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अदिति शर्मा

अदिति शर्मा

धरती सारी

दरवाज़ा किसी के जीवन में
ख़ुद को समझ लें
उस ग़ुरूर से बचाना ईश्वर
कि बंद करने को
कुछ न रहे पास

दीवार ही सही
कमर टिकाई हो जिस पर
कभी किसी कमज़ोर पल
उस पर थूक सकने की
जहालत से भी बचाना

पर वह साहस ज़रूर देना
जो मुँह से बाहर निकलते दिल को पकड़ सके
सँभाल सके और कह सके
कि जो पाया उसे लौटाने से ज़्यादा ज़रूरी है
उस भूमिका को सँभालना जो हम निभाते हैं
अपने या किसी और के जीवन में
माफ़ कर सकें उनसे ज़्यादा खुद को

याद रख सकें बस इतना
कि विश्व के सबसे अलोकप्रिय लोगों ने बख़्शी जान हमें
उन्हें सबने नज़रंदाज़ किया
उनके पैरों में सारे आँसू वार दें
उनकी हथेली में बिखेर सकें सारी हँसी

जब कह देना ही सब कुछ हो
चुप रह सकें उस वक़्त
कड़वी बात को यूँ ज़ब्त कर लें

नाख़ूनों में भर लें
खुरचकर धरती सारी।

हस्तलिपि

एक अलग ढंग से सुंदर लिखने की कोशिश
कर्सिव में
हर अक्षर को दूसरे से यूँ जोड़ना कि जैसे
अधूरे हों एक दूसरे के बिना
बढ़ते हुए आगे
एक लय में हों

हर बार बदल देना अपने लिखने का ढंग
कि जो लगे सबसे सुंदर
एक-एक अक्षर को अलग-अलग
मोती-सा टाँकना

परीक्षा ख़त्म होने से चंद मिनट पहले
लिखे हुए अपने ही अक्षरों को देख
हमेशा लगा कि
हक़ीक़त ये है मेरी
बाक़ी सब पाखंड

पेंसिल से लिखे को मिटाने पर
पीछे कोरापन नहीं
कुछ रेखाएँ रह जाती हैं
ऐसी ही कुछ रेखाएँ
माथे पर गुद जाती हैं

बड़े होते समझ आया
कि लिखना एक जालसाज़ी है
तथ्यों को बदलने का एक तरीक़ा भर
चाहे कितने ही सुंदर हर्फ़ों में पिरोया गया हो भले

एक तारीख़ के सामने
तथ्य है कि तुम मर गए
कभी नहीं आओगे
मेरे पन्नों में फूलों की छाप के साथ
टूटे-बिखरे पत्तों के पीछे लिखा है
कि तुम आओगे बार-बार
बनाकर लिखी गई वह बात

कहीं खाल में गोदनी न पड़े
एक हैंडराइटिंग से
एक चेहरे की झलक मिलती रहे
बस।

नन्हा सिपाही

ऐसे बहुत से महीने थे
जिन्हें बीत जाने के लिए ही आना था
पर वे ठहरे रहे
हमेशा हमारे बीच
कुछ चुनिंदा दिनों की तरह
जैसे चुन लिए जाते हैं
दुःख

पिता की हत्या के बाद
हाथ धुलाती और मुँह पोंछती माँ
नहीं बताती कि हाथ पर लगा रंग ख़ून है
उँगलियों में दौड़ती कँपकँपी डर है
तुम्हारे गुनाह सारे मेरे पुण्य हैं

महीनों को मौसमों से पहचानना ग़लत साबित हुआ
दिसंबर में हथेली भीगी रही
जून में देह सिकुड़ी रही
कई रंगों को मिलाने पर भी नया रंग नहीं बना

चौथे माले पर चढ़ते हुए पिता की
घुटती आवाज़
झुके हुए कंधे
लाल चेहरा
गहरी साँसें
इतनी गहरी जैसे मेरी छाती में कोई फूँकनी से
अंगारों को और भड़काए

