी से
जोड़कर नहीं
किसी सुंदर कविता
या गद्य की तरह
देखने की कोशिश में हूँ
कभी-कभी
सुख के बारे में
मुझे निश्चित कुछ नहीं पता
हाँ कभी-कभी अपने दुःख ख़ुद चुने मैंने
हँसने में कभी उतनी नहीं रही मैं
जितनी रोने में
ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्यार
मैंने रोते हुए किया
सुख की बात हर जगह थी
कहीं था नहीं वो
मैंने ढूँढ़ा नहीं
ऐसी भी बात नहीं
मेरे पंख झड़ते गए
और मैंने देखा कि सुखों के रास्ते बहुत
कठिन थे
मैं कैसे उड़ती
लौट आई
इसे लौटना नहीं ठहरना कह सकती थी
लेकिन मैंने कहा न
कभी-कभी अपने दुःख ख़ुद चुने मैंने
आवाज़ें
मेरे आस-पास बहुत-सी आवाज़ें थीं
फ़िक्र की
प्यार की भी
क्या करना है और क्या नहीं
बताने और समझाने वाली
बेहिसाब आवाज़ें
जैसे किसी के भी जीवन में होती हैं
जिन्हें बेझिझक शोर कहा जा सकता है
जीवन में उन पलों की शुक्रगुज़ार हूँ
जब इन सब आवाज़ों के बीच
अपनी आवाज़ को पहचान सकी हूँ
सुन सकी हूँ
वे बातें
जो शोर में दबती जाती थी
आवाज़ें शांत हो जाएँ
और सुनने का संघर्ष कम
जब हम बोलें कुछ
तो सच में वे शब्द
प्यार हों
परवाह की चादर में लिपटे हुए
अदिति शर्मा नई पीढ़ी की कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह दूसरा अवसर है। ‘सदानीरा’ पर प्राय: कविताओं के साथ संपादकीय टिप्पणी हो; यह प्रयत्न रहता है, लेकिन सब बार यह संभव नहीं हो पाता है। दरअस्ल, कुछ कविताएँ आपको कुछ कहने पर बाध्य करती हैं और कुछ कविताएँ चुप रहने पर। कविता-संदर्भ में ये दोनों ही लक्षण विशेष हैं। इन लक्षणों से युक्त कविताओं के प्रकाशन के लिए कवि ‘सदानीरा’ का चुनाव करते हैं, इसके लिए हम उनके सदा आभारी हैं। अदिति शर्मा से aditisharmamystery@gmail.com पर संवाद संभव है।