तय हुआ कि इस व्यक्ति से युद्ध नहीं किया जाएगा
ये नन्हा सिपाही इसका रक्षक होगा
सदा-सदा के लिए
सिपाही जिसे बस युद्ध की शिक्षा मिली
अपने पाठ ख़ुद पढ़ता गया

रास्ते में मिली उपेक्षा को
एक उंह से उड़ाकर आगे बढ़ा
आगे बहुत लंबा रास्ता था
सिपाही डरा
साँप-सा लंबा रास्ता
उसे अपने कंधे पर बहुत बोझ मालूम हुआ
कंधों पर बोझ हो तो लंबा हो जाता है कोई भी रास्ता
उसने बंदूक़ उतारी और झाड़ियों में फेंक दी
अब हल्का-सा लगा कुछ
कुछ फलाँगें लगाई
मानो अभी उड़कर सूरज की गोद में जा बैठेगा

सिपाही रास्ता तय करता रहा
कैलेंडर छूट गए
घड़ी तारीख़ महीनों और मौसमों का हिसाब छूट गया
उन सब पैमानों को
जिनसे आँका जाता है
इंसान के वजूद को
वह कब का झाड़ियों में फेंक आगे बढ़ चुका था
कंधे का बोझ।

फ़रेब हैं आँखें

तस्वीरें कभी न बदलें
जब वक़्त बदले दीवारें
चले जाने के बहुत क़रीब आकर ठहर जाना

जब भी बहे वक़्त
टूटकर न गिरे काँच
फ़रेब हैं आँखें
ज़हर हँसी
भँवर एक उँगली
वह उँगली तुम

ज़बान पलटकर हलक़ में
थूकती ख़ून रोज़
बाहर आते शब्द झूठे
वह झूठ मैं
प्यार कहने से पहले रुकती हुई साँस।

भरोसा

मैंने मेरे मन में
एक भरोसा पाला
उसे कभी क़ैद नहीं किया
वह जब-जब उड़ा फिर लौट आया
चिड़िया जैसे नन्हे पंख उगे
धरती के गुरुत्व के विरुद्ध पहली उड़ान
पहला लक्षण था आज़ादी की चाहना का
भरोसे के भीतर एक और भरोसा जन्मा
और ये सिलसिला चलता रहा
अब इनकी संख्या इतनी है
कि निराश होने के लिए
मुझे अपने हर भरोसे के पंख मरोड़कर
उन्हें अपाहिज बनाना होगा!
करना होगा क़ैद
जो मैं कर नहीं पाऊँगी
हैरानी! मैं ऐसा सोच भी पाई
अपनी इस सोच पर बीती रात घंटों सोचा
ख़ुद पर लानतें फेंकीं
कोसा ख़ुद को
मन ग्लानि से भर उठा
आँखों के कोने भीगते गए
और फिर इकठ्ठा किया अपना सारा प्यार
उनके पंखों को सहलाया
हर एक भरोसे को पुचकारा
उनके सतरंगे पंखों को
आज़ादी के एहसास से भरते देखा
सुबह तक वे एक लंबी उड़ान पर निकल चुके थे
उनकी अनुपस्थिति में
मैं निराश!
पर जान पा रही थी कि शाम तक वे लौट आएँगे
यह वह भरोसा है
जिसके पंख अभी उगने बाक़ी हैं
जो अभी ही है जन्मा!


अदिति शर्मा नई पीढ़ी की रचनाकार हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे aditisharmamystery@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. अवनीश कुमार नवम्बर 24, 2021 at 3:57 अपराह्न

    बहुत ही सुंदर वैचारिकी👌👌

    Reply
  2. ललन कुमार सिंह जून 4, 2022 at 11:59 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर व सरल रचना जो सीधे दिल को छू लेती है।

    Reply

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